भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ – अध्याय १२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — चतुर्थ भाग)
अध्याय १२
भारती, गोरखनाथ, क्षेत्रशर्मा और ढुण्ढिराज की उत्पत्ति का वर्णन

सूत जी बोले — बृहस्पति की कही हुई कथा मैं पुनः कह रहा हूँ, सुनो ! पहले हिर्बु नामक एक दानव हुआ था, जो प्राणीमात्र के लिए कंटक को भाँति सदैव दुःखदायी रहता था । निकुम्भ दैत्य के कुल में उत्पन्न होकर उसने इन्द्र के समान पराक्रमी होने पर भी एक सहस्र वर्ष तक घोर तपस्या की, जिससे उसके तेज द्वारा देवों को अत्यन्त पीड़ा होने लगी । उस समय लोकनियन्ता ब्रह्मा ने लोक के रक्षार्थ उसके समीप पहुँचकर उस दानवेश्वर से वर-याचना करने के लिए कहा । om, ॐउसने विधाता को नमस्कार करके विनम्र होकर कहा – स्वामिन् ! विश्वस्रष्टा होकर आप मुझे यदि कृपया वर प्रदान करने के लिए उत्सुक है, तो आपकी सृष्टि में चर-अचर किसी प्राणी द्वारा कभी मेरी मृत्यु न हो ।’ वर प्रदानकर ब्रह्मा के ब्रह्मलोक चले जाने पर दुरात्मा दैत्य ने स्वर्ग निवासी देवों को पराजितकर पाताल से दैत्यों को बुलाकर वहाँ अपना आधिपत्य स्थापित किया और देवों ने भूतल निवास करना आरम्भ किया । एक लाख वर्ष तक देवों का इस प्रकार परम दुरुपयोग करने के उपरान्त एक बार योगिराज नारद ने देवों की दुरावस्था देखकर उनसे कहा — लोकशंकर भगवान् शिव की आराधना करो, क्योंकि वे ही महादेव एवं ब्रह्माण्ड के अधिनायक दुःखभंजन है । इसे सुनकर विस्मित होते हुए देवों ने पार्थिव पूजन द्वारा उमापति महादेव की आराधना आरम्भ की । ग्यारह वर्ष के अनन्तर उन पूजन करने वाले देवों के ऊपर प्रसन्न होकर लोक के कल्याणमूर्ति भगवान् शिव ने ज्योतिर्लिङ्ग रूप धारणकर तीनों लोकों को भस्म कर दिया । उस समय केवल देवभक्त ही शेष रह गये और अन्य लोग उन्हीं दानवों के साथ उस भीषण अग्नि की ज्वाला में भस्म हो गये । उसी समय ब्रह्मा ने हर्षमग्न होकर विष्णु समेत वहाँ आकर सामवेद की स्तुति द्वारा उन महारुद्र को प्रसन्न किया, पश्चात् देवों के हितार्थ मिथुन राशि पर सूर्य के स्थित होने पर उन हिर्बुघ्न महारुद्र को चन्द्रमण्डल के राजपद पर विभूषित किया । इसे सुनकर हिर्बुघ्नदेव ने देवों के कार्य सफल करने के लिए हिमालय पर्वत निवासी साद्यकर्मा के घर पुत्र-रूप में जन्म ग्रहण किया, जो यति रूप एवं कला के पूर्ण ज्ञाता होकर ‘भारतीश’ के नाम से प्रख्यात हुए । उन्होंने अनेक विद्वानों को पराजित कर काशी यात्रा की । वहाँ पहुँचकर शंकराचार्य से पराजित होने पर उन्होंने उनकी शिष्य सेवा स्वीकार की ।

