ब्रह्मवैवर्तपुराण-श्रीकृष्णजन्मखण्ड-अध्याय 84
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
(उत्तरार्द्ध)
चौरासीवाँ अध्याय
गृहस्थ, गृहस्थ-पत्नी, पुत्र और शिष्य के धर्म का वर्णन, नारियों और भक्तों के त्रिविध भेद, ब्रह्माण्ड-रचना के वर्णन-प्रसङ्ग में राधा की उत्पत्ति का कथन

श्रीभगवान् कहते हैं — नन्दजी ! गृहस्थ पुरुष सदा ब्राह्मणों और देवताओं का पूजन करता है तथा चारों वर्णों के धर्मानुसार अपने वर्ण-धर्म के पालन में तत्पर रहता है । इसीलिये देवता आदि सभी प्राणी गृहस्थों की आशा करते हैं। गृहस्थ अतिथि का आदर-सत्कार करके सदा पवित्र बना रहता है । (पिण्डदान आदि) कर्म के अवसर पर पितर और अतिथि-पूजन के समय सारे देवता उसी प्रकार गृहस्थ के पास आते हैं, जैसे गौएँ पानी से भरे हुए हौज के पास जाती हैं। भूखा अतिथि सायंकाल प्रयत्नपूर्वक गृहस्थ के घर आता है और वहाँ आदर-सत्कार पाकर उसे आशीर्वाद देने के पश्चात् उस गृहस्थ के घर से बिदा होता है। अतिथि का पूजन न करने से गृहस्थ पाप का भागी होता है और उसे त्रिलोकी में उत्पन्न सारे पाप भोगने पड़ते हैं; इसमें तनिक भी संशय नहीं है । अतिथि जिसके घर से निराश होकर लौट जाता है, उसके घर का उसके पितर देवता और अग्नियाँ भी परित्याग कर देती हैं तथा वह अतिथि उसे अपना पाप देकर और उसका पुण्य लेकर चला जाता है । इसलिये उत्तम विचार-सम्पन्न धर्मज्ञ गृहस्थ पहले देवता आदि सबकी सेवा करके फिर आश्रित-वर्ग का भरण-पोषण करने के पश्चात् स्वयं भोजन करता है।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

जिसके घर में माता नहीं है और पत्नी पुंश्चली है, उसे वनवासी हो जाना चाहिये; क्योंकि उसके लिये वह गृह वन से भी बढ़कर दुःखदायक है । वह दुष्टा सदा पति से द्वेष करती है और उसे विष तुल्य समझती है। वह उसे भोजन तो देती नहीं; उलटे सदा डाँट-फटकार सुनाती रहती है।

व्रजेश ! अब गृहस्थ-पत्नियों का जो सदाचार श्रुति में वर्णित है, उसे श्रवण करो । गृहिणी नारी पतिपरायणा तथा देव-ब्राह्मण की पूजा करने वाली होती है। उस शुद्धाचारिणी को चाहिये कि प्रातःकाल उठकर देवता और पति को नमस्कार करके आँगन में गोबर और जल से लीपकर मङ्गल-कार्य सम्पन्न करे। फिर गृह-कार्य करके स्नान करे और घर में आकर देवता, ब्राह्मण और पति को नमस्कार करके गृहदेवता की पूजा करे। इस प्रकार सती नारी घर के सारे कार्यों से निवृत्त होकर पति को भोजन कराती है और अतिथि-सेवा करने के पश्चात् स्वयं सुखपूर्वक भोजन करती है ।

पुत्रों को चाहिये कि वे पिता को स्नान कराकर उनकी पूजा करें। यों ही शिष्यों को गुरु का पूजन करना चाहिये । पुत्र और शिष्य को सेवक की भाँति उनके आज्ञानुसार सारा कार्य करना उचित है। पिता और गुरु में कभी मनुष्य-बुद्धि नहीं करनी चाहिये । पिता, माता, गुरु, भार्या, शिष्य, स्वयं अपना निर्वाह करने में असमर्थ पुत्र, अनाथ बहिन, कन्या और गुरु- पत्नी का नित्य भरण- पोषण करना कर्तव्य है । तात! इस प्रकार मैंने सबके उत्तम धर्म का वर्णन कर दिया ।

