ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 04
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
चौथा अध्याय
पृथ्वी का देवताओं के साथ ब्रह्मलोक में जाकर अपनी व्यथा-कथा सुनाना, ब्रह्माजी का उन सबके साथ कैलासगमन, कैलास से ब्रह्मा, शिव तथा धर्म का वैकुण्ठ में जाकर श्रीहरि की आज्ञा से गोलोक में जाना और वहाँ विरजा-तट, शतशृङ्ग-पर्वत, रासमण्डल एवं वृन्दावन आदि के प्रदेशों का अवलोकन करना, गोलोक का विस्तृत वर्णन

नारदजी ने पूछा — वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ नारायण ! किसकी प्रार्थना से और किस कारण जगदीश्वर श्रीकृष्ण ने इस भूतल पर अवतार लिया था ?

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

श्रीनारायण ने कहा — प्राचीन काल की बात है । वाराह-कल्प में पृथ्वी असुरों के अधिक भार से आक्रान्त हो गयी थी; अतः शोक से अत्यन्त पीड़ित हो वह ब्रह्माजी की शरण में गयी। उसके साथ असुरों द्वारा सताये गये देवता भी थे, जिनका चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो रहा था । पृथ्वी उन देवताओं के साथ ब्रह्माजी की दुर्गम सभा में गयी । वहाँ उसने देखा, देवेश्वर ब्रह्मा ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान हो रहे हैं तथा बड़े-बड़े ऋषि, मुनीन्द्र तथा सिद्धेन्द्रगण सानन्द उनकी सेवामें उपस्थित हैं । ब्रह्माजी ‘कृष्ण’ इस दो अक्षर के परब्रह्मस्वरूप मन्त्र का जप कर रहे थे। उनके नेत्र भक्तिजनित आनन्द के आँसुओं से भरे थे तथा सम्पूर्ण अङ्गों में रोमाञ्च हो आया था। मुने! देवताओं सहित पृथ्वी ने भक्तिभाव से चतुरानन को प्रणाम किया और दैत्यों के भार आदि का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। आँसू भरे नेत्रों और पुलकित शरीर से वह ब्रह्माजी की स्तुति तथा रोदन करने लगी ।

तब जगद्धाता ब्रह्मा ने उससे पूछा — भद्रे ! तुम क्यों स्तुति करती और रोती हो ? बताओ, किस उद्देश्य से तुम्हारा आगमन हुआ है ? विश्वास करो, तुम्हारा भला होगा । कल्याणि ! सुस्थिर हो जाओ, मेरे रहते तुम्हें क्या भय है ?

इस प्रकार पृथ्वी को आश्वासन देकर ब्रह्माजी ने देवताओं से आदरपूर्वक पूछा — ‘देवगण! किसलिये तुम्हारा मेरे समीप आगमन हुआ है ? ‘

ब्रह्माजी की यह बात सुनकर देवता लोग उन प्रजापति से बोले — प्रभो ! पृथ्वी दैत्यों के भार से दबी हुई है तथा हम भी उनके कारण संकट में पड़ गये हैं। दैत्यों ने हमें ग्रस लिया । आप ही जगत् के स्रष्टा हैं, शीघ्र ही हमारा उद्धार कीजिये । ब्रह्मन् ! आप ही इस पृथ्वी की गति हैं; इसे शान्ति प्रदान करें। पितामह ! यह पृथ्वी जिस भार से पीड़ित है, उसी से हम भी दुःखी हैं, अतः आप उस भार का हरण कीजिये ।’

देवताओं की बात सुनकर जगत्स्रष्टा ब्रह्मा ने पृथ्वी से पूछा — ‘ बेटी ! तुम भय छोड़कर मेरे पास सुखपूर्वक रहो । पद्मलोचने! बताओ, किनका ऐसा भार आ गया है, जिसे सहन करने में तुम असमर्थ हो गयी हो । भद्रे ! मैं उस भार को दूर करूँगा । निश्चय ही तुम्हारा भला होगा ।’

ब्रह्माजी का यह वचन सुनकर पृथ्वी के मुख पर और नेत्रों में प्रसन्नता छा गयी।

वह जिस-जिस कारण से इस तरह पीड़ित थी, अपनी पीड़ा की उस कथा को कहने लगी — ‘ तात ! सुनिये, मैं अपने मन की व्यथा बता रही हूँ । विश्वासी बन्धु-बान्धव के सिवा दूसरे किसी को मैं यह बात नहीं बता सकती; क्योंकि स्त्री-जाति अबला होती है। अपने सगे बन्धु, पिता, पति और पुत्र सदा उसकी रक्षा करते हैं; परंतु दूसरे लोग निश्चय ही उसकी निन्दा करने लगते हैं । जगत्-पिता आपने मेरी सृष्टि की है; अतः आपसे अपने मन की बात कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है। मैं जिनके भार से पीड़ित हूँ, उनका परिचय देती हूँ, सुनिये ।

