December 29, 2018 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय ३२ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व — तृतीय भाग) अध्याय ३२ सूत जी बोले — (उपरोक्त घटना के समय) उदयसिंह की बत्तीसवें वर्ष की अवस्था आरम्भ थी। उस समय रानी बेला ने योगरूप धारणकर हरिनागर नामक घोड़े पर बैठकर महावती (महोबा) नगर को प्रस्थान किया। वहाँ राजा परिमल के राजदरबार में पहुँचकर जिस समय उसने नमस्कार पूर्वक कहना आरम्भ किया। उसी समय उदयसिंह आदि वीरगण भी उस सभा में उपस्थित हुए थे। उसने कहा-आपने महीपति (माहिल) को अपना प्रिय हितैषी, और उदयसिंह को राजद्रोही समझ लिया है। उसी के परिणामस्वरूप आपने पृथ्वीराज के उन धूर्त एवं महाबली तारक आदि पुत्रों द्वारा मेरे पति देव महाबलवान ब्रह्मानंद का हनन कराया है-धंधुकार (धांधू) चामुण्ड (चौड़ा) को इसी जन्म में भी पड़े हुए थे-दुस्सह, दुश्शल, जलसंध, समःसह, विंद, अनुविंद, सुबाहु, दुष्प्रधर्षण, दुर्मर्षण, दुष्कर्ण, सोमकीति, अनूदर, शल, सत्व, और विवित्सु क्रमशः उन महाबलवानों के नाम थे । बाह्नीकपति तोमर वंश का कुलभूषण राजा था, अपनी तीन लाख सेना और महानन्द,नन्द, परानन्द, उपनन्द, सुनंद, सुरानंद तथा प्रनन्द नामक सात पुत्रों को साथ लेकर आये थे, जो पूर्वजन्म में चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चारुचित्र, शरासन, सुलोचन एवं सुवर्ण नामक कौरवों के अंश से क्रमशः उत्पन्न हुए थे। अंगदेश का परिहरवंशीय महाबली राजा मायावर्मा दस लाख सेना और दुर्मद, दुर्विगाह, नंद, विकटानन, चित्रवर्मा, सुवर्मा, सुदुमेचिन, उर्णनाभ, सुनाभ, तथा उपनंद नामक कौरवांशों से क्रमशः उत्पन्न मत्त, प्रमत्त, उन्मत्त, सुमत्त, दुर्मद, दुर्मुख, दुर्द्धर, वायु, सुरथ, एवं विरथ नामक दशपुत्रों समेत आये थे। शुक्लवंशीय राजा मूल-वर्मा अपने एक लाख सैनिक तथा बल, प्रबल, सुबल, बलवान्, बली, सुमूल, महामूल, दुर्ग, भीम, और भयंकर नामक दशपुत्रों को साथ लेकर आये थे, जो पूर्वजन्म में अयोबाहु, महाबाहु, चित्रांग, चित्रकुण्डल, चित्रायुध, निषंगी, पाशी, वृन्दारक, दृढवर्मा और दृढक्षत्र नामक कौरवों के अंश से क्रमशः उत्पन्न थे। चंद्रवंशी राजा कैकय एक लाख सेना और अपने दशपुत्रों समेत उस कुरुक्षेत्र के भीषण रणस्थल में पहुँचे थे। काम, प्रकाम, सकाम, निष्काम, निरपत्रप, जय, विजय, जयन्त, जयवान् और जय यही क्रम से उन पुत्रों के नाम थे, जो पूर्व जन्म के भीम वेग, भीमबल, बलाको लिवर्द्धन, उग्रायुध, दंडधर, दृढसंग, महीधर, जरासंध तथा सत्यसंघ नामक कौरवों के अंश से क्रमशः उत्पन्न थे। उसी प्रकार पुंडू देश का नागवंशीय राजा नागपाल अपनी एक लाख सेना और दश पुत्रों समेत आये थे, जो पूर्व जन्म के उग्रश्रवा, उग्रसेन, सेनानी, दुष्परायण, अपराजित, कुण्डशायी, विशालाक्ष, दुराधर, दृढ़हस्त तथा सुहस्त नामक कौरवों के अंश से उत्पन्न तथा इस जन्म में भी इसी नाम से ख्यात थे। तोमर कुलावतंस राजा मद्रकेश अपने एक लाख सैनिकों एवं दशपुत्रों समेत वहाँ आये थे जो पूर्व जन्म के वातवेग, सुवर्चा, नागदंत, अग्रयाजक, आदि केतु, वशी, कवची, क्राथ, कुण्डल और कुंडधीर नामक कौरवों से क्रमशः उत्पन्न होकर इसी ग्राम से पुनः इस भूतल पर प्रख्यात थे । मगधाधीश्वर शार्दूल वंशीय पूर्णमल अपने एक लाख सैनिकों और अपने दश पुत्रों समेत वहाँ उपस्थित थे जो वीरबाहु, भीमस्थ, उग्र, धनुर्धर, रौद्रकर्मा, दृढ़रथ, अलोलुप, अभय, अनाधृष्ट और कुण्डभेदी नामक कौरवों के अंश से उत्पन्न तथा इसी नाम से पुनः प्रख्यात थे। रूपदेश का अधीश्वर मंकण नामक किन्नर वहाँ आये थे। चीन देश के उस पार रुपदेश का निर्देश विद्वानों ने किया है, जहाँ अत्यन्त सौन्दर्यपूर्ण किन्नर जाति के लोग निवास करते हैं । उस रणभूमि के राज समाजमें मंकण भी उस समय दश किन्नर और अपने आठ पुत्रों समेत पहुँचे हुए थे, जो विरावी प्रथम, प्रमाथी, दीर्घरोमक, दीर्घबाहु, महाबाहु, व्यूढोरा तथा कनकध्वज नामक किन्नरों द्वारा उत्पन्न होकर भूतल में भी इसी नाम से ख्यातिप्राप्त कर चुके थे। विरज के अंश से मंकण नामक किन्नर की उत्पत्ति कही गई है। अपने एक लाख सैनिकों समेत राजा नेत्रसिंह वहाँ आये थे, जो शल्य के अंश से शार्दूल वंश में उत्पन्न हुए थे । शकुनि वंश राजा गजपति भी घर में पुत्रों को सौंपकर एक लाख सेना समेत वहाँ आये थे। विराटांश मयूरध्वज मकरंद