व्रजेश ! स्त्री-जाति तो वस्तुतः शुद्ध है । उसमें वे सारी पतिव्रताएँ और भी पावन मानी जाती हैं। सृष्टि के आदि में ब्रह्मा ने एक ही प्रकार से सारी जातियों की रचना की थी। वे सभी उत्तम बुद्धिवाली पवित्र नारियाँ प्रकृति के अंश से उत्पन्न हुई थीं। जब केदार-कन्या के शाप से वह धर्म नष्ट हो गया, तब ब्रह्मा ने कुपित होकर पुनः स्त्री-जाति का निर्माण किया और उसे तीन भागों में विभक्त कर दिया। उनमें पहली उत्तमा, दूसरी मध्यमा और तीसरी अधमा कही जाती है। धर्मसम्पन्ना उत्तमा स्त्री पति की भक्त होती है वह प्राणोंपर आ बीतने पर भी अपकीर्ति पैदा करने वाले जार पुरुष को नहीं स्वीकार करती । जो गुरुजनों द्वारा यत्नपूर्वक रक्षित होने के कारण भयवश जार पुरुष के पास नहीं जाती और अपने पति को कुछ-कुछ मानती है, वह कृत्रिमा नारी मध्यमा कही जाती है। नन्दजी ! ऐसी नारियों का सतीत्व जहाँ स्थानाभाव है, समय नहीं मिलता है और प्रार्थना करने वाला जार पुरुष नहीं है; वहीं स्थिर रह सकता है । अत्यन्त नीच कुल में उत्पन्न हुई अधमा स्त्री परम दुष्टा, अधर्मपरायणा, दुष्ट स्वभाववाली, कटुवादिनी और झगड़ालू होती है । वह सदा उपपति की सेवा करती है और अपने पति की नित्य भर्त्सना करती रहती है, उसे दुःख देती है और विष-तुल्य समझती है। उसका पति भले ही भूतल पर रूपवान्, धर्मात्मा, प्रशंसनीय और महापुरुष हो; परंतु वह उपाय करके उपपति द्वारा उसे मरवा डालती है। उसकी प्रीति बिजली की चमक और जल पर खिंची हुई रेखा के समान क्षण-भङ्गुर होती है। वह सदा अधर्म में तत्पर रहकर निश्चित रूप से कपटपूर्ण वचन ही बोलती है । उसका मन न तो व्रत, तपस्या, धर्म और गृहकार्य में ही लगता है और न गुरु तथा देवताओं की ओर ही झुकता है ।

नन्दजी ! इस प्रकार तीन भेदों वाली स्त्री जाति की कथा मैंने कह दी, अब विभिन्न प्रकार के भक्तों का लक्षण सुनिये ।

तृण की शय्या का प्रेमी भक्त सांसारिक सुखों के कारणों का त्याग करके अपने मन को मेरे नाम और गुण के कीर्तन में लगाता है। वह मेरे चरणकमल का ध्यान करता है और भक्तिभाव सहित उसका पूजन करता है । देवगण उस निष्काम भक्त की अहैतुकी पूजा को ग्रहण करते हैं। ऐसे भक्त अणिमा आदि सारी अभीष्ट सिद्धियों की तथा सुख के कारणभूत ब्रह्मत्व, अमरत्व अथवा देवत्व की कामना नहीं करते। उन्हें हरि की दासता के बिना सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य आदि चारों मुक्तियों की अभिलाषा नहीं रहती और न वे निर्वाण-मुक्ति तथा अभीप्सित अमृत पान की ही स्पृहा करते हैं। उन्हें मेरी अतुलनीय निश्चल भक्ति की ही लालसा रहती है । व्रजेश्वर ! उन श्रेष्ठ सिद्धेश्वरों में स्त्री-पुरुष का भेद नहीं रहता और न समस्त जीवों में भिन्नता रहती है। वे दिगम्बर होकर भूख-प्यास आदि तथा निद्रा, लोभ, मोह आदि शत्रुओं का त्याग करके रात-दिन मेरे ध्यान में निमग्न रहते हैं । नन्दजी ! यह मेरे सर्वश्रेष्ठ भक्त के लक्षण हैं ।