‘जो श्रीकृष्णभक्ति से हीन हैं और जो श्रीकृष्ण-भक्त की निन्दा करते हैं, उन महापातकी मनुष्यों का भार वहन करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ। जो अपने धर्मके आचरणसे शून्य तथा नित्यकर्मसे रहित हैं, जिनकी वेदोंमें श्रद्धा नहीं है; उनके भारसे मैं पीड़ित हूँ। जो पिता, माता, गुरु, स्त्री, पुत्र तथा पोष्य – वर्गका पालन-पोषण नहीं करते हैं; उनका भार वहन करने में मैं असमर्थ हूँ । पिताजी! जो मिथ्यावादी हैं, जिनमें दया और सत्य का अभाव है तथा जो गुरुजनों और देवताओं की निन्दा करते हैं; उनके भारसे मुझे बड़ी पीड़ा होती है। जो मित्रद्रोही, कृतघ्न, झूठी गवाही देने वाले, विश्वासघाती तथा धरोहर हड़प लेने वाले हैं; उनके भार से भी मैं पीड़ित रहती हूँ। जो कल्याणमय सूक्तों, साम-मन्त्रों तथा एकमात्र मङ्गलकारी श्रीहरि के नामों का विक्रय करते हैं; उनके भार से मुझे बड़ा कष्ट होता है। जो जीव-घाती, गुरु-द्रोही, ग्राम-पुरोहित, लोभी, मुर्दा जलाने वाले तथा ब्राह्मण होकर शूद्रान्न भोजन करने वाले हैं; उनके भार से मुझे बड़ा कष्ट होता है। जो मूढ़ पूजा, यज्ञ, उपवास-व्रत और नियम को तोड़ने वाले हैं; उनके भार से भी मुझे बड़ी पीड़ा होती है । जो पापी सदा गौ, ब्राह्मण, देवता, वैष्णव, श्रीहरि, हरिकथा और हरिभक्ति से द्वेष करते हैं; उनके भार से मैं पीड़ित रहती हूँ । विधे! शङ्खचूड़ के भार से जिस तरह मैं पीड़ित थी, उससे भी अधिक दैत्यों के भार से पीड़ित हूँ । प्रभो! यह सब कष्ट मैंने कह सुनाया। यही मुझ अनाथा का निवेदन है। यदि आपसे मैं सनाथ हूँ तो आप मेरे कष्ट के निवारण का उपाय कीजिये ।’

यों कहकर वसुधा बार- बार रोने लगी । उसका रोदन सुनकर कृपानिधान ब्रह्मा ने उससे कहा — ‘वसुधे ! तुम्हारे ऊपर जो दस्युभूत राजाओं का भार आ गया है, मैं किसी उपाय से अवश्य ही उसे हटाऊँगा।’

पृथ्वी को इस प्रकार आश्वासन देकर देवताओं सहित जगद्धाता ब्रह्मा भगवान् शंकर के निवासस्थान कैलास पर्वत पर गये । वहाँ पहुँचकर विधाता ने कैलास के रमणीय आश्रम तथा भगवान् शंकर को देखा। वे गङ्गाजी के तट पर अक्षयवट के नीचे बैठे हुए थे। उन्होंने व्याघ्रचर्म पहन रखा था । दक्षकन्या की हड्डियों के आभूषण से वे विभूषित थे। उन्होंने हाथों में त्रिशूल और पट्टिश धारण कर रखे थे। उनके पाँच मुख और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र थे । अनेकानेक सिद्धों ने उन्हें घेर रखा था। वे योगीन्द्रगण से सेवित थे और कौतूहलपूर्वक गन्धर्वों का संगीत सुन रहे थे। साथ ही अपनी ओर देखती हुई पार्वती की ओर प्रेमपूर्वक तिरछी नज रसे देख लेते थे। अपने पाँच मुखों द्वारा श्रीहरि के एकमात्र मङ्गल नाम का जप करते थे। गङ्गाजी में उत्पन्न कमलों के बीजों की माला से जप करते समय उनके शरीर में रोमाञ्च हो आता था।

इसी समय ब्रह्माजी पृथ्वी तथा नतमस्तक देवसमूहों के साथ महादेवजी के सामने जा खड़े हुए। जगद्गुरु को आया देख भगवान् शंकर शीघ्र ही भक्तिभाव से उठकर खड़े हो गये। उन्होंने प्रेमपूर्वक मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। तत्पश्चात् सब देवताओं ने तथा पृथ्वी ने भी भक्तिभाव से चन्द्रशेखर शिव को प्रणाम किया और शिव ने उन सबको आशीर्वाद दिया । प्रजापति ब्रह्मा ने पार्वतीनाथ शिव से सारा वृत्तान्त कहा। वह सब सुनकर भक्तवत्सल शंकर ने तुरंत ही मुँह नीचा कर लिया। भक्तों पर कष्ट आया सुनकर पार्वती और परमेश्वर शिव को बड़ा दुःख हुआ । तदनन्तर ब्रह्मा और शिव ने देवसमूहों तथा वसुधा को यत्नपूर्वक सान्त्वना देकर घर को लौटा दिया। फिर वे दोनों देवेश्वर तुरंत धर्म के घर आये और उनके साथ विचार-विमर्श करके वे तीनों श्रीहरि के धाम को चल दिये।

भगवान्‌ के उस परम धाम का नाम वैकुण्ठ है। वह जरा और मृत्यु को दूर भगाने वाला है । ब्रह्माण्ड से ऊपर उसकी स्थिति है। वह उत्तम लोक मानो वायु के आधार पर स्थित है । (वास्तव में वह चिन्मय लोक श्रीहरि से भिन्न न होने के कारण अपने-आपमें ही स्थित है। उसका दूसरा कोई आधार नहीं है ।) उस सनातन धाम की स्थिति ब्रह्मलोक से एक करोड़ योजन ऊपर है। दिव्य रत्नों द्वारा निर्मित विचित्र वैकुण्ठधाम का वर्णन कर पाना कवियों के लिये असम्भव है। पद्मराग और नीलमणि के बने हुए राजमार्ग उस धाम की शोभा बढ़ाते हैं । मन के समान तीव्र गति जाने वाले वे ब्रह्मा, शिव और धर्म सब-के-सब उस मनोहर वैकुण्ठधाम में जा पहुँचे । श्रीहरि के अन्तःपुर में पहुँचकर उन सबने वहाँ उनके दर्शन किये।