को घर सौंपकर एक लाख सैनिक लिए वहाँ आये थे। उसी प्रकार उग्रसेनांश से उत्पन्न वीरसेन कामसेन समेत एक लाख मेना लेकर वहाँ पहुँचे थे। अत्यन्त कष्ट से पद्मिनी को छोड़कर राजा लक्षण (लाखन) सात लाख लेना समेत वहाँ आये थे। भीम, युयुत्स, और कुन्तिभोज के अंश से क्रमशः उत्पन्न तालन धान्यपाल, एवं लल्लसिंह, उदयसिंह और इन्दुल समेत एक लाख सेना लेकर आह्लाद (आल्हा) भगदत्त के अंश से उत्पन्न एवं गौतम कुलभूषण जगनायक अपनी दश सहस्र सेना लेकर वहाँ आ गये थे । इसी प्रकार छोटे-छोटे अन्य सहस्रों राजगण मदान्ध होकर पृथक्-पृथक् सेनाओं समेत उस कुरुक्षेत्र की रणभूमि में पहुँचे थे। पुत्र तथा अपनी एक लाख सेना लेकर मूलवर्मा ने राजा परिमल के पास पहुँचकर अपने आगमन की सूचना दी । उसी प्रकार राजा कैकय पुत्र तथा एक लाख सेना लेकर आये थे । वीर राजा नेत्रसिंह, मयूरध्वज, और वीरसेन पुत्रों समेत अपने एक-एक लाख सैनिकों समेत तथा सात लाख सेना लेकर लक्षण (लाखन) एक लाख सेना समेत आह्लाद (आल्हा) चन्द्रवंशी राजा परिमल की सहायतार्थ वहाँ उपस्थित थे। राजा परिमल की भी स्वयं तीन लाख सेना थी । इस प्रकार राजा परिमल ने अपनी कुल सोलह लाख सेना से उस युद्धभूमि में संग्राम की तैयारो किया था। उसी प्रकार राजा पृथ्वीराज के समीप उनकी सहायतार्थ नृपधेट, लहर, मायावर्मा, नागवर्मा, मद्रकेश, पूर्णामल अपने अपने पुत्रों और एक-एक लाख सैनिकों समेत वहाँ आये थे। पुत्र तथा दशसहस्र सेना समेत मंकण नामक किन्नर, एकलाख सेना समेत गजराज, पाँच लाख सेना समेत धंधुकार (धांधू) और कृष्ण कुमार का पुत्र भगदत्त, अपनी तीन लाख सेना लेकर पृथ्वीराज के पास आया था। दलवाहन पुत्र एवं देशगोपाल देश निवासी अंगद, जो देवकी का अत्यन्त प्रिय था, तथा कलिंग, त्रिकोण, श्रीपति, भीतार, मुकुंद, सुकेतु, सहिल, गुहिल, इन्दुवार, और बलवान् जयन्त वहाँ उपस्थित थे जिनकी दशदश सहस्र की सेना थी, पृथ्दीराज के सहायक छोटे-छोटे एक सहस्र राजगण, अपनी एक एक सम्र सेना समेत वहाँ उपस्थित थे। इन्हीं सैनिकों से दो सौ राजाओं को उनके सेना समेत उन्होंने अपने राष्ट्र के रक्षार्थ दिल्ली में भेज दिया था। इस प्रकार दिल्लीश्वर राजा पृथ्वीराज अपनी चौबीस लाख सेना लेकर उस रणस्थल में युद्धार्थ उपस्थित हुए थे, जो भीषण युद्ध अट्ठारह दिन में समस्त क्षत्रियों के नाशपूर्वक समाप्त हुआ था । भृगुवर्य ! मैं तुम्हें अब विस्तारपूर्वक उस युद्ध-कथा को सुना रहा हूँ, मन लगाकर सुनो ! मार्ग कृष्ण द्वितीया के दिन महाबली पृथ्वीराज ने निर्भीक होकर राजा लहर को बुलाकर उनसे कहा-सत्तम ! पुत्र समेत आप चामुण्ड (चौंढ़ा) के साथ धंधुकार (धांधू) से सुरक्षित होकर रणभूमि में जाने की तैयारी कीजिये । इसे सुनकर ही उन लोगों के साथ शीघ्र उस रणस्थल में पहुँच गये । उस समय राजा परिमल ने मयूरध्वज को बुलाकर कहा-नृपश्रेष्ठ ! उदयसिंह, जयन्त (इन्दुल), और देवसिंह द्वारा सुरक्षित होकर आप अपने एक लाख सैनिकों समेत वहाँ युद्ध भूमि मे पहुँच जाँय । इमे सुनकर मयूरध्वज ने एक लाख मेना लेकर वहाँ रणभूमि में पहुँचकर राजा लहर के साथ घोर संग्राम आरम्भ किया। उस रणभूमि में दोनों सेनाओं का अत्यन्त भीषण युद्ध हुआ। उस युद्ध में उपस्थित एक लाख सेना का विवरण इस भाँति कहा गया है-एक रथ, पाँच सौ हाथी, पाँच सहस्र घोड़े, और उसके दश गुने पैदल की सेना थी। अब उस सेना में सैनिकों के विवरण के उपरांत मैं तुम्हें उनके सेनाध्यक्षों का विवरण बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनो ! । दश पैदल सैनिकों का एक स्वामी था, जिसे पत्तिप कहा गया है। उसी प्रकार पाँच अश्वारोही सैनिकों के स्वामी को ‘गुल्मप’ और पाँच गजराजों के अधिनायक को ‘गजाधिप’ बताया गया है । कलि के उस भीषण युद्ध में इन्हीं लोगों से युक्त एक रथी रहता था। उन सेनाओं में ऊँट (सांडियों) पर बैठे हुए चालीस सैनिक दूत का काम कर रहे थे। उन सेनाओं में पृथक्-पथक् एक सहस्र तोपें थीं, जिनमें छत्तीस पैदल सैनिक काम कर रहे थे। उनके विवरण बता रहा हूँ, सुनो ! दश सैनिक गोला देने के लिए नियुक्त थे। उसी प्रकार दश सैनिक उन गोलों के मारने के लिए, दश आई (गीला) करने के लिए और तीन उसमें अग्नि (पलीता) जलाने वाले एवं वहाँ निरीक्षण के लिए नियुक्त थे। इस प्रकार उस तीन प्रहर के युद्ध में उनका विवरण बता दिया गया। जिनमें शेष शूद्रगण उन सैनिकों के