शिवमहापुराण — उमासंहिता — अध्याय 08
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥
श्रीशिवमहापुराण
उमासंहिता
आठवाँ अध्याय
नरक – भेद-निरूपण

चित्रगुप्त बोले – हे पापकर्मवालो! हे दूसरोंके द्रव्यका अपहरण करनेवालो ! हे रूप एवं पराक्रमपर घमण्ड करनेवालो! हे परनारीप्रसंग करनेवालो ! तुमलोगोंने स्वयं जो कर्म किया है, उसे तुम्हें भोगना पड़ रहा है। तुमलोगोंने आत्मविनाशके लिये कुत्सित आचरण क्यों किया? इस समय तुमलोग अपने कर्मोंके कारण पीड़ित किये जाते हुए [इस प्रकार ] प्रलाप क्यों कर रहे हो ? अब अपने कर्मोंको भोगो, इसमें किसीका दोष नहीं है ॥ १-३ ॥

सनत्कुमार बोले- इसी प्रकार अपने कुत्सित कर्मों तथा बलपर गर्व करनेवाले राजालोग भी अपने घोर कर्मोंके कारण चित्रगुप्तके पास उपस्थित हुए । तब धर्मके ज्ञाता महाप्रभु चित्रगुप्तने यमराजकी आज्ञासे क्रोधयुक्त होकर उन्हें शिक्षा प्रदान की ॥ ४-५ ॥

महानन्दमनन्तलीलं महेश्वरं सर्वविभुं महान्तम् ।
गौरीप्रियं कार्तिकविघ्नराज-समुद्भवं शङ्करमादिदेवम् ॥


चित्रगुप्त बोले- प्रजाओंका विध्वंस करनेवाले हे दुराचारी राजाओ ! तुमलोगोंने अल्पकालवाले राज्यके लिये पापकर्म क्यों किया ? ॥ ६ ॥ हे राजाओ ! तुमलोगोंने राज्यभोगके मोहसे अन्यायपूर्वक जबरदस्ती प्रजाओंको जो दण्डित किया, अब उसका फल भोगो ॥ ७ ॥ अब वह राज्य कहाँ है, वह स्त्री कहाँ है, जिनके लिये तुमलोगोंने [ इतना बड़ा] दुष्कर्म किया? उन सभीको छोड़कर तुमलोग अकेले ही यहाँ स्थित हो ॥ ८ ॥ मैं तुमलोगोंका वह बल नष्ट हुआ देख रहा हूँ, जिसके द्वारा तुमलोगोंने प्रजाओंका नाश किया है। तुमलोग तो यमदूतोंसे बँधे हुए हो, अब क्या हो सकेगा? ॥ ९ ॥

सनत्कुमार बोले- इस प्रकार यमके द्वारा अनेकविध वचनोंसे उपालम्भ प्राप्त किये हुए वे राजालोग चुप हो गये और अपने कर्मोंपर पश्चात्ताप करने लगे ॥ १० ॥ इस प्रकार उन राजाओंके कर्मको बतलाकर धर्मराज यमने उनके पापरूपी कीचड़की शुद्धिके लिये दूतोंसे यह कहा—॥ ११ ॥

यमराज बोले- हे चण्ड ! हे महाचण्ड ! इन राजाओंको बलपूर्वक पकड़कर नियमपूर्वक क्रमसे नरककी अग्नियोंमें इन्हें शुद्ध करो ॥ १२ ॥

सनत्कुमार बोले- तब वे दूत शीघ्र ही उन राजाओं को दबोचकर उनके दोनों पैर पकड़कर वेगसे घुमाकर ऊपरकी ओर फेंककर और पुनः पकड़कर सर्वप्रथम तपे हुए शिलातलपर बड़े वेग से पटकते हैं, मानो वज्रके द्वारा आहत होकर महावृक्ष गिर रहे हों ॥ १३-१४ ॥ उस समय अत्यधिक जर्जर हो जानेपर उस जीवके कानोंसे रक्त बहने लगता है और वह संज्ञाशून्य तथा मूर्च्छित हो जाता है । तब वायुका स्पर्श कराकर यमदूत उसे पुनः उज्जीवित कर देते हैं और पापकी शुद्धिके लिये यमदूत उसे नरकसमुद्रमें फेंक देते हैं ॥ १५-१६ ॥