अब मध्यम आदि भक्तों का लक्षण श्रवण करो । पूर्वजन्मों के शुभ कर्म के प्रभाव से पवित्र हुआ गृहस्थ कर्मों में आसक्त न होकर सदा पूर्वकर्म का उच्छेदक कर्म ही करता है; वह यत्नपूर्वक कोई दूसरा कर्म नहीं करता; क्योंकि उसे किसी कर्म की कामना ही नहीं रहती । वह मन, वाणी और कर्म से सदा ऐसा चिन्तन करता रहता है कि जो कुछ कर्म है, वह सब श्रीकृष्ण का है, मैं कर्म का कर्ता नहीं हूँ। ऐसा भक्त मध्यम श्रेणी का होता है। जो उससे भी नीची कोटि का है; वह श्रुति में प्राकृतिक अर्थात् अधम कहा गया है। उत्तम कोटि का भक्त अपने हजारों पूर्वपुरुषों का उद्धार कर देता है । उसे स्वप्न में भी यमराज अथवा यमदूत का दर्शन नहीं होता । मध्यम कोटि का भक्त अपनी सौ पीढ़ियों का तथा प्राकृत भक्त पचीस पीढ़ियों का उद्धारक होता है । तात ! इस प्रकार मैंने आपके आज्ञानुसार तीन प्रकार के भक्तों का वर्णन कर दिया । अब सावधानतया ब्रह्माण्ड की रचना का आख्यान श्रवण कीजिये ।

नन्दजी ! भक्त लोग यत्न करने पर ब्रह्माण्ड-रचना का प्रयोजन जान लेते हैं । मुनियों, देवताओं और संतों को बड़े दुःख से कुछ-कुछ ज्ञात होता है । पूर्णरूप से विश्व का ज्ञान तो अनन्तस्वरूप मुझको, ब्रह्मा और महेश्वर को है । हमारे अतिरिक्त धर्म, सनत्कुमार, नर-नारायण ऋषि, कपिल, गणेश, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, वेद, वेदमाता सावित्री, स्वयं सर्वज्ञा राधिका — ये लोग भी विश्व-रचना का अभिप्राय जानते हैं, इनके अतिरिक्त और किसी को पता नहीं है । उत्कृष्ट बुद्धि-सम्पन्न सभी विद्वान् इसके वैषम्यार्थ को पूर्णरूप से जानने में असमर्थ हैं। जैसे आकाश और आत्मा नित्य हैं; उसी प्रकार दसों दिशाएँ नित्य हैं। जैसे प्रकृति नित्य है, वैसे ही विश्वगोलक नित्य है । जैसे गोलोक नित्य है, उसी तरह वैकुण्ठ भी नित्य है ।