बृहस्पति जी बोले — मयपुत्र मायी ने एक चरण से स्थित होकर एक सहस्र वर्ष तक सूर्य की ओर दृष्टि लगाये कठिन तपस्या की । जिस समय उसके तेज द्वारा लोक एवं लोक निवासी प्राणियों को अत्यन्त सन्ताप होने लगा । उस समय भगवान् पितामह ब्रह्मा प्रसन्न होकर उसके प्रसन्नार्थ तीन ग्रामों (लोकों) के निर्माण पूर्वक क्रमशः तीनों उसे प्रदान किये । जिसमें स्वर्ग के समान सोलह योजन का विस्तृत सुवर्ण निर्मित महल वाला पहला, उसके एक योजन के नीचे भुवर्लोक की भाँति रजत (चाँदी) निर्मित दूसरा और उसके एक योजन के नीचे भूलोक की भाँति विस्तृत लोहे द्वारा रचित तीसरा लोक था । इस प्रकार ब्रह्मा द्वारा रचित उन पुरों में दैत्यों की स्त्रियाँ तथा सौ कोटि धार्मिक दैत्यगण प्रसन्नतापूर्ण निवास कर रहे थे । वहाँ रहकर दैत्यों ने देवों के यज्ञ-भाग को भी ग्रहण करना आरम्भ किया जिससे क्षुधा से पीड़ित होकर देवों ने अपने स्वामी भगवान् विष्णु की उत्तम स्तुतियों द्वारा आराधना की — भगवन्, प्रभो ! हम लोगों को अधिकारहीन होकर रहते हुए चारों युगों के सभी वर्ष व्यतीत हो गये । महाविष्णो ! यहाँ इस कलि के समय भूमण्डल में भी दुःखों के भोग करते सोलह बार चारों युग व्यतीत हो गये । इस प्रकार उन लोगों के आर्तनाद सुनकर भगवान् मधुसूदन ने उन धार्मिक दैत्यों को संस्कृत भाषा में निपुणता प्राप्त करते हुए देखकर उस भीषण कलि के समय स्वयं बौद्ध रूप धारण किया, जो पहले अजिन ब्राह्मण के पुत्र रूप में प्रकट हुए थे । जनार्दन भगवान् ने उन वेदधर्म परायण दैत्यों को अपनी माया से मोहितकर उन्हें सुखी एवं कर्मरहित किया । इस प्रकार उस कलि में इनके सोलह वर्ष की अवस्था प्राप्त होने के समय तक इनसे प्रभावित होकर तीनों वर्णों के मनुष्यों ने यज्ञ करना छोड़ दिया । उस समय त्रिपुरवासी दैत्यों ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर वेदाध्ययन एवं यज्ञानुष्ठान से रहित उन मनुष्यों को देखकर पीड़ित करना आरम्भ किया जिससे उस कल्पान्त के समय दैत्यों द्वारा भक्षित होकर सभी मनुष्य नष्ट हो गये । पुनः सत्ययुग के प्रारम्भ में कैलास में जाकर देवों ने लोक शंकर शिव की उपासना की, जिससे प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने अपना ज्योतिर्लिङ्ग शरीर धारण किया । उस समय देवों ने प्रसन्न होकर पृथ्वी के सार को निकालकर एक विचित्ररथ का निर्माण किया, जिसमें चन्द्र-सूर्य के सार से चक्र, सुमेर पर्वत के सार से उस रथ का केतु (धुरा) निर्मित था । इस प्रकार उन लोगों ने उस विचित्ररथ का निर्माण कर जिस समय उसे महाशिव जी को अर्पित किया उसी समय ब्रह्मा ने वहाँ आकर सारथी पद को अपनाया और वेदों ने उनके वाहन (अश्व) का रूप धारण किया । देवाधिदेव शंकर जी के उस रथपर प्रतिष्ठित होने पर उनके लिए लोकालोक पर्वत का सारभूत एक धनुष बनाया गया, जो भीषण धनुष ‘अजगव’ के नाम से विख्यात हुआ । उस धनुष को भगवान् सत्यदेव ने अत्यन्त कठोर बनाया था, किन्तु देवाधिदेव भगवान् शंकर द्वारा उसे भग्न होते देखकर आश्चर्यचकित होकर भगवान् विष्णु से उस समय स्वर्गलोक के सार द्वारा एक दिव्य धनुष का निर्माण किया । जिस समय भगवान् रुद्र द्वारा उस अत्यन्त पुष्ट एवं विशाल धनुष की प्रत्यञ्चा चढ़ाई गयी उस समय हर्षातिरेक से मग्न होकर देव व्रह्मर्षियों ने उनकी आराधना की और भगवान् महेश्वर उसी समय से ‘पिनाकी’ के नाम से प्रख्यात हो गये । उस धनुष की प्रत्यञ्चा शेष और बाण इन्द्र हुए थे तथा अग्नि और वायु उस बाण के पक्ष एवं शल्य स्वयं सनातन विष्णु भगवान् हुए ।