उनमें पहली कोटि घोरा है और [ दूसरी ] सुघोरा उसके नीचे स्थित है। वहाँ पृथ्वीसे नीचे घोर अन्धकारमय सातवें पातालतलके अन्तमें सात [ प्रधान] नरककोटियाँ हैं, जो अट्ठाइस नरककोटियोंके रूपमें दृष्टिगोचर होती हैं, जिनमें नारकीय प्राणी स्थित रहता है ॥ १७ ॥ इसी प्रकार अतिघोरा, महाघोरा, पाँचवीं घोररूपा, छठी तलातला, सातवीं भयानका, आठवीं कालरात्रि, नौवीं भयोत्कटा, उसके नीचे दसवीं चण्डा, उसके भी नीचे महाचण्डा, चण्डकोलाहला, चण्डोंकी नायिका प्रचण्डा, पद्मा, पद्मावती, भीता, भीषण नरकोंकी नायिका भीमा, कराला, विकराला और बीसवीं वज्रा कही गयी है । त्रिकोणा, पंचकोणा, सुदीर्घा, अखिलार्तिदा, समा, भीमबलाभा, उग्रा एवं अन्तिम दीप्तप्राया है । इस प्रकार नामके अनुसार अट्ठाईस घोर नरककोटियोंको आपसे कह दिया, ये पापियोंको यातना देनेवाली हैं ॥ १८-२३ ॥

उन नरककोटियोंमें प्रत्येकमें पाँच-पाँच प्रधान नरक जानने चाहिये। नामके अनुसार उन्हें सुनिये। उनमें प्रथम रौरव है, जहाँ प्राणी रोते रहते हैं, महारौरवकी यातनाओंसे महान्से महान् प्राणी भी रोने लगते हैं। तीसरा शीत, चौथा उष्ण और पाँचवाँ सुघोर – ये पाँच प्रधान नरक कहे गये हैं। इसी प्रकार सुमहातीक्ष्ण, संजीवन, महातम, विलोम, विलोप, कण्टक, तीव्रवेग, कराल, विकराल, प्रकम्पन, महावक्र, काल, कालसूत्र, प्रगर्जन, सूचीमुख, सुनेति, खादक, सुप्रपीडन, कुम्भीपाक, सुपाक, क्रकच, अतिदारुण, अंगारराशिभवन, मेदोऽसृक्प्रहित, तीक्ष्णतुण्ड, शकुनि, महासंवर्तक, क्रतु, तप्तजन्तु, पंकलेप, प्रतिमांस, त्रपूद्भव, उच्छ्वास, सुनिरुच्छ्वास, सुदीर्घ, कूटशाल्मलि, दुरिष्ट, सुमहावाद, प्रवाह, सुप्रतापन, मेष, वृष, शाल्म, सिंहमुख, व्याघ्रमुख, गजमुख, श्वमुख, सूकरमुख, अजमुख, महिषमुख, घूकमुख, कोकमुख, वृकमुख, ग्राह, कुम्भीनस, नक्र, सर्प, कूर्म, काक, गृध्र, उलूक, हलौक, शार्दूल, ऊँट, कर्कट, मण्डूक, पूतिवक्त्र, रक्ताक्ष, पूतिमृत्तिक, कणधूम्र, अग्नि, कृमि, गन्धिवपु, अग्नीध्र, अप्रतिष्ठ, रुधिराभ, श्वभोजन, लालाभक्ष, आन्त्रभक्ष, सर्वभक्ष, सुदारुण, कण्टक, सुविशाल, विकट, कटपूतन, अम्बरीष, कटाह, कष्टदायक वैतरणी नदी, सुतप्तलोहशयन, एकपाद, प्रपूरण, घोर असितालवन, अस्थिभंग, सुपूरण, विलातस, असुयन्त्र, कूटपाश, प्रमर्दन, महाचूर्ण, असुचूर्ण, तप्तलोहमय, पर्वत, क्षुरधारा, यमलपर्वत, मूत्रकूप, विष्ठाकूप, अश्रुकूप, क्षारकूप, शीतल, मुसल-उलूखलयन्त्र, शिलाशकटलांगल, तालपत्र, असिगहन, महाशकटमण्डप, सम्मोह, अस्थिभंग, तप्त, चल, अयोगुड, बहुदुःख, महाक्लेश, कश्मल, समल, मल, हालाहल, विरूप, स्वरूप, यमानुग, एकपाद, त्रिपाद, तीव्र, आचीवर, तम – ये पाँच-पाँचके क्रममें अट्ठाईस नरक हैं, उनमें क्रमसे नरककोटियोंके पाँच-पाँच नायक हैं ॥ २४–४३ ॥

प्राणियोंको दुःख देनेके लिये एक सौ चालीस नरक बताये गये हैं, उसे नरकमण्डल कहा गया है । है व्यास ! इस प्रकार मैंने आपसे संख्याके अनुसार नरककी स्थितिका वर्णन किया, अब आप वैराग्य तथा उस पापगतिका श्रवण कीजिये ॥ ४४-४५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके अन्तर्गत पाँचवीं उमासंहितामें नरकलोकवर्णन नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥

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