एक समय की बात है । जब मैं गोलोक में रास-क्रीड़ा कर रहा था, उसी समय मेरे वामाङ्ग से एक षोडशवर्षीया नारी प्रकट हुई। वह अत्यन्त सुन्दरी बाला रमणियों में सर्वश्रेष्ठ थी । उसके शरीर का रंग श्वेत चम्पक के समान गौर था । उसकी कान्ति शरत्कालीन चन्द्रमा को लज्जित कर रही थी । वह रत्नाभरणों से भूषित थी और उसके अङ्ग पर अग्नि में तपाकर शुद्ध की हुई साड़ी शोभा पा रही थी। उसके सभी अङ्ग मनोहर और कोमल थे तथा उसका प्रसन्नमुख मन्द मन्द मुस्कान से सुशोभित था। उसके चरणों का अधोभाग सुन्दर महावर से उद्भासित हो रहा था । वह सुन्दर नेत्रोंवाली सौन्दर्यशालिनी बाला गजेन्द्रकी-सी चाल चल रही थी। उस कामिनी ने रास-क्रीड़ा के अवसर पर प्रकट होकर मुझे आगे से पकड़ लिया। इसी कारण पुरातत्त्ववेत्ताओं ने उसका ‘राधा’ नाम रखा और उसकी पूजा की । उसकी प्रकृति परम प्रसन्न थी; इसलिये वह ईश्वरी ‘प्रकृति’ कहलायी। समस्त कार्यों में समर्थ होनेके कारण वह ‘शक्ति’ नाम से कही जाती है । वह सबकी आधारस्वरूपा, सर्वरूपा और सब तरह से मङ्गल के योग्य है; सम्पूर्ण मङ्गलों के दान में दक्ष होने के कारण वह ‘सर्वमङ्गला’ है । वह वैकुण्ठ में ‘महालक्ष्मी’ और मूर्तिभेद से ‘सरस्वती’ है। वेदों को उत्पन्न करने के कारण वह ‘वेदमाता’ नाम से प्रसिद्ध है। वह ‘सावित्री’ और तीनों लोकों का धारण-पोषण करने वाली ‘गायत्री’ भी है । पूर्वकाल में उसने दुर्ग का संहार किया था; इसी कारण वह ‘दुर्गा’ नाम से विख्यात है । यह सती प्राचीनकाल में समस्त देवताओं के तेज से आविर्भूत हुई थी, इसी से यह ‘आद्याप्रकृति’ कहलाती है । यह समस्त असुरों का मर्दन करने वाली, सम्पूर्ण आनन्द की दाता, आनन्दस्वरूपा, दुःख और दरिद्रता का विनाश करने वाली, शत्रुओं को भय प्रदान करने वाली और भक्तों के भय की विनाशिका है। वही ‘सती’ रूप से दक्ष की कन्या हुई और पुनः हिमालय से उत्पन्न होकर ‘पार्वती’ कहलाती है । वह सबकी आधारस्वरूपा है। पृथ्वी उसकी एक कला है। तुलसी और गङ्गा उसी की कला से उत्पन्न हुई हैं । यहाँ तक कि सम्पूर्ण स्त्रियों का आविर्भाव उसकी कला से ही हुआ है।

तात ! जिस शक्ति से सम्पन्न होकर मैं बारंबार सृष्टि रचना करता हूँ, उसे रास के मध्य स्थित देखकर मैंने उसके साथ क्रीड़ा की । उस समय रासमण्डल में उन दोनों के शरीर से जो पसीने की बूँदें भूतल पर गिरीं, उनसे एक मनोहर सरोवर उत्पन्न हो गया, जो राधा के नाम के सदृश था (अर्थात् उसका नाम राधा-सरोवर हुआ) । उस सरोवर से जो पसीने की धारा वेगपूर्वक नीचे विश्व-गोलक में गिरी, उससे सारा ब्रह्माण्ड गोलक-जल से भर गया । व्रजेश्वर ! पहले-पहल सब कुछ जलमग्न था; उस समय सृष्टि नहीं हुई थी । तब शृङ्गार के समाप्त होने पर मैंने राधा में वीर्य का आधान किया। तत्पश्चात् श्रीराधिका ने गर्भ धारण करके दीर्घकाल के बाद एक परम अद्भुत डिम्ब प्रसव किया। उसे देखकर देवी को क्रोध आ गया; तब उन्होंने उसे पैर से नीचे विश्व-गोलक में ढकेल दिया। तात ! वह जल में गिर पड़ा और सबका आधारस्वरूप ‘महान् विराट् ‘ हो गया। तब अपनी संतान को जल में पड़ा हुआ देखकर मैंने राधा को शाप दे दिया । विभो ! मेरे शाप के कारण राधा संतानहीन हो गयी ।