साथ रहकर युद्ध में शूरों की सहायता कर रहे थे। इस प्रकार वहाँ की एक लाख सैनिकों की सेना का विशेष विवरण बताया गया है, जो उस रणक्षेत्र में धार्मिक युद्ध कर रहे थे। प्रातः काल से आरम्भ कर मध्याह्न तक दोनों सैनिकों का भीषणयुद्ध होकर बन्द सा हो जाता था। तत्पश्चात् एक प्रहर के लिए सैन्यपति लोग वहाँ युद्धार्थ उपस्थित होते थे। इस प्रकार मयूरध्वज और लहर के उस रणभूमि में सैनिकों से युद्ध करने के उपरांत वली एव महाशूर धुंधुकार (धांधू) आदि वीरगण वहाँ एक प्रहर के युद्धार्थ उपस्थित हुए। चामुण्ड (चौंढ़ा) के साथ उदयसिंह, धुन्धुकार (धांधु) के साथ इन्दुल, और भगदत्त के साथ देवसिंह ने भीषण युद्ध किया, जिसमें सायंकाल होने पर इतर सैनिकों का निधन हो गया। इस युद्ध में उदयसिंह ने एक घड़ी समय के भीतर राजा लहर के उन सोलहों पुत्रों को धराशायी कर अपने विजय शंख को बजाते हुए राजा लक्षण (लाखन) के पास प्रस्थान किया। चागुण्ड (चौंढा) धुंधुकार (धांधू) और भगदत्त ने शेष अपने सौ सैनिकों समेत पृथ्वीराज के पास पहुँचकर रात्रि में निर्भय होकर शयन किया। इधर इन्दुल और देवसिंह ने भी अपने शेष सहस्रों सैनिकों को लेकर राजा परिमल के पास पहुँचकर वहाँ आनन्द की नींद में रात्रि व्यतीत किया । तृतीया के दिन प्रातः काल के समय राजा पृथ्वीराज ने वली राजा गजपति को बुलाकर कहा–तीनों वीरों से सुरक्षित होकर आप अपने लक्ष सैनिकों समेत उम रणस्थल में पहुँचने की तैयारी करें। उस समय राजा परिमल ने भी नेत्रसिंह को बुलाकर कहा-उदयसिंह आदिवीरों की अध्यक्षता में आप युद्धार्थ शीघ्र प्रस्थान कीजिये। उस दिन वहाँ रणस्थल में उन दोनों सेनाओं का घोर संग्राम हुआ, जिसमें क्रमशः घोड़े, घोड़े के साथ हाथी, हाथी के साथ पैदल, पैदल के साथ और बन्दूकधारी, बन्दूक वालों से एवं तोप वाले तोपों के साथ तन्मयता में युद्ध कर उन्हें धराशायी कर रहे थे। मुनिश्रेष्ठ! उस युद्ध में अपराह्न के समय राजा नेत्रसिंह ने उस भीषण काय गजपति के साथ युद्धारम्भ किया। युद्ध में उन दोनों ने पहले विरथ होकर एक दूसरे के धनुष -वाण काटते हुए अपने-अपने खड्ग द्वारा महाविषम युद्ध किया। पश्चात् अपने रण-कौशल से एक दूसरे के वध करके वे दोनों स्वर्गीय हो गये । इधर इन्दल ने चामुण्ड (चौंढा) देवसिंह ने धंधुकार (धांधु) और उदयसिंह ने भगदत्त को पराजित कर राजा के पास प्रस्थान किया, जिसमें उनलोगों के साथ शेष पांच सौ शूर सैनिक जा रहे थे । पराजित होने पर भगदत्त आदि के पास भी सहस्रों सैनिक थे । तीसरे दिन प्रातः काल में राजा पृथ्वीराज ने मायावर्मा को बुलाकर कहा -सत्तम ! अपने वीर दश पुत्रों समेत एक लाख सैनिकों को साथ लेकर शत्रुओं के विनाशार्थ रणस्थल में शीघ्र पहुँच जाइये । इसे सुनकर उस राजा ने बाजे गाजे के साथ वहाँ पहुँचकर अपने आगमन की सूचना दी। उसे देखकर राजा परिमल ने भी निर्भीक होकर जगन्नायक से कहा-आप अपनी दश सहस्र सेना लेकर इन तीनों दीरों के साथ रणभूमि की तैयारी कीजिये । वहाँ जाकर शीघ्र मेरी विजय करना। इसे सुनकर वे ससैन्य वहाँ पहुँच गये। मुनिश्रेष्ठ ! उन दोनों सेनाओं में एक प्रहर तक भीषण युद्ध हुआ । किन्तु उदयसिंह आदि से सुरक्षित होने पर भी वे दशसहस्र सैनिक वहाँ रणस्थल में धराशायी हो गये। पश्चात् उन पुंग देश के सैनिकों ने अपनी-अपनी शंखध्वनि करते हुए विजय की सूचना दी। उसी समय उदयसिंह आदिवीरों ने वहाँ पहुँचकर एक प्रहर के भीतर शत्रु के उन लक्ष सैनिकों के निधन कर दिये । अपराह्न में अपने पुत्रों समेत मायावर्मा तथा उदयसिंह और देवसिंह समेत जगनायक वहाँ रणस्थल में पहुँच गये पुत्रों समेत अङ्गाधीश्वर मायावर्मा के साथ उदयसिंह का युद्ध आरम्भ हुआ, जो वीरवर घोड़े पर बैठा हुआ, शत्रु सेनाओं का मंथन करने वाला एवं भगवान् मधुसूदन की कला से उत्पन्न था। पश्चात् अङ्गाधीश्वर ने अपने तीन वाणों द्वारा उदयसिंह के शिर एवं दोनों पाश्र्वभाग में आघात किया । उस समय दण्ड से आहत काल साँप की भाँति अत्यन्त क्रुद्ध होकर इस बलवान् ने अपने घोड़े को आकाश में उड़ाकर उनके रथ के ऊपर पहुँचते ही अपने घोड़े के चरणपात द्वारा उन्हें विरथ कर दिया। अनन्तर उस राजा ने अपनी तलवार द्वारा उस बेंदुल घोड़े के ऊपर अंगों में प्रहार करके उदयसिंह से कहा-तुमने अनेक बड़े-बड़े राजाओं पर विजय अवश्य प्राप्त की है, किन्तु तुम्हारी इस चञ्चल माया का नाश करके ही