भगवान् शंकर ने उस बाण द्वारा आकाश में करोड़ों दैत्यों के विनाशपूर्वक उस त्रिपुर का भस्मावशेष किया । तीनों पुरों के भस्म हो जाने पर लोकनायक ब्रह्मा ने महारुद्र उन पिनाकी देव को मीनराशिस्थ सूर्य के समय चन्द्रमण्डल का राजपद प्रदान किया । पश्चात् देवगणों ने भी अपने-अपने अधिकारों को प्राप्त किया ।

सूत जी बोले — इसे सुनकर पिनाकी देव ने मुख द्वारा अपने अंश को निकालकर हिमालय पर्वत के समीप हरिद्वार में भेजा जो वहाँ मच्छन्द नामक योगी की ख्याति प्राप्तकर भगवान् शंकर का अनन्य उपासक हुआ । वही गोरखनाथ का गुरु वर्ण भी था जिसके मुख में वह तेज आविष्ट हुआ था । रम्भा नामक देवाङ्गना ने जो यथेच्छ रूप धारण किया करती हैं कामपीड़ित होने पर योगी मच्छन्द द्वारा अपनी कामपिपासा शान्ति की । पश्चात् उन दोनों के रमण करने पर एक मधुरमूर्ति बालक की उत्पत्ति हुई, जो ‘नाथ शर्मा’ (गोरखनाथ) के नाम से प्रख्यात होते हुए अत्यन्त गम्भीर विद्वान् हुआ । उसने अनेक धुरन्धर पण्डितों को पराजित कर काशीपुरी की यात्रा की । वहाँ पहुँचने पर योगिराज शंकराचार्य से पराजित होने पर उनकी शिष्य-सेवा स्वीकार की ।

बृहस्पति बोले — द्वापर युग में चाक्षुष मन्वन्तर के समय तालजंघीय क्षत्रियों द्वारा कुरुक्षेत्र के स्थान में भृगुवंशीय ब्राह्मणों के विनष्ट हो जाने पर उनके धनों का अपहरण कर उन नीच दैत्यों ने उसका उपभोग किया । उसी समय किसी मुनि की पत्नी गर्भिणी अवस्था में अत्यन्त भयभीत होकर हिमालय के शिखर पर पहुँचने का प्रयत्न किया । वहाँ पहुँचकर ज्ञानरूपिणी उस मुनिपत्नी के सौ वर्ष तक उस गर्भ को धारण करने के उपरान्त उरु के भेदनपूर्वक एक तेजस्वी बालक ने उस गर्भ से जन्म ग्रहण किया । इस भूमण्डल पर जिस समय उस शिशु ने पदार्पण किया उसी समय उसके तेज द्वारा सम्पूर्ण संसार भस्म हो गया । पश्चात् देवों ने भयभीत होकर ब्रह्मा को आगे कर वज्रस्थित वैताल समेत वहाँ पहुँचने का प्रयत्न किया । वहाँ पहुँचने पर पितरों एवं देवों की आज्ञा को स्वीकार कर उसने उस लोकनाशक तेज को जल के मध्य में डाल दिया । उस समय जल-देवी ने बडवा (घोड़ी) रूप धारणकर उस तेज का पान किया किन्तु उस रुद्र तेज से पीड़ित होने पर उसने उसका वमन कर दिया । उस समय स्वयं ब्रह्मा ने वहाँ जाकर त्रिकूट पर्वत के नीचे घोर सागर में उसकी स्थापना की । सूर्य के मेषराशिस्थ होने पर पितामह ब्रह्मा ने उस रुद्रं रूप को चन्द्रमण्डल के स्वामी पद से विभूषित किया । उरु से उत्पन्न होने के ‘वोर्वो’ लोक करने से ‘दहन’ और वडवा के मुख से उत्पन्न होने के नाते उसका ‘वाडव’ नाम हुआ ।

सूतजी बोले — उस दहन (तेजस्वी) ने बृहस्पति की ऐसी सुन्दर वाणी सुनकर अपने मुख से तेज निकालकर कुरुक्षेत्र में भेजा, जो सारस्वत ब्राह्मण के घर पुत्ररूप में उत्पन्न होकर क्षेत्रशर्मा, के नाम से विख्यात एवं श्रेष्ठ विद्वान् हुआ । उसने काशी पहुँचकर शंकराचार्य की शिष्य सेवा स्वीकार करने के उपरान्त ब्रह्मचर्यव्रती रहकर विश्वनाथ जी की सेवा का पारायण किया ।

