भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १३८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १३८
महानवमी ( विजयादशमी ) व्रत

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — महाराज ! महानवमी सब तिथियों में श्रेष्ठ है । सभी प्रकार के मंगल और भगवती की प्रसन्नता के लिये सब लोगों को और विशेषकर राजाओं को महानवमी का उत्सव अवश्य मनाना चाहिये ।
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युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! इस महानवमी-व्रत का आरम्भ कब से हुआ ? क्या यशोदा के गर्भ से प्रादुर्भूत होने के समय से महानवमी-व्रत का प्रचलन हुआ अथवा इसके पूर्व सत्ययुग आदि में भी यह महानवमी-व्रत था ? इसे आप बतलाने की कृपा करें ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! वह परमशक्ति सर्वव्यापिनी, भावगम्या, अनन्ता और आद्या आदि नाम से विश्वविख्यात है । उनका काली, सर्वमंगला, माया, कात्यायनी, दुर्गा, चामुण्डा तथा शंकरप्रिया आदि अनेक नाम-रुपों से ध्यान और पूजन किया जाता है ।

देव, दानव, राक्षस, गन्धर्व, नाग, यक्ष, किन्नर, नर आदि सभी अष्टमी तथा नवमी को उनकी पूजा-अर्चना करते हैं । कन्या के सूर्य में आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में अष्टमी को यदि मूल नक्षत्र हो तो उसका नाम महानवमी है । यह महानवमी तिथि तीनों लोकों में अत्यंत दुर्लभ है । आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी और नवमी को जगन्माता भगवती श्रीअम्बिका का पूजन करने से सभी शत्रुओं पर विजय प्राप्त हो जाती है । यह तिथि पुण्य, पवित्रता, धर्म और सुख को देनेवाली है । इस दिन मुण्डमालिनी चामुण्डा का पूजन अवश्य करना चाहिये । सभी कल्पों और मन्वन्तरों में देव, दैत्य आदि अनेक प्रकार के उपचारों से नवमी तिथि को भगवती की पूजा किया करते हैं और तीनों लोकों में अवतार लेकर भगवती मर्यादा का पालन करती रहती है । राजन ! यही पराम्बा जगन्माता भगवती यशोदा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी और वे कंस के मस्तक पर पैर रखकर आकाश में चली गयीं और फिर विन्ध्याचल में स्थापित हुई, तभी से यह पूजा प्रवर्तित हुई ।

भगवती का यह उत्सव पहले से ही प्रसिद्ध था, परन्तु सभी प्राणियों के उपकार के लिये तथा सभी विघ्न-बाधाओं की शान्ति के लिये ही मैंने अपनी बहन के रुप मे भगवती विन्ध्यवासिनी देवी की महिमा का विशेषरूप से प्रचार किया । विन्ध्यवासिनी भगवती के स्थान में नवरात्रि, तीनरात्रि, एकरात्रि उपवास या भगवती की आराधना करनी चाहिये । ग्राम-ग्राम, नगर-नगर और घर-घर में सभी लोगों को स्नान कर प्रसन्नचित्त होकर भक्तिपूर्वक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, स्त्री आदि सभी को भगवती की पूजा करनी चाहिये । विशेषकर राजाओं को तो यह पूजन अवश्य करना चाहिये ।

विजय की इच्छा रखनेवाले राजा को प्रतिपदा से अष्टमीपर्यन्त लोहाभिहारिक कर्म (अस्त्र-शस्त्र-पूजन) करना चाहिये । सर्वप्रथम पूर्वोत्तर ढालवाली भूमि में नौ अथवा सात हाथ लम्बा-चौड़ा, पताकाओं से सुसज्जित एक मण्डप बनाना चाहिये । उसमें अग्निकोण में तीन मेखला और पीपल के समान योनि से युक्त एक अति सुंदर एक हाथ के कुण्ड की रचना करनी चाहिये । राजा के चिह्न-छत्र, चामर, सिंहासन, अश्व, ध्वजा, पताका आदि और सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र, मण्डप में लाकर रखे । उन सबका अधिवासन करे । इसके अनन्तर ब्राह्मण को चाहिये कि वह स्नानकर श्वेत वस्त्र धारणकर मण्डपादि की पूजा करे और फिर ॐकार पूर्वक राजचिह्नों के निर्दिष्ट मन्त्रों द्वारा घृत से संयुक्त पायस से हवन कर्म करे ।