मैं सुखी हो सकेंगा और मेरी कीर्ति भी तभी दिदिगन्तों में विस्तृत हो सकेगी । ऐसा कहते हुए उस राजा के मस्तक को उदयसिंह ने अपनी तलवार से छिन्न-भिन्न कर दिया । अंगाधीश्वर के निधन होने पर उनके दश-पुत्रों ने उन्हें घेरकर आघात करना चाहा, पर बीच में इन्दुल ने अपने बाणों द्वारा उनके पाँच पुत्रों को धराशायी कर दिया। दो पुत्रों को देवसिंह ने अपने भाले द्वारा हनन किया और बड़े पुत्र को जगनायक एवं शेष दो पुत्रों को स्वयं उदयसिंह ने स्वर्गीय बनाया । पश्चात् उस प्रदोष के समय शंखों की रुचिरध्वनि करते हुए उन लोगों ने अपने शिविरों को प्रस्थान किया। भ्रान्त होने के नाते रात में सुखनींद शयन करने के उपरांत प्रातः काल अपने नित्य-कर्म करके राजा के पास सभा में पहुँचकर उन लोगों ने कहा-चन्द्रवंशिन् ! आज सेनापति कौन बनाया जायगा । यह हमें बताने की कृपा करें। उसे सुनकर राजा ने कहा-कामसेन समेत अपने सैनिकों को साथ लेकर वीरसेन आज रणस्थल में पहुँचेंगे । इसलिए तुम लोग उनकी रक्षा करने में सावधान रहना । जिस समय वीरसेन के राजा परिमरद के नमस्कार पूर्वक अपने सैनिकों गमेत उस रणस्थल में प्रस्थान किया, उस प्रतापी राजा पृथ्वीराज ने नागवर्मा को बुलाकर कहा-नृपश्रेष्ठ! अपने पुत्रों एवं एक लाख सैनिको समेत आप उस रणभूमि में शीघ्र पहुँचकर अत्यन्त घोर शत्रु उस वीरसेन को पराजित कर विजय प्राप्त कीजिये । इसे सुनकर उस राजा ने उन्हें प्रणामपूर्वक रणभूमि की तैयारी किया। वहाँ पहुँच दोनों सैनिकों का घोर भीषण युद्ध हुआ, जिसमें तीन पहर के भीतर सभी सैनिक धराशायी होने के नाते सुन्दर विमान द्वारा स्वर्ग पहुँच गये । सभी सैनिकों के निधन हो जाने पर नागवर्मा ने यादववंशी वीरसेन से कहा-आपके समान मैं भी विरथ होकर इस रणभूमि में पुत्रों समेत उपस्थित हूँ, अतः समानता के नाते धर्म के स्मरण पूर्दक युद्ध करने की कृपा कीजिये । इसके पश्चात् दोनों वीरों ने धनुष-बाण लेकर एक दूसरे के ऊपर प्रहार करना आरम्भ किया। धनुष बाण को छिन्न-भिन्न करने के उपरांत खड्ग युद्ध द्वारा उन दोनो राजाओं ने एक दूसरे को धराशायी करते हुए सुन्दर विमान पर बैठकर स्वर्ग की यात्रा की । पश्चात् कामसेन ने शत्रु के उन आठ पुत्रों का अपने वाणों द्वारा निधन किया। तदनन्तर उन पुत्रों के बड़े एवं मध्यम भाइयों ने वहाँ पहुँचकर अपने खड्ग द्वारा कामसेन के शिर को उनके शरीर से पृथक् कर दिया। शिर के भूमि में गिर जाने पर कामसेन के कबंधने उन दोनों अपने शत्रुओं का हनन किया। इस प्रकार वे सब आपस में मिलकर सुन्दर विमान पर सुखासीन होते हुए स्वर्ग चले गये। उन सभी लोगों के निधन हो जाने पर चामुण्ड (चौढा) आदि उन तीनों वीरों ने जगनायक को चारों ओर से घेर अपने कठोर वाणों द्वारा उन्हें तथा उनके घोड़े हरिनागर को पीड़ित करना आरम्भ किया। तदुपरांत उस दिव्य अश्व ने अपने पंख फैलाकर ऊपर नभ में जाकर पुनः लौटकर धंधुकार (धांधू) और चामुण्ड (ढ़ा) के गज का मर्दन करते हुए भगदत्त के रथ को चकनाचूर कर दिया और स्वयं आकाश में उड़ गया। उस समय जगनायक ने अपने विजय शंख की ध्वनि करते हुए उदयसिंह के पास आकर उनसे समस्त वृत्तान्त का वर्णन किया । रात्रि के व्यतीत हो जाने पर प्रातः काल नित्यकर्म करने के उपरांत जगनायक आदि वीरों ने रणस्थल में प्रस्थान किया। उस समय पृथ्वीराज ने किन्नरेश मंकण को बुलाकर कहा-राजन् ! मेरे उन प्रबल शत्रुओं के विनाशार्थ आप रणक्षेत्र में पहुँचने की शीघ्रता करें। आज देवताओं के साथ मनुष्यों का युद्ध होगा यद्यपि ऐसा कभी हुआ नहीं है। उनके इतना कहने पर अपने पुत्रों एवं किन्नर सैनिकों समेत राजा मंकण युद्धस्थल में पहुँच ग.” । वहाँ उन्हें आये हुए देखकर राजी परिमल ने अपने वीरों को आदेश दिया। मनोरथ पर बैठकर गनायक, सिंहनी घोड़ी पर तालन, कराल अश्व पर जयन्त (इन्दुल) जो धनुष लेकर शीघ्रता से गमन कर रहे थे, पपीहा पर रूपन, उदयसिंह, हाँथी पर लल्लसिंह और घोड़े पर बैठे हुए धान्यपाल रणोन्मुख होकर अपने सैनिकों समेत धावा बोलते हुए जा रहे थे। इन लोगों ने वहाँ पहुँचकर उन किन्नर सैनिकों को चारों ओर से घेरकर उन्हें आहत करना आरम्भ किया। अपने तीन सहस्र सैनिकों के विनष्ट हो जाने पर किन्नरेश मंकण ने आकाश में अन्र्ताहत होकर कुबेर के ध्यानपूर्वक अपने कठोर वाणों द्वारा शत्रु सैनिकों को मर्माहत करना आरम्भ किया उसकी घोर गर्जना एवं