बृहस्पति जी बोले — स्थावर-जंगम-रूप जगत् के उस प्रलयकालीन एकार्णव में विलीन होने पर अव्यक्तजन्मा ब्रह्मा के सौ वर्ष के उपरान्त प्रकृति माया ने उस आसव जल रूप अव्यक्त का पानकर स्वयं मूर्तिमती होकर अंधकार स्वरूपिणी महाकाली का रूप धारण किया । उस भीषण प्राकृतकल्प के समय एकाकिनी उत्पन्न होकर साठ लाख कोटि चारों युग के समय को व्यतीत किया । पश्चात् उस प्रकृति देवी ने, जिसे शुद्ध एवं सनातनी कहा जाता है, स्वेच्छया अपने स्वरूप को अत्यन्त गौरवर्ण बनाया । उस शिवा ने उस स्वरूप में पाँच मुख, दश भुजाएँ और तीन नेत्र धारण किया और उस माता के भालनेत्र द्वारा सूक्ष्म तेज का दर्शन किया, जो शून्य पर नित्य, अविकार एवं निरंजन है । उसे देखकर प्रकृति देवी ने अपनी भुजाओं द्वारा उस दिग्दिगन्त व्यापक ब्रह्म को ग्रहण करने की इच्छा की किन्तु समर्थ न हो सकी । पश्चात् विस्मित होकर प्रकृतिमाता ने उस सनातन एवं परात्पर देव की अपने पाँचों मुखों द्वारा चिरकाल तक भक्तिपूर्वक आराधना की पूर्वमुख से धातु, दक्षिण मुख से प्रत्यय, पश्चिम मुख से सुप विभक्तिमय, उत्तरमुख से तिङ विभक्तिमय और आकाशीय मुख से वर्णमात्र शब्दों द्वारा उस निरञ्जन की उपासना की जो सच्चिदानन्द, घन, पूर्ण एवं सनातन ब्रह्मा है । तदनन्तर प्रसन्न होकर उस सर्वज्ञ ने उनके पाँचों मुखों में प्रविष्ट होकर पुरुष रूप धारण किया,जो स्वयम्भू के नाम से विश्व विख्यात हुआ और अव्यक्त प्रकृति से उत्पन्न होने के नाते वह अव्यक्तजन्मा भी कहा गया है । पश्चात् उसी पुरुष के लिए वरदात्री एवं लोकरूपिणी देवी ने स्वयं अपने पूर्वार्द्ध भाग से महालक्ष्मी का रूप धारण किया, और उस सोलह लोकनायिका ने अपने अट्ठारह भुजाओं द्वारा लोक की रक्षा की । उस अद्भुत रूप को देखकर स्वयम्भू को महान् आश्चर्य हुआ । अनन्तर उन्होंने उस रूप में प्रविष्ट होकर अनेक रूपों से उसका पता लगाया किन्तु उसका पार न पा सके । उसी समय से बृहत् (वज्र) और बहुत्व (अनेक) होने के नाते ‘ब्रह्मा’ नाम से उसकी ख्याति हुई । तदुपरान्त श्रान्त होकर भगवान् ब्रह्मा ने सत्यलोक पहुँचकर अपने मुखों से उत्पन्न वेदों द्वारा भगवान् शंकर को प्रसन्न किया । चिरकाल के उपरान्त उनके अंगों द्वारा नदी एवं नदों द्वारा (प्रलयकालीन जल बढ़कर) एकार्णव (एक समुद्र) हो गया जिससे उसी में शयन करते हुए स्वयम्भू ब्रह्मा ने सहस्र युग व्यतीतकर सत्यलोक पहुँचकर पुनः सृष्टि करना आरम्भ किया । उस प्रमत्त सृष्टि द्वारा जो गणरूप में पृथक्-पृथक् स्थित थे, सम्पूर्ण विश्व महालक्ष्मीमय दिखाई देने लगा । उस समय सनातनी महालक्ष्मी ने सृष्टि की अधिकता एवं अनेकता देखकर आश्चर्यचकित होकर सर्वेश भगवान् के समीप जाकर नम्रतापूर्वक उन अव्यक्त एवं मांगलिक कृष्ण भगवान् से कहा — भगवन्, नित्यशुद्धात्मन् ! प्राणियों की महत्तर सृष्टि हो गई है, मैं सदा उनकी गणना किस प्रकार करूँगी । इसे सुनकर उस अव्यय ने अपने को दो भागों में विभक्तकर पूर्वार्द्ध से रक्तवर्ण और चार भुजाएँ तथा उत्तरार्द्ध से गौरवर्ण और चारभुजाएँ धारण किया, जिसमें रक्तवर्ण एवं चार भुजाओं वाले रूप ने समस्त सृष्टिगणों के ईश का स्थान ग्रहण किया, जो भगवान् भव गणेश के नाम से विश्वविख्यात हुए और उनका दूसरा गौरवर्ण का स्वरूप जो निरंजनस्वरूप है योगियों का परमध्येय हुआ ।