वे श्रीहरि दिव्य रत्नमय अलङ्कारों से विभूषित हो रत्नसिंहासन पर बैठे थे । रत्नों के बाजूबंद, कंगन और नूपुर उनके हाथ- पैरों की शोभा बढ़ाते थे । दिव्य रत्नों के बने हुए दो कुण्डल उनके दोनों गालों पर झलमला रहे थे । उन्होंने पीताम्बर पहन रखा था तथा आजानुलम्बिनी वनमाला उनके अग्रभाग को विभूषित कर रही थी । सरस्वती के प्राणवल्लभ श्रीहरि शान्त भाव से बैठे थे। लक्ष्मीजी उनके चरणारविन्दों की सेवा कर रही थीं। करोड़ों कन्दर्पं की लावण्यलीला से वे प्रकाशित हो रहे थे। उनके चार भुजाएँ थीं और मुखर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी । सुनन्द, नन्द और कुमुद आदि पार्षद उनकी सेवामें जुटे थे। उनका सम्पूर्ण अङ्ग चन्दन से चर्चित था तथा उनका मस्तक रत्नमय मुकुट से जगमगा रहा था। वे परमानन्द-स्वरूप भगवान् भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये व्याकुल दिखायी देते थे ।

मुने ! ब्रह्मा आदि देवेश्वरों ने भक्तिभाव से उनके चरणों में प्रणाम किया और श्रद्धापूर्वक मस्तक झुकाकर बड़ी भक्ति के साथ उनकी स्तुति की। उस समय वे परमानन्द के भार से दबे हुए थे। उनके अङ्गों में रोमाञ्च हो आया था ।

॥ ब्रह्मोवाच ॥
नमामि कमलाकांतं शांतं सर्वेष्टमच्युतम् ।
वयं यस्य कलाभेदाः कलांशकलया सुराः ॥ ६४ ॥
मनवश्च मुनींद्राश्च मानुषाश्च चराचराः ।
कलाकलांशकलया भूतास्त्वत्तो निरंजन ॥ ६५ ॥
॥ शंकर उवाच ॥
त्वामक्षयमक्षरं वा व्यक्तमव्यक्तमीश्वरम् ।
अनादिमादिमानंदरूपिणं सर्वरूपिणम् ॥ ६६ ॥
अणिमादिकसिद्धीनां कारणं सर्वकारणम् ।
सिद्धिज्ञं सिद्धिदं सिद्धिरूपं कः स्तोतुमीश्वरः ॥ ६७ ॥
॥ धर्म उवाच ॥ ॥
वेदे निरूपितं वस्तु वर्णनीयं विचक्षणैः ।
वेदे निर्वचनीयं यत्तन्निर्वक्तुं च कः क्षमः ॥ ६८ ॥
यस्य संभावनीयं यद्गुणरूपं निरंजनम् ।
तदतिरिक्तं स्तवनं किमहं स्तौमि निर्गुणम् ॥ ६९ ॥
ब्रह्मादीनामिदं स्तोत्रं षट्श्लोकोक्तं महामुने ।
पठित्वा मुच्यते दुर्गाद्वाञ्छितं च लभेन्नरः ॥ ७० ॥

ब्रह्माजी बोले — मैं शान्त, सर्वेश्वर तथा अच्युत उन कमलाकान्त को प्रणाम करता हूँ, जिनकी हम तीनों विभिन्न कलाएँ हैं तथा समस्त देवता जिनकी कला की भी अंश कला से उत्पन्न हुए हैं। निरञ्जन! मनु, मुनीन्द्र, मानव तथा चराचर प्राणी आपसे ही आपके कला की अंशकला द्वारा प्रकट हुए हैं ।

भगवान् शंकर ने कहा — आप अविनाशी तथा अविकारी हैं। योगीजन आपमें रमण करते हैं। आप अव्यक्त ईश्वर हैं। आपका आदि नहीं है; परंतु आप सबके आदि हैं। आपका स्वरूप आनन्दमय है । आप सर्वरूप हैं। अणिमा आदि सिद्धियोंके कारण तथा सबके कारण हैं । सिद्धि के ज्ञाता, सिद्धिदाता और सिद्धिरूप हैं। आपकी स्तुति करने में कौन समर्थ है ?

धर्म बोले — जिस वस्तु का वेद में निरूपण किया गया है, उसी का विद्वान् लोग वर्णन कर सकते हैं। जिनको वेद में ही अनिर्वचनीय कहा गया है, उनके स्वरूप का निरूपण कौन कर सकता है ? जिसके लिये जिस वस्तु की सम्भावना की जाती है, वह गुणरूप होती है। वही उसका स्तवन है। जो निरञ्जन (निर्मल) तथा गुणों से पृथक् — निर्गुण हैं; उन परमात्मा की मैं क्या स्तुति करूँ ?