कठोर प्रहार से त्रस्त होकर वे सब विलाप करने लगे। उसी समय शूरप्रवर ईदुल वहाँ शत्रु के सम्मुख पहुँच गया । उसने महेन्द्र के ध्यानपूर्वक मंकण को बाँध लिया और उदयसिंह के पास पहुँचकर उनकी चरणवन्दना की। उस समय उन किन्नर सैनिकों ने अपने स्वामी मंकण को बँधा हुआ जानकर अपने गुह्यक अस्त्रों का प्रयोग किया, जिससे सात दिन तक लगातार रात-दिन युद्ध होता रहा। उस युद्ध में सैनिकों के निधन होने के उपरांत भ्रान्त होकर उन सातों वीरों के शयन करने पर मंकण ने कुबेर का ध्यान करके उनके द्वारा वरदान की प्राप्तिपूर्वक अपने बंधनों को काट दिया । और उसी आधीरात के समय उन शयन किये हुए वीरों को जगाकर उनसे युद्ध करना आरम्भ किया । उन प्रभावशाली छे वीरो को पराजित करने के उपरांत मंकण ने इन्दुल के साथ खड्ग युद्ध करना आरम्भ किया। मदोन्मत्त होकर उन दोनों ने एक दूसरे के ऊपर अचूक खड्ग प्रहार किया, जिससे निधन होने पर वे दोनों श्रेष्ठ देवों से स्तुत होते हुए स्वर्ग चले गये । मुनीन्द्र ! प्रातः काल के समय इन्दुल के मृत्यु समाचार मिलने पर सपरिवार आल्हा ने रुदन किया पश्चात् तीन लाख सैनिकों ममेत अपने पंचशब्द नामक गजराज पर बैठकर रण की ओर वेग से प्रस्थान किया। उधर पृथ्वीराज ने भी अपने शूर-सामन्तों को ‘मेरे साथ रण में चलने की तैयारी करो’ यह आदेश देकर अपने पाँच लाख शूरवीरों समेत वहाँ पहुँचकर शत्रु की सेना को चारों ओर से घेर लिया। वे दोनों सैनिक उस रणस्थल में सिंहनाद की गर्जना करके आपस में युद्ध कर रहे थे जिसमें तीन प्रहर के भीतर उस युद्ध में दोनों ओर के शुर वीरगण आहत हो गये। उस समय पृथ्वीराज और मण्डलीक आह्लाद (आल्हा) का अपने-अपने धनुष बाण समेत उस युद्धभूमि में आगमन हुआ। उस युद्ध में उग्रवीर राजा लक्षण (लाखन) से धंधुकार (धांधू) का, उदयसिंह से भगदत्त का और देवसिंह से चामुण्ड (चढ़ा) का युद्धारम्भ हुआ । पञ्चशब्द नामक गजराज पर बैठकर भयंकर नामक गजपर बैठकर पृथ्वीराज ने उसी बीच शिवप्रदत्त उस मत्त गजेन्द्र से कहा-शिवप्रदत्त मत्तगजेन्द्र ! रणविजय मेरी ही हो और रण दुर्मदान्ध एवं मण्डलीक नामक उस प्रख्यात आह्लाद (आल्हा) शत्रु से मेरी रक्षा करो। हस्तिन् ! वह महाबली मेरा कालरूप है । इस प्रकार उनके कहने पर उस हाथी ने उनसे कहा-राजन् ! मेरी एक बात अवश्य स्वीकार करो-जब तक. मैं इस शरीर को धारण किये रहूँगा, तब तक आप शत्रुओं के लिए दुर्धर्ष रहेंगे। इस प्रकार कहने वाले उस शत्रु के हाथी के मुख को महेन्द्रप्रदत्त उस पंचशब्द नामक गजराज ने अपने चारों दाँतों द्वारा विदीर्ण कर दिया। पश्चात् मदोन्मत्त उस रुद्रप्रदत्त गजराज ने वेग से दौड़कर अपने शत्रु गजेन्द्र के ऊपर अपने सुण्ड-दण्ड से प्रहार करते हुए कुम्भस्थल एवं चरणों में पीड़ितकर उसे मूच्छित कर दिया। पंचशब्द नामक अपने गजेन्द्र के मूच्छित हो जाने पर आह्लाद (आल्हा) ने अपने तोमर अस्त्र द्वारा पृथ्वीराज के शरीर में महान् व्रण (घाव) करने के अनन्तर उनके गजराज पर खड्ग का आघात किया। पश्चात् शत्रुहन्ता आल्हा पैदल ही वहाँ चले गये, जहाँ रणस्थल में इन्दुल नामक उनका उग्र धनुर्धर पुत्र पड़ा हुआ था । वहाँ पहुँचकर उन्होंने उसे उठाकर विलाप किया । तदतर उसे लेकर वे अपनी रोती कलपती स्त्री के पास पहुँचे। इधर उन मतवाले गजराजों ने चेतना प्राप्त होने पर पुनः युद्ध करना आरम्भ किया। उस समय वीर लक्षण (लाखन) उत्तम खड्ग द्वारा शत्रु के वाणों को काटकर पुनः धनुष पर वैष्णवास्त्र बाण के समंत्रक प्रयोग द्वारा धुंधुकार (धांधू) समेत उसके गज को भी दग्ध कर दिया। अपने निजी एवं मुख्य बंधु के निधन हो जाने पर पृथ्वीराज ने अपने आदि भयंकर नामक गज पर बैठकर अपने रौद्र बाण द्वारा लक्षण (लाखन) पर प्रहार किया। उस चन्द्रवंशी सूर्य के मूच्छित हो जाने पर उदयसिंह ने भगदत्त को मूच्छित कर अकेले पड़े हुए लक्षण (लाखन) के पास शीघ्र पहुँचने का प्रयत्न किया। राज पृथ्वीराज उन्हें वहाँ आते हुए देखकर भयभीत होकर तेजी से भागते हुए रक्तबीज के पास चले गये । उस समय रक्तबीज ने देवसिंह को पराजित कर उदयसिंह के पास पहुँचकर उन्हें मूच्छित कर दिया। और चेतना प्राप्तकर देवसिंह के वहाँ पहुँचने पर उन्हें भी । उसे देखकर रणकुशल लक्षण (लाखन) ने उसके बंधन में वहाँ पहुँचकर धनुष पर अपने वैष्णवास्त्र का अनुंसधान कर रक्तबीज को ललकारा। उस समय सामन्त पुत्र रक्तबीज (भयभीत