एक बार ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न शिव ने पार्वती समेत व्रती होकर भगवान गणेश की एक सहस्र वर्ष तक सप्रयत्न आराधना की । उस समय शिव जी की पूजा से प्रसन्न होकर भगवान गणेश ने उनसे कहा — वरदान की याचना कीजिये । उन्होंने प्रसन्न होकर नम्रतापूर्वक उनकी स्तुति की —

नमो विष्णुस्वरुपाय गणेशाय परात्मने ।
चतुर्भुजाय रक्ताय यज्ञपूर्नकराय च
विघ्नहन्त्रे जगद्भर्त्रे सर्वानन्दप्रदायिने ।
सिद्धिनां पतये तुभ्यं निधीनां पतये नमः
प्रसन्नो भव देवेश पुत्रो भव मम प्रियः ।
(प्रतिसर्गपर्व ४ । १२ । ९०-९२)

शिव जी बोले — ‘उस विष्णुस्वरूप को नमस्कार है, जो गणेश, परात्मा, एवं यज्ञ की मूर्ति के लिए रक्तवर्ण एवं चार भुजाओं को धारण किये हैं । विघ्नहर्ता, जगत् के भर्ता समस्त आनन्दप्रदाता एवं सिद्धि-ऋद्धि के अधीश्वर को नमस्कार है । देवेश ! आप प्रसन्नतया मेरा पुत्र होना स्वीकार करें ।’

इसे सुनकर भक्तवत्सल एवं आदिशून्य भगवान् गणेश ने तेजरूप में पार्वती के समस्त अंगों से निकलकर बालक रूप धारण किया । उस समय उस कैलास के शिखर पर देवाधिदेव शंकर के घर उस पुत्र-जन्म के मांगलिक महोत्सव के उपलक्ष में समस्त इन्द्रादि देव उपस्थित हुए । जो महोत्सव प्राणीमात्र के लिए अत्यन्त सुखावह था । उसी बीच सूर्य पुत्र शनि का भी वहाँ आगमन हुआ, जो क्रूरदृष्टि एवं कालात्मा कहे जाते हैं । उनके देखते ही उस शिशु का सिर विलीन हो गया, ऐसा देखकर उस कैलास पर हाहाकार मच गया । तुला राशि पर स्थित सूर्य के समय चन्द्रलोक में स्थित होकर वही सिर इस भूमण्डल पर सत्ताईस दिन तक प्रकाश करता रहता है । उस समय वहाँ देवगणों से निन्दित होने पर उस जनभयङ्कर शनि ने गज का मस्तक काटकर उस बालक के मस्तक स्थान पर रख दिया । पश्चात् ब्रह्मा ने उस गज के मस्तक स्थान पर कर्कट (केकड़ा) का शिर रखकर उस केकड़ा को मस्तकहीन किया । इस प्रकार गजानन की उत्पत्ति बता दी गई, जो गणेश एवं स्वयं ईश्वर कहे जाते हैं ।

सूतजी बोले — इसे सुनकर गणेश जी ने मुख द्वारा अपने स्कन्ध को निकालकर काशी में दैवज्ञ ब्राह्मण के यहाँ पुत्र रूप में जन्म ग्रहण किया, जिस कल्याणमुख बालक की इस भूतल में ढुण्ढिराज के नाम से अत्यन्त ख्याति हुई है । उन्होंने जातकाभरण नामक ज्योतिःशास्त्र के फलित ग्रन्थ का, समस्त देवों के रक्षार्थ निर्माण करने के उपरान्त शंकराचार्य की शिष्य सेवा स्वीकार की । विप्र ! इस प्रकार मैंने ढुण्डिराज की उत्पत्ति कथा तुम्हें सुना दी ।
(अध्याय १२)

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