महामुने ! ब्रह्मा आदि का किया हुआ यह स्तोत्र जो छः श्लोकों में वर्णित है, पढ़कर मनुष्य दुर्गम संकट से मुक्त होता और मनोवाञ्छित फल को पाता है ।

देवताओं की स्तुति सुनकर साक्षात् श्रीहरि ने उनसे कहा तुम सब लोग गोलोक को जाओ। पीछे से मैं भी लक्ष्मी के साथ आऊँगा । श्वेतद्वीपनिवासी वे नर और नारायण मुनि तथा सरस्वतीदेवी-ये गोलोक में जायँगे। अनन्तशेषनाग, मेरी माया, कार्तिकेय, गणेश तथा वेदमाता सावित्री — ये सब पीछे से निश्चित ही वहाँ जायँगे। वहाँ मैं गोपियों तथा राधा के साथ द्विभुज श्रीकृष्णरूप से निवास करता हूँ। यहाँ सुनन्द आदि पार्षदों तथा लक्ष्मी के साथ रहता हूँ। नारायण, श्रीकृष्ण तथा श्वेतद्वीपनिवासी विष्णु मैं ही हूँ । ब्रह्मा आदि अन्य सम्पूर्ण देवता मेरी ही कलाएँ हैं । देव, असुर और मनुष्य आदि प्राणी मेरी कला की अंशकला की कला से उत्पन्न हुए हैं । तुम लोग गोलोक को जाओ। वहाँ तुम्हारे अभीष्ट कार्य की सिद्धि होगी । फिर हम लोग भी सबकी इष्टसिद्धि के लिये वहाँ आ जायँगे ।

इतना कहकर श्रीहरि उस सभा में चुप हो गये। तब उन सब देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया और वहाँ से अद्भुत गोलोक की यात्रा की। वह उत्कृष्ट एवं विचित्र परम धाम जरा एवं मृत्यु को हर लेनेवाला है । वह अगम्य लोक वैकुण्ठ से पचास करोड़ योजन ऊपर है और भगवान् श्रीकृष्ण की इच्छा से निर्मित है। उसका कोई बाह्य आधार नहीं है। श्रीकृष्ण ही वायुरूप से उसे धारण करते हैं। वे ब्रह्मा आदि देवता उस अनिर्वचनीय लोक की ओर जाने के लिये उन्मुख हो चल दिये। उन सबकी गति मन के समान तीव्र थी । अतः वे सब-के-सब विरजा के तट पर जा पहुँचे।

सरिता के तट का दर्शन करके उन देवताओं को बड़ा आश्चर्य हुआ । विरजा नदी का वह तटप्रान्त शुद्ध स्फटिकमणि के समान उज्ज्वल, अत्यन्त विस्तृत और मनोहर था, मोती-माणिक्य तथा उत्कृष्ट मणिरत्नों की खानों से सुशोभित था । काले, उज्ज्वल, हरे तथा लाल रत्नों की श्रेणियों से उद्भासित होता था । उस तटपर कहीं तो मूँगों के अड्ङ्कुर प्रकट हुए हैं, जो अत्यन्त मनोहर दिखायी देते हैं। कहीं बहुमूल्य उत्तम रत्नों की अनेक खानें उसकी शोभा बढ़ाती हैं । कहीं श्रेष्ठ निधियों के आकर उपलब्ध होते हैं, जिनसे वहाँ की छटा आश्चर्य में डाल देती है। वह दृश्य विधाता के भी दृष्टिपथ में आने वाला नहीं है । मुने! विरजा के किनारे कहीं तो पद्मराग और इन्द्रनील मणियों की खानें हैं, कहीं मरकतमणि की खानें श्रेणी-बद्ध दिखायी देती हैं, कहीं स्यमन्तकमणि की तथा कहीं स्वर्णमुद्राओं की खानें शोभा पाती हैं । कहीं बहुमूल्य पीले रंग की मणिश्रेणियों के आकर विरजातट को अलंकृत करते हैं। कहीं रत्नों के, कहीं कौस्तुभमणि के और कहीं अनिर्वचनीय मणियों के उत्तम आकर हैं ।

विरजा के उस तट-प्रान्त में कहीं-कहीं उत्तम रमणीय विहारस्थल उपलब्ध होते हैं । उस परम आश्चर्यजनक तट को देखकर वे देवेश्वर नदी के उस पार गये। वहाँ जाने पर उन्हें पर्वतों में श्रेष्ठ शतश्रृंग दिखायी दिया, जो अपनी शोभा से मन को मोहे लेता था। दिव्य पारिजात-वृक्षों की वनमालाएँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं । वह पर्वत कल्पवृक्षों तथा कामधेनुओं द्वारा सब ओर से घिरा था। उसकी ऊँचाई एक करोड़ योजन थी और लंबाई दस करोड़ योजन | उसके ऊपर की चौरस भूमि पचास करोड़ योजन विस्तृत थी । वह पर्वत चहारदीवारी की भाँति गोलोक के चारों ओर फैला हुआ था । उसी के शिखर पर उत्तम गोलाकार रासमण्डल है, जिसका विस्तार दस योजन है । वह रासमण्डल सुगन्धित पुष्पों से भरे हुए सहस्रों उद्यानों से सुशोभित है और उन उद्यानों में भ्रमर-समूह छाये रहते हैं । सुन्दर रत्नों और द्रव्यों से सम्पन्न अगणित क्रीडाभवन तथा कोटि सहस्र रत्नमण्डप उसकी शोभा बढ़ाते हैं ।

रत्नमयी सीढ़ियों, श्रेष्ठ रत्ननिर्मित कलशों तथा इन्द्रनीलमणि के शोभाशाली खम्भों से उस मण्डल की शोभा और बढ़ गयी है । उन खम्भों में सिन्दूर के समान रंगवाली मणियाँ सब ओर जड़ी गयी हैं तथा बीच-बीच में लगे हुए मनोहर इन्द्रनील नामक रत्नों से वे मण्डित हैं । रत्नमय परकोटों में जटित भाँति-भाँति के मणिरत्न उस रासमण्डल की श्रीवृद्धि करते हैं । उसमें चारों दिशाओं की ओर चार दरवाजे हैं, जिनमें सुन्दर किंवाड़ लगे हुए हैं । उन दरवाजों पर रस्सियों में गुँथे हुए आम्रपल्लव बन्दनवार के रूप में शोभा दे रहे हैं। वहाँ दोनों ओर झुंड-के-झुंड केले के खम्भे आरोपित हुए हैं। श्वेतधान्य, पल्लवसमूह, फल तथा दूर्वादल आदि मङ्गल द्रव्य उस मण्डल की शोभा बढ़ाते हैं । चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुमयुक्त जल का वहाँ सब ओर छिड़काव हुआ है।