व्रजेश्वर ! इसलिये जिस डिम्ब से कला का आश्रय लेकर वह महान् विराट् पैदा हुआ था, उसी से दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती तथा अन्यान्य जो देवियाँ और स्त्रियाँ हैं; वे सभी क्रमशः कला, कलांश और कलांश के अंश से उत्पन्न हुई हैं। व्रजेश ! उस महान् विराट् ने मेरे द्वारा दिये गये अंगुष्ठामृत का पान किया और फिर स्वकर्मानुसार स्थावर-रूप होकर वह जल में शयन करने लगा । योगबल से जल ही उसकी शय्या और उपाधान था तथा उसके रोमकूप सदा जल से भरे रहते थे । पुनः उनमें ‘क्षुद्र विराट्’ शयन करने लगा। उस क्षुद्र विराट् की नाभि से सहस्रदल कमल उत्पन्न हुआ। उस कमल पर सुरश्रेष्ठ ब्रह्मा ने जन्म लिया; इसी कारण वे कमलोद्भव कहे जाते हैं । वहाँ आविर्भूत होकर वे ब्रह्मा चिन्ताग्रस्त हो यों सोचने लगे – ‘ यह देह किससे उत्पन्न हुई है तथा मेरे माता-पिता और भाई-बन्धु कहाँ हैं?’ इसी चिन्ता में वे तीन लाख दिव्य वर्षों तक उस कमल के भीतर चक्कर काटते रहे । तत्पश्चात् पाँच लाख दिव्य वर्षों तक उन्होंने तपस्या द्वारा मेरा स्मरण किया, तब मैंने उन्हें मन्त्र प्रदान किया, जिसका वे पवित्रतापूर्वक इन्द्रियों को काबू में करके नियत रूप से सात लाख दिव्य वर्षों तक उस कमल के अंदर जप करते रहे। इसके बाद मुझसे वर पाकर उन सृष्टिकर्ता ने सृष्टि की रचना की । मेरी माया के बल से ब्रह्मा ने प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दिक्पाल, द्वादश आदित्य, एकादश रुद्र, नौ ग्रह आठ वसु, तीन करोड़ देवता, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, भूत-प्रेत आदि राक्षस एवं चराचर जगत् की रचना की। उन्होंने प्रत्येक विश्व में क्रमश: सात स्वर्ग, सात सागरों से संयुक्त स्वर्णभूमिवाली सप्तद्वीपवती पृथ्वी, अन्धकारमय स्थान, सात पाताल तथा इनसे युक्त ब्रह्माण्ड का निर्माण किया। प्रत्येक विश्व में चन्द्रमा, सूर्य, पुण्यक्षेत्र भारत और इन गङ्गा आदि तीर्थों की सृष्टि की।

व्रजेश्वर ! महाविष्णु के शरीर में जितने रोमकूप हैं, क्रमशः उतने ही असंख्य विश्व हैं । उन विश्वों के ऊर्ध्वभाग में वैकुण्ठ है, जो निराश्रय है तथा मेरी इच्छा से जिसका निर्माण हुआ है । वेद भी उसका वर्णन करके पार नहीं पा सकते । निश्चय ही कुयोगियों तथा भक्तिहीनों के लिये उसका दर्शन दुर्लभ है। इससे ऊपर गोलोक है । वह परम विचित्र आश्रयस्थान वायु के आधार पर टिका हुआ है। मेरी इच्छा से उस अत्यन्त रमणीय अविनाशी लोक का निर्माण हुआ है। वह शतशृङ्ग पर्वत, पुण्यमय वृन्दावन, रमणीय रासमण्डल आदि तथा विरजा नदी से युक्त है। विरजा अमूल्य रत्नसमूहों, हीरा, माणिक्य तथा कौस्तुभ असंख्यों मणियों से युक्त होने के कारण बड़ी मनोहर है। उस गोलोक में प्रत्येक महल अमूल्य रत्नों के बने हुए हैं। उसमें ऐसा मनोहर परकोटा है, जिसे विश्वकर्मा ने भी नहीं देखा है। वे महल गोपियों, गोपगणों तथा कामधेनुओं से परिवेष्टित हैं। वहाँ रास-मण्डल असंख्यों कल्पवृक्षों, पारिजात के तरुओं, सरोवरों तथा पुष्पोद्यानों से समावृत है । वह गोपों, मन्दिरों, रत्नप्रदीपों, पुष्प-शय्याओं, कस्तूरी-कुङ्कुमयुक्त सुगन्धित चन्दन के गन्धों, क्रीडोपयुक्त भोगपदार्थों, सुवासित जल और पान-बीड़ाओं, रमणीय सुगन्धियुक्त धूपों, पुष्पमालाओं और रत्नजटित दर्पणों से भरा-पूरा है। अमूल्य रत्नाभरणों तथा अग्नि-शुद्ध वस्त्रों से अलंकृत राधा की दासियाँ सदा उसकी रक्षा करती रहती हैं । नवयौवनसम्पन्न तथा अनुपम सौन्दर्यशाली गजेन्द्रों की सेना क्रमशः उसे घेरे हुए है।