पूर्वकाल में बहुत ही बलवान, शक्तिशाली लोह नाम का एक दैत्य पैदा हुआ था । उसको देवताओं ने मारकर खण्ड-खण्ड कर पृथ्वी पर गिरा दिया । वही दैत्य आज लोहा के रूप में दिखायी पड़ता है । उसी के अंगों से ही विभिन्न प्रकार के लोहे की उत्पत्ति हुई है । इसलिये उसी समय से लोहाभिहारिक कर्म राजाओं को विजय प्राप्त करने में सहायक सिद्ध हुआ, ऐसा ऋषियों नें बतलाया है । हवन का बचा हुआ शेष पायस हाथी और घोड़ों को खिलाकर उनको अलंकृत कर मांगलिक घोष करते हुए रक्षकों के साथ समारोहपूर्वक नगर में घुमाना चाहिये । राजा को भी प्रतिदिन स्नानकर पितरों और देवताओं की पूजा करने के बाद राजचिह्नों की भी भलीभांति पूजा करनी चाहिये । इससे राजा को विजय, कीर्ति, आयु, यश तथा बल की प्राप्ति होती है ।

इस प्रकार लोहाभिहारिक कर्म करने के अनन्तर अष्टमी के दिन पूर्वाह्ण में स्नान कर नियमपूर्वक सुवर्ण, चाँदी, पीपल, ताँबा, मृतिका, पाषाण, काष्ठ आदि की दुर्गा की सुंदर मूर्ति बनाकर उत्तम सुसज्जित स्थान के बीच सिंहासन के ऊपर स्थापित करे । कुंकुम, चन्दन, सिंदूर आदि से उस मूर्ति को चर्चित कर कमल आदि पुष्प, धुप, दीप तथा नैवेद्य आदि से अनेक बाजे-गाजे के साथ उनका पूजन करना चाहिये । वन्दीजन स्तुति करें । बहुत से लोग छत्र-चामर आदि राजचिह्न लेकर चारों ओर खड़े होकर स्थित रहे । दीक्षायुक्त राजा पुरोहित के साथ बिल्वपत्रों से भगवती की इस मन्त्र से पूजा करे —

“जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते ॥
अमृतोद्भवः श्रीवृक्षो महादेवीप्रिय: सदा ।
बिल्वपत्रं प्रयच्छामि पवित्रं ते सुरेश्वरि ॥”
( उत्तरपर्व १३८ । ८६-८७)

इस प्रकार पूजन कर उसी दिन से द्रोणपुष्पी (गुमा)— से पूजा करनी चाहिये । असुरों के साथ युद्ध करने से जो क्षति भगवती के शरीर को हुई उसकी पूर्ति द्रोणपुष्पी से ही हुई । इसलिए द्रोणपुष्पी भगवती को अत्यन्त प्रिय है । फिर शत्रुओं के वध के लिये खड्ग को प्रणामकर सुभिक्ष, राज्य और अपने विजय की प्राप्ति हेतु भगवती से प्रार्थना करनी चाहिये और उनका ध्यान तथा इस स्तुति का पाठ करना चाहिये —

“सर्व-मङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥
कुंकुमेन समालब्धे चन्दनेन विलेपिते ।
बिल्व-पत्र-कृतामाले दुर्गेऽहं शरणं गत: ॥”
(उत्तरपर्व १३८ । ९३ – ९४)

इस प्रकार अष्टमी को सब प्रकार से भगवती का पूजन कर रात्रि को जागरण करना चाहिये और नृत्यादिक उत्सव कराना चाहिये । प्रसन्नतापूर्वक रात्रि के बीत जानेपर नवमी को प्रातःकाल भगवती को बड़े समारोह के साथ विशेष पूजा करनी चाहिये । अपराह्ण समय में रथ के बीच भगवती दुर्गा की प्रतिमा को स्थापित कर पूरे राज्य भर में भ्रमण कराना चाहिये । अपनी सेनासहित राजा को भी साथ रहना चाहिये ।

सभी प्रकार के विघ्नों की निवृत्ति के लिये भूतशान्ति करनी चाहिये । जिससे यात्रा निर्विघ्न पूर्ण हो । इस विधि से जो राजा अथवा सामान्य व्यक्ति भगवती की यात्रा करता हैं, वह सभी प्रकार के पापों से छूटकर भगवती के लोक को प्राप्त कर लेता है और उस व्यक्ति को शत्रु, चोर, ग्रह, विघ्न आदि का भय नहीं होता । भगवती के भक्त सदा निरोग, सुखी और निर्भय हो जाते हैं । जो व्यक्ति भगवती के उत्सव विधि का श्रवण करता है या पढ़ता है, उसके भी सभी अमंगल दूर हो जाते हैं ।
(अध्याय १३८)

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