होकर) संध्या समय देखते हुए रण से पलायन कर राजाओं के बीच में छिप गया। जो अत्यन्त क्रुद्ध होकर वहाँ स्थित थे। शत्रु को भागते हुए देखकर रत्न भानु पुत्र लक्षण (लाखन) भी अपने शिविर में चले गये उस समय चन्द्रवंशी राजा परिमल ने अपनी विजय सुनकर हर्षित होते हुए उन लोगों के साथ शयन किया। प्रातःकाल नित्यकर्म समाप्ति के अनन्तर चन्द्रवंशी राजा परिमल ने चन्द्रवंशी एक राजा से कहा- अये गुजरात देश के अधीश्वर मूलवर्मन् ! अपने पुत्रों एवं एक लाख सैनिकों समेत आप रणभूमि के लिए प्रस्थान कीजिये । इस प्रकार कहने पर उस राजा ने रणक्षेत्र के लिए शीघ्र प्रस्थान किया। इधर राजा पृथ्वीराज की आज्ञा पाकर बलवान् राजा पूर्णामल भी अपने दशपुत्रों एवं एक लाख सैनिकों समेत वहाँ पहुँच गये। दोपहर तक उन दोनों सैनिकों का घोर युद्ध हुआ, जिसमें उन दोनों के सैनिक धराशायी हो गये। सैनिकों के निधन हो जाने पर पुत्रों समेत उन दोनों नरेशों ने एक दूसरे के प्रहार द्वारा प्राण परित्याग कर स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया। मार्गशीर्ष (अगहन) मास में कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रातः काल निर्मल सूर्य के उदय होने पर पुत्रों समेत एवं एक लाख सैनिकों को लेकर राजा कैकय रण में उपस्थित हो गये। उस समय राजा मद्रकेश ने भी दश पुत्रों और एक लाख की सेना लेकर युद्धार्थ वहाँ प्रस्थान किया। उस रणस्थल में दोनों सैनिकों तथा राजाओं का भीषण युद्ध आरम्भ हुआ। संध्या समय तक वे क्षत्रीगण एक दूसरे को आहतकर स्वर्गीय हो गये । उसके दूसरे दिन प्रातः काल के समय महाबली राजा भगदत्त अपनी तीन लाख सेना लेकर रणभूमि में पहुँचे। उसे देखकर वीर लक्षण (लाखन) भी अपने तीन लाख सैनिकों समेत वहाँ पहुँचकर घोर संग्राम करने लगे । अपराह्न समय तक दोनों राजाओं की सेना आपस में लड़कर समाप्त हो गई। पश्चात् रथपर बैठे भगदत्त लक्षण (लाखन) के सम्मुख पहुँचे। लक्षण (लाखन) ने भी अपने पैतृक शत्रुपुत्र को देखकर तीनों वाणों एवं भाले का साथ ही प्रहार किया। उस समय क्रुद्ध होकर भगदत्त ने उन्हें रथहीन कर दिया । उस क्रुद्ध एवं चोर शत्रु को देखकर लक्षण (लाखन) ने अपने खड्ग द्वारा उनके घोड़े और सारथी के निधन करने के उपरांत उन भगदत्त का सामना किया। उस बलवान् ने उसी खड्ग द्वारा शत्रुपुत्र भगदत्त के कवच और चर्म (दाल) को छिन्न-भिन्न करते हुए उनकी शरीर में तीन खंड कर दिया। संध्या समय उस शत्रु के हनन हो जाने पर लक्षण (लाखन) हाथी पर बैठे हुए अपने शिविर में अकेले ही पहुँचे । भगदत्त के स्वर्गीय होने पर राजा पृथ्वीराज ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर चामुण्ड के साथ सभी राजाओं को रणस्थल में भेजा। मार्गशीर्ष के शुक्ल प्रतिपदा के दिन उस रणस्थल में उपस्थित राजवृन्दों का घोर युद्धारम्भ हुआ, जिसमें पृथ्वीराज की ओर से राजा अंगद कलिंग, त्रिकोण, श्रीपति, श्रीतार, मुंकुद, सहिल गुहिल, सुकेतु, और नब्बे सहस्र सैनिकों समेत वे नव राज गण वहाँ उपस्थित होकर उस युद्ध महोत्सव के उपलक्ष में अनेक भाँति के वाद्य बजवा रहे थे। उसे देखकर वीर लक्षण (लाखन) ने भी अपने राजाओं समेत वहाँ रणभूमि में पहुँचकर व्यूह रचना द्वारा शत्रुओं को घेर लिया। उस युद्ध में राजा रुद्रवर्मा अपने दशसहस्र शूरवीरों समेत एवं शत्रु अंगद राजा के साथ युद्ध कर रहे थे। उसी प्रकार दशसहस्र सैनिकों समेत कालीवर्मा कलिंग के साथ, दशसहस्र सेना समेत वीरसिंह त्रिकोण के साथ, उतने ही सैनिक लेकर उनके छोटे भाई प्रवीर श्रीपति के साथ और वीर एवं बली राजा सूर्यधर दश सहस्र सेना लेकर राजा श्रीतार के साथ भीषण युद्ध कर रहे थे । मुकुंद के साथ वामन, माहिल के साथ बलवान् गंगासिंह, और गुहिल के साथ लल्लसिंह अपने-अपने दश सहस्र सैनिकों समेत वहाँ युद्ध में मग्न थे। उनमें अन्य तीन सौ छोटे राजगण थे, जो वहाँ एक दूसरे से भयानक युद्ध करके सर्वप्रथम विनष्ट हो गये ।