व्रजराज ! वह रमणीय तथा चन्द्रमण्डल के समान गोल है। उस विस्तृत मण्डल की रचना बहुमूल्य रत्नों द्वारा हुई है। वह कस्तूरी-कुङ्कुमयुक्त सुन्दर एवं सुगन्धित चन्दन सेसमर्चित है। वह फल-पल्लवयुक्त मङ्गल-कलशों, दही और खीलों, पत्तों, कोमल दूर्वाङ्कुरों, फलों, असंख्यों केले के मनोहर खम्भों तथा रेशमी सूत्र में बँधे हुए कोमल चन्दन-पल्लवों की वन्दनवारों से आच्छादित है और चन्दनयुक्त पुष्पमालाओं एवं आभूषणों से विभूषित है । वहाँ बहुमूल्य रत्नों का बना हुआ शतशृङ्ग पर्वत मन को खींचे लेता है। वह अत्यन्त सुन्दर है । वेद भी उसका वर्णन नहीं कर सकते। वह हीरे के हार से युक्त होने के कारण रमणीय है तथा मनोहर परकोटे की तरह उस गोलोक को चारों ओर से घेरे हुए है। वहाँ चन्दन के वृक्षों से युक्त रमणीय वृन्दावन है, जो कल्पवृक्षों, सुन्दर मन्दार-पुष्पों, कामधेनुओं, शोभाशाली मनोहर पुष्पवाटिकाओं, रमणीय क्रीड़ा-सरोवरों और परम सुन्दर क्रीड़ाभवनों से सुशोभित है। उसके एकान्त में रास-क्रीड़ा के योग्य अत्यन्त सुन्दर स्थान है, जो चारों ओर से
गोलाकार है। रक्षकरूप में नियुक्त हुई असंख्यों सुन्दरी गोपिकाएँ उसकी रक्षा करती हैं । वहाँ कोकिल कूजते रहते हैं तथा भौंरों का गुंजार होता रहता है । उसी के एकान्त स्थल में एक रमणीय अक्षयवट है, जिसकी लंबाई-चौड़ाई विशाल है। सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला वह अक्षयवट गोपियों के लिये कल्पवृक्ष है । वहाँ राधा की दासियाँ क्रीड़ा करती रहती हैं। विरजा के तटप्रान्त के जल का स्पर्श करके बहती हुई शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु उसे पवित्र करती रहती है। उस अक्षयवट के नीचे वृन्दावन में विनोद करने वाली मेरे प्राणों की अधिदेवता वह राधा असंख्यों दासीगणों के साथ क्रीड़ा करती है। वही राधा इस समय वृषभानु की कन्या होकर प्रकट हुई है।

व्रजेश ! ब्रह्मादि देवता, सिद्धेन्द्र, मुनीन्द्र और सिद्धगण गुण, बल, बुद्धि, ज्ञानयोग और विद्या द्वारा उसकी पूजा करते हैं। तात ! यह मेरी प्रिया मेरे ही समान है; अत: सब तरह से वन्दनीया है । नन्दजी ! इस प्रकार मैंने यथोचित एवं परिमित रूप से ब्रह्माण्डों का वर्णन कर दिया। अब पुनः आपकी और क्या सुननेकी इच्छा है?     (अध्याय ८४ )

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे उत्तरार्धे नारायणनारदसंवाद भगवन्नन्दसंवाद चतुरशीतितमोऽध्यायः ॥ ८४ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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