मुने! रत्नमय अलंकारों तथा रत्नों की मालाओं से अलंकृत करोड़ों गोपकिशोरियों के समूह से रासमण्डल घिरा हुआ है । वे गोपकुमारियाँ रत्नों के बने हुए कंगन, बाजूबंद और नूपुरों से विभूषित हैं । रत्ननिर्मित युगल कुण्डल उनके गण्डस्थल की शोभा बढ़ाते हैं। उनके हाथों की अंगुलियाँ रत्नों की बनी हुई अँगूठियों से विभूषित हो बड़ी सुन्दर दिखायी देती हैं। रत्नमय पाशक-समूहों (बिछुओं ) – से उनके पैरों की अंगुलियाँ उद्भासित होती हैं । वे गोपकिशोरियाँ रत्नमय आभूषणों से विभूषित हैं । उनके मस्तक उत्तम रत्नमय मुकुटों से जगमगा रहे हैं। नासिका के मध्यभाग में गजमुक्ता की बुलाकें बड़ी शोभा दे रही हैं। उनके भालदेश में सिन्दूर की बेंदी लगी हुई है। साथ ही आभूषण पहनने के स्थानों में दिव्य आभूषण धारण करने के कारण उनकी दिव्य प्रभा और भी उद्दीप्त हो उठी है। उनकी अङ्गकान्ति मनोहर चम्पा के समान जान पड़ती है। वे सब-की-सब चन्दन-द्रव से चर्चित हैं। उनके अङ्गों पर पीले रंग की रेशमी साड़ी शोभा देती है । बिम्बफल के समान अरुण अधर उनकी मनोहरता बढ़ा रहे हैं। शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमाओं की चटकीली चाँदनी जैसी प्रभा से सेवित मुख उनके उद्दीप्त सौन्दर्य को और भी उज्ज्वल बना रहे हैं। उनके नेत्र शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों की शोभा को छीने लेते हैं । उनमें कस्तूरी-पत्रिका से युक्त काजल की रेखा शोभा-वृद्धि कर रही है। उनके केशपाश प्रफुल्ल मालती – पुष्प की मालाओं से सुशोभित हैं, जिन पर मधुलोलुप भ्रमरों के समूह मँडरा रहे हैं। उनकी मनोहर मन्दगति गजराज के गर्व का गंजन करने वाली है । बाँकी भौंहों के साथ मन्द मुस्कान की शोभा से वे मन को मोह लेती हैं। पके हुए अनार के दानों की भाँति चमकीली दन्तपंक्ति उनके मुख की शोभा को बढ़ा देती है। पक्षिराज गरुड़ की चोंच की शोभा से सम्पन्न उन्नत नासिकासे वे सब की सब विभूषित हैं। गजराज के युगल गण्डस्थल की भाँति उन्नत उरोजों के भार से वे झुकी सी जान पड़ती हैं।

उनका हृदय श्रीकृष्ण-विषयक अनुराग के देवता कन्दर्प के बाण-प्रहार से जर्जर हुआ रहता है। वे दर्पणों में पूर्ण चन्द्रमा के समान अपने मनोहर मुख के सौन्दर्य को देखने के लिये उत्सुक रहती हैं। श्रीराधिका के चरणारविन्दों की सेवामें निरन्तर संलग्न रहने का सौभाग्य सुलभ हो, यही उनका मनोरथ है। ऐसी गोपकिशोरियों से भरा-पूरा वह रासमण्डल श्रीराधिका की आज्ञा से सुन्दरियों के समुदाय द्वारा रक्षित है – असंख्य सुन्दरियाँ उसकी रक्षा में नियुक्त रहती हैं ।

श्वेत रक्त एवं लोहित वर्ण वाले कमलों से व्याप्त एवं सुशोभित लाखों क्रीड़ा-सरोवर रासमण्डल को सब ओर से घेरे हुए हैं, जिनमें असंख्य भ्रमरों के समुदाय गूँजते रहते हैं । सहस्त्रों पुष्पित उद्यान तथा फूलों की शय्याओं से संयुक्त असंख्य कुञ्ज-कुटीर रासमण्डल की सीमा में यत्र-तत्र शोभा पा रहे हैं। उन कुटीरों में भोगोपयोगी द्रव्य, कर्पूर, ताम्बूल, वस्त्र, रत्नमय प्रदीप, श्वेत चँवर, दर्पण तथा विचित्र पुष्पमालाएँ सब ओर सजाकर रखी गयी हैं। इन समस्त उपकरणों से रासमण्डल की शोभा बहुत बढ़ गयी है ।