१७१-१८५। उन नृपों के निधन देखकर चामुण्ड (चौंढ़ा) ने लक्षण (लाखन) के पास पहुँचकर उनसे महान् युद्ध किया। उसके द्वारा पीडित होने पर भी लक्षण (लाखन) ने उसे ब्राह्मण समझकर उसके ऊपर अपने वैष्णवास्त्र का प्रयोग नहीं किया। संध्या समय लक्षण (लाखन) हथिनी पर वैठे अकेले ही शिविर में पहुँचे और चामुण्ड (चौंढा) राजा पृथ्वीराज के पास । द्वितीया के दिन प्रातःकाल देवसिंह समेत उदयसिंह दशसहस्र सेना लेकर उस रण में पहुँचे। उस तारक (ताहर) और चामुण्ड (चौंढा) भी अपने दो लाख सैनिकों तथा दो सौ राजाओं को लेकर वहाँ पहुँच गये। अन्य राजाओं को आगे कर सेना समेत दोनों ओर के प्रधान वीरों ने उनके पीछे रहकर उस दिन भीषण संग्राम किया, जिसमें उदयसिंह और देवसिंह ने एक प्रहर के भीतर उन समस्त राजाओं के विनाश पूर्वक उनके एक लाख सैनिकों का भी निधन कर दिया, पश्चात् श्रान्त होने के नाते वे वहाँ विश्राम करने लगे। छिद्रान्वेषी एवं धूर्त तारक (ताहर) ने चामुण्ड (चौंढा) को साथ लेकर उन भ्रान्त (थके हुए) वीरों में युद्ध ठान दिया। तीन प्रहर तक दोनों दलों का घमासान युद्ध हुआ । संध्या होने पर उदयसिंह के पास कोई अस्त्रन रह गया, किन्तु उस अवस्था में भी उस पराक्रमशाली ने अपने हाथ के चपेट से शत्रु को मूर्च्छित कर दिया। उसी बीच तारक (ताहर) ने देवसिंह समेत उनके घोड़े मनोरथ के भी निधन करके अपनी शंखध्वनि किया। उसे सुनकर महाबली चामुण्ड (चढ़ा) की मूच्र्छा नष्ट हो गई। उसने अत्यन्त वैग से उदयसिंह का शिर उनकी शरीर से पृथक् कर दिया। पश्चात् उन दोनों वीरों के शिर लेकर वे दोनों पृथ्वीराज के पास पहुँच गये, जिसे देखकर उन्हें परमानन्द की प्राप्ति हुई। अनन्तर उन्होंने ब्राह्मणों को यथेच्छ दान देकर महान् उत्सव कराया। उन दोनों वीरों के निधन को सुनकर लक्षण (लाखन) की सेना में हाहाकार मच गया। उस कोलाहल को सुनकर ब्रह्मानन्द की मूर्च्छा नष्ट हो गई। उन्होंने वेला से कहा-प्रिये ! हरिनागर नामकं घोड़े पर बैठकर तुम शीघ्र रण में पहुँचो । मेरा ही वेष धारणकर तुम तारक (ताहर) का शीघ्र हनन करो विलम्ब मत करो। इसे सुनकर आह्लाद के साथ वेला सहस्र दीरों समेत रणस्थल में पहुँच गई । उसे सुनकर वीर लक्षण (लाखन) भी तालन एवं दश सहस्र सैनिकों समेत पृथ्वीराज के पास पहुँच गये । तृतीया के दिन प्रातः काल बलवान् तारक (ताहर) ने उस (वेला) को ब्रह्मानन्द मानकर उसके साथ घोर युद्ध किया । रक्तबीज चामुण्ड (चौंढ़ा) का भी रामांश आल्हा के साथ भीषण युद्ध हुआ। एक प्रहर के भीतर आल्हा ने उसके गज को मार उनके समस्त अस्त्रों को नष्टकर दिया पश्चात् दोनों का मल्लयुद्ध आरम्भ हुआ। तीन प्रहर तक उस युद्ध के होने पर संध्या समय वीर आल्हा ने अपने भातृहन्ता चौंढा का मंथन करते हुए निधन किया । उस समय वेला ने भी महाबलवान् उस तारक (ताहर) शत्रु के अस्त्रों को नष्ट करने के उपरांत अपने खड्ग द्वारा उनके शिर को धड़ से पृथक् कर दिया। पश्चात् उस द्रुपदात्मजा देवी ने अपने श्वसुर की आज्ञा प्राप्तकर सविधान चिता लगाकर व्रह्मानन्द के नमस्कार पूर्वक उनके साथ चिता पर बैठ गई, और पतिसमेत अपने सात जन्म की कथा कहकर पति के साथ भस्म हो गई। उसी चिता में इन्दुल की स्त्री ने भी अपने पति के शव को देखकर उनके साथ अपने कलेवर को भस्म कर दिया। उसी रात्रि के समय अत्यन्त क्रुद्ध होकर राजा परिमल ने लक्षण (लाखन) समेत पृथ्वीराज के पास पहुँचकर उनसे घोर युद्ध किया । उस समय उनके पास सवालाख सैनिक शेष थे और परिमल राजा की ओर तीन लाख धान्यपाल लक्षण (लाखन) और तालन ने सौ-सौ राजाओं के निधन करके पृथ्वीराज ने पास प्रस्थान किया । उसी समय राजा पृथ्वीराज दुःखी होकर उस आधीरात के समय महेश्वर भगवान् शंकर के ध्यानपूर्वक शेष सैनिकों के साथ अकेले हाँथी पर बैठकर युद्ध करने लगे। उन्होंने रुद्रप्रदत्त बाण द्वारा परिमल धान्यपाल एवं तालन के निधन करने के उपरांत लक्षण (लाखन) के समीप प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर उन्होंने घोर युद्ध किया, जिससे उनके रौद्रास्त्र द्वारा सभी राजवृन्द नष्ट हो गये। पश्चात् पृथ्वीराज ने लक्षण (लाखन) पर प्रहार करने के लिए रौद्रसर का अनुसंधान किया और लक्षण (लाखन) ने अपने वैष्णवास्त्र का । उन अस्त्र द्वारा पृथ्वीराज का वह अस्त्र नष्ट हो गया। तथा उसके तेज से राजा अत्यन्त सन्तप्त हुए । तदुपरांत पृथ्वीराज ने महादेव रुद्र के ध्यानपूर्वक अपने भल्लास्त्र द्वारा उनके शिर धड़ से पृथक् कर दिया। उस समय लाखन की हथिनी क्रुद्ध होकर गज आदि भयंकर को एक मुहूर्त में पराजित करती हुई स्वयं स्वर्ग चली गई। तदनन्तर उषा काल में रानी मलना ने अपने पति के साथ चिता पर अपनी शरीर भस्म कर दिया। उसी समय देवकी ने भी शुद्ध एवं लक्षण (लाखन) तथा तालन आदि के कलेवर को उसी चिता में डालकर स्वयं अपनी शरीर को भस्म कर दिया। चौथे दिन मंगलवार में प्रातः काल आल्हा मृतक अपनी पत्नी स्वर्णवती (सोना) के शव को उसी चिता में डालकर तथा उन लोगों के लिए तिलाञ्जलि देने के उपरांत सर्वमयी देवी के ध्यानपूर्वक उसी स्थान स्थिर होकर बैठ गये। उसी बीच अपनी भार्या समेत कलि ने वहाँ आकर अपने मनोरथ के सिद्धयर्थ नम्रवाणी द्वारा उनकी स्तुति करना आरम्भ किया । कलि ने कहा— सम्पूर्ण आनन्द को देने वाले एवं महान् उस आह्लाद (आल्हा) को नमस्कार है, जो योगेश्वर तथा विशुद्ध होकर महावती (महोवा) में निवास कर रहा है। महाबाहो ! आप राम के अंश से अवतरित और मेरे पालन करने में कटिबद्ध हैं । तपोबल प्रधान उन पाँच सहस्र अग्निवंशीय तथा अनेक क्षुद्र राजाओं के हनन द्वारा अपने इस भूतल के भार का अपहरण किया है और अनन्तर आसानासीन होकर योगध्यान में तन्मय हो रहे हैं, अतः आप ऐसे महानुभाव को सादा नमस्कार कर रहा हूँ। महाभाग ! आपने अपनी अद्भूत वीरता प्रकट कर उनकी साठ लाख सेना का भी विध्वंस किया है, इसलिए मनइच्छित वर की याचना कीजिये । इसे सुनकर आह्लाद ने निर्भय होकर कहा-देव ! आप मेरी कीर्ति प्रत्येक व्यक्तियों में ख्यात करने की कृपा करें । आपके समस्त कार्यों को मैं पुनः सुसम्पन्न करने की चेष्ट करूंगा। मेरी और एक बात सुनने की कृपा कीजिये । देव ! राजा पृथ्वीराज धर्मात्मा एवं शिव शक्ति का उपासक है, इसलिए उसके दोनों नेत्र शुद्ध नीलवर्णका बना देना चाहता हूँ, क्योंकि वह आपको प्रिय है और मुझे जो देवों को दुःख तथा दैत्यों की हर्ष-वृद्धि करता है। इतना कहकर रामांश आह्लाद ने अपने गजेन्द्र पर बैठकर पृथ्वीराज से युद्ध करने के लिए अत्यन्त वेग से प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर पृथ्वीराज से संग्राम आरम्भ किया उसी समय रुद्रप्रदत्त गज ने पंचशब्द गजेन्द्र के पद्म दाँतों पर अपने दोनों चरणों के भार रखते हुए उससे महान युद्ध किया। पश्चात् आह्लाद द्वारा एक दूसरे का निधन करते हुए वे दोनों स्वर्ग चले गये। उस समय भयभीत होकर राजा पृथ्वीराज रण छोड़कर अत्यन्त वेग से भाग निकले, किन्तु आल्हा ने भी उनके पीछे तेजी से दौड़कर उन्हें पकड़ लिया और कलिप्रदत्त उस नील द्वारा उनके दोनों नेत्रों को बलात् नीलवर्ण के समान काला कर दिया। उसी समय शिवजी ने अशुद्ध समझकर उन्हें छोड़ दिया और गुह्यकों के निवासस्थान उस कैलास पर निवासार्थ प्रस्थान किया। आह्लाद ने भी कलि के साथ गन्धमादन पर्वत के उस कदली वन में जाकर अपनी योग समाधि लगाई। उन्हें योगाभ्यास में मग्न देखकर हर्ष विभोर होकर कलि ने बलि के यहाँ जाकर उनसे समस्त वृतान्त का वर्णन किया । उस समय दैत्यराज बलि ने अपने दश सहस्र सैनिकों समेत और देश में जाकर सहोडीन (सहाबुद्दीन) से कहा-वीर ! मैं तुम्हारी रक्षा करता रहूँगा, इसी रात में अपनी सेना समेत चलो और पृथ्वीराज को पराजित कर विद्वन्माला का ग्रहण करो ! इसे सुनकर उसने अपने सवा लाख सैनिकों समेत कुरुक्षेत्र को प्रस्थान किया। सोलह दिन की यात्रा करके वहाँ पहुँचने पर युद्ध में पृथ्वीराज के अन्य पुत्रो पर विजय प्राप्ति पूर्वक महावती (महोबा) चला गया। वहाँ महीपति (माहिल) के द्वारा वहाँ के धन-रत्नों को लूट लिया। कीर्तिसागर में लिङ्गार्थ राजा ने बहुत प्रयत्न किया, किन्तु सफल न हो सके विवश होकर अपने घर लौटने पर उन्होंने लक्षचण्डी के अनुष्ठान को सुसम्पन्न करके परम आनन्द की प्राप्ति की । उसे सुनकर राजा जयचन्द्र ने पुत्रशोक से आहत होकर यती के वेश में निराहार रहना आरम्भ किया, जिससे अल्पकाल में ही उन्हें स्वर्ग को प्रस्थान करना पड़ा। राजा पृथ्वीराज सहोड्डीन (सहाबुद्दीन) के साथ भयंकर युद्ध करते हुए सातवें दिन पकड़ लिये गये। उस म्लेच्छराज ने उनके मारने के लिए अनेक यत्न किया, किन्तु वे मर न सके। उस समय विवश होकर सहोड्डीन (सहाबुद्दीन) ने उन्हें बन्धन मुक्त कर दिया। उसी बीच राजा पृथ्वीराज की आज्ञा में चन्द्रभट्ट ने जिस समय वहाँ एक प्रकार की ज्योति उत्पन्न हुई, अपने तीक्ष्ण वाण द्वारा उनका निधन कर उनका अग्नि संस्कार कर दिया। पश्चात् उस म्लेच्छराज ने असंख्य धनराशि समेत विद्वन्माला का अपहरण करके कुतुकोडीन (कुतुबुद्दीन) नामक अपने एक सेवक को वहाँ नियुक्तकर स्वयं अपने प्रदेश को प्रस्थान किया । (अध्याय ३२) ॥ ॐ तत्सत् प्रतिसर्गपर्व तृतीय खण्ड शुभं भूयात् ॥ Related