उस रासमण्डल को देखकर जब वे पर्वत की सीमा से बाहर हुए तो उन्हें विलक्षण, रमणीय और सुन्दर वृन्दावन के दर्शन हुए। वृन्दावन राधा-माधव को बहुत प्रिय है । वह उन्हीं दोनों का क्रीडास्थल है। उसमें कल्पवृक्षों के समूह शोभा पाते हैं । विरजा-तीर के नीर से भीगे हुए मन्द समीर उस वन के वृक्षों को शनैः-शनैः आन्दोलित करते रहते हैं । कस्तूरीयुक्त पल्लवों का स्पर्श करके चलने वाली मन्द वायु का सम्पर्क पाकर वह सारा वन सुगन्धित बना रहता है। वहाँ के वृक्षों में नये-नये पल्लव निकले रहते हैं । वहाँ सर्वत्र कोकिलों की काकली सुनायी देती है । वह वनप्रान्त कहीं तो केलिकदम्बों के समूह से कमनीय और कहीं मन्दार, चन्दन, चम्पा तथा अन्यान्य सुगन्धित पुष्पों की सुगन्ध से सुवासित देखा जाता है। आम, नारंगी, कटहल, ताड़, नारियल, जामुन, बेर, खजूर, सुपारी, आमड़ा, नीबू, केला, बेल और अनार आदि मनोहर वृक्ष-समूहों तथा सुपक्व फलों से लदे हुए दूसरे-दूसरे वृक्षों द्वारा उस वृन्दावन की अपूर्व शोभा हो रही है। प्रियाल, शाल, पीपल, नीम, सेमल, इमली तथा अन्य वृक्षों के शोभाशाली समुदाय उस वन में सब ओर सदा भरे रहते हैं । कल्पवृक्षों के समूह उस वन की शोभा बढ़ाते हैं । मल्लिका (मोतिया या बेला), मालती, कुन्द, केतकी, माधवी लता और जूही इत्यादि लताओं के समूह वहाँ सब ओर फैले हैं।

मुने ! वहाँ रत्नमय दीपों से प्रकाशित तथा धूप की गन्ध से सुवासित असंख्य कुञ्ज-कुटीर उस वन में शोभा पाते हैं । उनके भीतर शृङ्गारोपयोगी द्रव्य संगृहीत हैं। सुगन्धित वायु उन्हें सुवासित करती रहती है। वहाँ चन्दन का छिड़काव हुआ है। उन कुटीरों के भीतर फूलों की शय्याएँ बिछी हैं, जो पुष्पमालाओं की जाली से सुशोभित हैं । मधु-लोलुप मधुपों के मधुर गुञ्जारव से वृन्दावन मुखरित रहता है। रत्नमय अलंकारों की शोभा से सम्पन्न गोपाङ्गनाओं के समूह से वह वन आवेष्टित है। करोड़ों गोपियाँ श्रीराधा की आज्ञा से उसकी रक्षा करती हैं। उस वन के भीतर सुन्दर-सुन्दर और मनोहर बत्तीस कानन हैं। वे सभी उत्तम एवं निर्जन स्थान हैं।

मुने! वृन्दावन सुपक्व, मधुर एवं स्वादिष्ट फलों से सम्पन्न तथा गोष्ठों और गौओं के समूहों से परिपूर्ण है । वहाँ सहस्रों पुष्पोद्यान सदा खिले और सुगन्ध से भरे रहते हैं, उनमें मधुलोभी भ्रमरों के समुदाय मधुर गुञ्जन करते फिरते हैं। श्रीकृष्ण के तुल्य रूपवाले तथा उत्तम रत्न-हार से विभूषित पचास करोड़ गोपों के विविध विलासों से विलसित रमणीय वृन्दावन को देखते हुए वे देवेश्वरगण गोलोकधाम में जा पहुँचे, जो चारों ओर से गोलाकार तथा कोटि योजन विस्तृत है । वह सब ओर से रत्नमय परकोटों द्वारा घिरा हुआ है। मुने! उसमें चार दरवाजे हैं। उन दरवाजों पर द्वारपालों के रूप में विराजमान गोप- समूह उनकी रक्षा करते हैं । श्रीकृष्ण की सेवामें लगे रहने वाले गोपों के आश्रम भी रत्नों से जटित तथा नाना प्रकार के भोगों से सम्पन्न हैं। उन आश्रमों की संख्या भी पचास करोड़ है । इनके सिवा भक्त गोप-समूहों के सौ करोड़ आश्रम हैं, जिनका निर्माण पूर्वोक्त आश्रमों से भी अधिक सुन्दर है । वे सब-के-सब उत्तम रत्नों से गठित हैं । उनसे भी अधिक विलक्षण तथा बहुमूल्य रत्नों द्वारा रचित आश्रम पार्षदों के हैं, जिनकी संख्या दस करोड़ है। पार्षदों में भी जो प्रमुख लोग हैं, वे श्रीकृष्ण के समान रूप धारण करके रहते हैं । उनके लिये उत्तम रत्नों से निर्मित एक करोड़ आश्रम हैं।

राधिकाजी में विशुद्ध भक्ति रखनेवाली गोपाङ्गनाओं के बत्तीस करोड़ दिव्य एवं श्रेष्ठ आश्रम हैं, जिनकी रचना उत्तम श्रेणी के रत्नों द्वारा हुई है। उनकी जो किंकरियाँ हैं, उनके लिये भी मणिरत्न आदि के द्वारा बड़े सुन्दर और मनोहर भवन बनाये गये हैं, जिनकी संख्या दस करोड़ है । ये सभी दिव्य आश्रम और भवन वृन्दावन की शोभा का विस्तार करते हैं ।

सैकड़ों जन्मों की तपस्याओं से पवित्र हुए जो भक्तजन भारतवर्ष की भूमि पर श्रीहरि की भक्ति में तत्पर रहते हैं, वे कर्मों के शान्त कर देनेवाले हैं— उनके कर्मबन्धन नष्ट हो जाते हैं। मुने! जो सोते, जागते हर समय अपने मन को श्रीहरि के ही ध्यान में लगाये रहते हैं तथा दिन-रात ‘राधाकृष्ण’, ‘श्रीकृष्ण’ इत्यादि नामों का जप किया करते हैं; उन श्रीकृष्ण-भक्तों के लिये भी वहाँ गोलोक में बड़े मनोहर निवासस्थान बने हुए हैं । उत्तम मणिरत्नों द्वारा निर्मित वे भव्य भवन भाँति-भाँति के भोगों से सम्पन्न हैं । पुष्प-शय्या, पुष्पमाला तथा श्वेत चामर से सुशोभित हैं । रत्नमय दर्पणों की शोभा से पूर्ण हैं । उनमें इन्द्रनील मणियाँ जड़ी गयी हैं। उन भवनों के शिखरों पर बहुमूल्य रत्नमय कलश समूह शोभा देते हैं। उनकी दीवारों पर महीन वस्त्रों के आवरण पड़े हुए हैं। ऐसे भवनों की संख्या भी सौ करोड़ है ।

उस अद्भुत धाम का दर्शन करके वे देवता बड़ी प्रसन्नता के साथ जब कुछ दूर और आगे गये, तब वहाँ उन्हें रमणीय अक्षयवट दिखायी दिया। मुने! उस वृक्ष का विस्तार पाँच योजन और ऊँचाई दस योजन है । उसमें सहस्रों तनें और असंख्य शाखाएँ शोभा पाती हैं। वह वृक्ष लाल-लाल पके फलों से व्याप्त है । रत्नमयी वेदिकाएँ उसकी शोभा बढ़ाती हैं। उस वृक्ष के नीचे बहुत- गोप- शिशु दृष्टिगोचर हुए, जिनका रूप श्रीकृष्ण के ही समान था। वे सब-के-सब पीतवस्त्रधारी और मनोहर थे तथा खेल-कूद में लगे हुए थे । उनके सारे अङ्ग चन्दन से चर्चित थे और वे सभी रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे । देवेश्वरों ने वहाँ उन सबके दर्शन किये। वे सभी श्रीहरि के श्रेष्ठ पार्षद थे ।

मुने! वहाँ से थोड़ी ही दूर पर उन्हें एक मनोहर राजमार्ग दिखायी दिया, जिसके दोनों पार्श्व में लाल मणियों से अद्भुत रचना की गयी थी। इन्द्रनील, पद्मराग, हीरे और सुवर्ण की बनी हुई वेदियाँ उस राजमार्ग के उभय पार्श्व को सुशोभित कर रही थीं। दोनों ओर रत्नमय विश्राम-मण्डप शोभा पाते थे। उस मार्ग पर चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम के द्रव से मिश्रित जल का छिड़काव किया गया था। पल्लव, लाजा, फल, पुष्प, दूर्वा तथा सूक्ष्म सूत्र में गुँथे हुए चन्दन-पल्लवों की बन्दनवार से युक्त सहस्रों कदली-स्तम्भों के समूह उस राजमार्ग के तटप्रान्त की शोभा बढ़ाते थे । उन सब पर कुंकुम-केसर छिड़के गये थे। जगह-जगह उत्तम रत्नों के बने हुए मङ्गलघट स्थापित थे, उनमें फल और शाखाओंसहित पल्लव शोभा पाते थे। सिन्दूर, कुंकुम, गन्ध और चन्दन से उनकी अर्चना की गयी थी । पुष्पमालाओं से विभूषित हुए वे मङ्गलकलश उभयपार्श्व में उस राजमार्ग की शोभावृद्धि करते थे । क्रीडा में तत्पर हुई झुंड-की-झुंड गोपिकाएँ उस मार्ग को घेरे खड़ी थीं ।

उपर्युक्त मनोरम प्रदेश चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम के द्रव से चर्चित थे । बहुमूल्य रत्नों से वहाँ मणिमय सोपानों का निर्माण किया गया था । कुल मिलाकर सोलह द्वार थे, जो अग्निशुद्ध रमणीय चिन्मय वस्त्रों, श्वेत चामरों, दर्पणों, रत्नमयी शय्याओं तथा विचित्र पुष्पमालाओं से शोभायमान थे। बहुत-से द्वारपाल उन प्रदेशों की रक्षा करते थे। उनके चारों ओर खाइयाँ थीं और लाल रंग के परकोटों से वे घिरे हुए थे । इन मनोरम प्रदेशों का दर्शन करके देवता वहाँ से आगे बढ़ने को उद्यत हुए। वे जल्दी-जल्दी कुछ दूर तक गये। तब वहाँ उन्हें रासेश्वरी श्रीराधा का आश्रम दिखायी दिया ।

नारद! देवताओं की आदिदेवी गोपीशिरोमणि श्रीकृष्णप्राणाधिका राधिका का वह निवासस्थान बड़ा ही सुन्दर बनाया गया था । रमणीय द्रव्यों के कारण उसकी मनोहरता बहुत बढ़ गयी थी । वहाँ का सब कुछ सबके लिये अनिर्वचनीय था । बड़े-से-बड़े विद्वान् भी उस स्थान का सम्यक् वर्णन नहीं कर सके हैं। वह मनोहर आश्रम गोलाकार बना है तथा उसका विस्तार बारह कोस का है। उसमें सौ मन्दिर बने हुए हैं। वह अद्भुत आश्रम दिव्य रत्नों के तेज से जगमगाता रहता है । बहुमूल्य रत्नों के सार-समूह से उसकी रचना हुई है। वह दुर्लय एवं गहरी खाइयों से सुशोभित है। कल्पवृक्ष उस आश्रम को सब ओर से घेरे हुए हैं। उसके भीतर सैकड़ों पुष्पोद्यान शोभा पाते हैं । बहुमूल्य रत्नों द्वारा निर्मित परकोटों से वह आश्रम-मण्डल घिरा हुआ है । उसमें सात दरवाजे हैं, जो सभी उत्तम रत्नों की बनी हुई वेदिकाओं से युक्त हैं। उन दरवाजों में विचित्र रत्न जड़े गये हैं और नाना प्रकार के चित्र बने हैं ।

क्रमशः बने हुए इन सातों द्वारों को पार करने पर वह आश्रम सोलह द्वारों से युक्त है। देवताओं ने देखा – उसकी चहारदीवारी सहस्र धनुष ऊँची है। उत्तम रत्नों के बने हुए अत्यन्त मनोहर छोटे-छोटे कलशों के समुदाय अपने तेज से उस परकोटे को उद्भासित कर रहे हैं । उसे देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ । वे उसकी परिक्रमा करते हुए बड़ी प्रसन्नता के साथ कुछ दूर और आगे गये। सामने चलते हुए वे इतने आगे बढ़ गये कि वह आश्रम उनसे पीछे हो गया। मुने! तदनन्तर उन्होंने गोपों और गोपिकाओंके उत्तम आश्रम देखे, जिनमें बहुमूल्य रत्न जड़े हुए हैं। उनकी संख्या सौ करोड़ है। इस प्रकार सब ओर गोपों और गोपिकाओं के सम्पूर्ण आश्रम को तथा अन्य नये-नये रमणीय स्थलों को देखते-देखते उन देवेश्वरों ने समस्त गोलोक का निरीक्षण किया । वह सब देखकर उनके शरीर में रोमाञ्च हो आया । तदनन्तर फिर वही गोलाकार रम्य वृन्दावन, शतश्रृंग पर्वत तथा उसके बाहर विरजा नदी दिखायी दी। विरजा नदी के बाद देवताओं ने सब कुछ सूना ही देखा । वह अद्भुत गोलोक उत्तम रत्नों से निर्मित तथा वायु के आधार पर स्थित था ।

श्रीराधिका की आज्ञा का अनुसरण करते हुए परमेश्वर श्रीकृष्ण की इच्छा से उसका निर्माण हुआ है। वह केवल मङ्गल का धाम है और सहस्रों सरोवरों से सुशोभित है । मुने! देवताओं ने वहाँ अत्यन्त मनोहर नृत्य तथा सुन्दर ताल से युक्त रमणीय संगीत देखा, जहाँ श्रीराधा-कृष्ण के गुणों का अनुवाद हो रहा था। उस अमृतोपम गी तको सुनते ही वे देवता मूर्च्छित हो गये । फिर क्षणभर में सचेत हो मन-ही-मन श्रीकृष्ण का चिन्तन करते हुए उन्होंने स्थान-स्थान पर परम आश्चर्यमय मनोहर दृश्य देखे । नाना प्रकार के वेश धारण किये समस्त गोपिकाएँ उनके दृष्टिपथ में आयीं। कोई अपने हाथों से मृदंग बजा रही थीं तो किन्हीं के हाथों से वीणा वादन हो रहा था । किन्हीं के हाथ में चँवर थे तो किन्हीं के करताल । किन्हीं के हाथों में यन्त्रवाद्य शोभा पा रहे थे। कितनी ही रत्नमय नूपुरों की झनकार फैला रही थीं। बहुतों की रत्नमयी काञ्ची बज रही थी, जिसमें क्षुद्रघंटिकाओं के शब्द गूँज रहे थे। किन्हीं के माथे पर जल से भरे घड़े थे, जो भाँति-भाँति के नृत्य के प्रदर्शन का मनोरथ लिये खड़ी थीं ।

नारद! कुछ दूर और आगे जाने पर उन्होंने बहुत-से आश्रम देखे, जो राधा की प्रधान सखियों के आवासस्थान थे । वे रूप, गुण, वेश, यौवन, सौभाग्य और अवस्था में एक-दूसरी के समान थीं। श्रीराधा की समवयस्का सखियाँ तैंतीस गोपियाँ हैं, जिनकी वेश-भूषा अनिर्वचनीय है । उनके नाम सुनो — सुशीला, शशिकला, यमुना, माधवी, रति, कदम्बमाला, कुन्ती, जाह्नवी, स्वयंप्रभा, चन्द्रमुखी, पद्ममुखी, सावित्री, सुधामुखी, शुभा, पद्मा, पारिजाता, गौरी, सर्वमङ्गला, कालिका, कमला, दुर्गा, भारती, सरस्वती, गङ्गा, अम्बिका, मधुमती, चम्पा, अपर्णा, सुन्दरी, कृष्णप्रिया, सती, नन्दिनी और नन्दना — ये सब-की-सब समान रूपवाली हैं। इनके शुभ्र आश्रम रत्नों और धातुओं से चित्रित हैं। नाना प्रकार के चित्रों से चित्रित होने के कारण वे अत्यन्त मनोहर प्रतीत होते हैं । उनके शिखर बहुमूल्य रत्नमय कलश-समूहों से जाज्वल्यमान हैं। उत्तम रत्नों द्वारा उनकी रचना हुई है। गोलोक ब्रह्माण्ड से बाहर और ऊपर है। उससे ऊपर दूसरा कोई लोक नहीं है। ऊपर सब कुछ शून्य ही है। वहीं तक सृष्टि की अन्तिम सीमा है। सात रसातलों से भी नीचे सृष्टि नहीं है, रसातलों से नीचे जल और अन्धकार है, जो अगम्य और अदृश्य है । (अध्याय ४ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखंडे नारायणनारदसंवादे गोलोकवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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