श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-071
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
इकहत्तरवाँ अध्याय
काशिराज का अपने सभासदों से वार्तालाप, मगधराज की कन्या के साथ काशिराज के पुत्र का विवाह, विनायक को साथ लेकर काशिराज का महर्षि कश्यप के आश्रम में गमन, पुरवासियों का वियोग में व्यथित होना तथा विनायक द्वारा उन्हें पुनः आने का आश्वासन देना
अथः एकसप्ततितमोऽध्यायः
विनायकाश्रमं प्रतिगमनं

ब्रह्माजी बोले — हे ब्रह्मन् ! दूसरे दिन जब राजा काशिराज भद्रासन में बैठे थे, तब उन्होंने अमात्यों, प्रधान वीरों, वृद्धजनों, मित्रों तथा ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें नमस्कार करके अपने मन की बात बतलायी ॥ ११/२

राजा बोले — मैंने अपने पुत्र के विवाह को सम्पन्न कराने के लिये विनायक को बुलवाया था। उनके यहाँ आने पर अनेक उत्पात भी उत्पन्न हो गये, जिनका निराकरण उन्होंने कर दिया। विनायक की माता अदिति से मैंने कहा था कि शीघ्र ही मैं आपके पुत्र को वापस ले आऊँगा, किंतु बहुत-से दिन जल्दी ही बीत गये। अब सारा लोक स्वस्थ हो गया है, अतः पुत्र के विवाह के विषय में आपको विचार करना चाहिये ॥ २–४ ॥

अमात्य बोले — हे महाराज ! आपने ठीक ही कहा है, विघ्नों के द्वारा विवाह-कार्य में विलम्ब हो गया है, अब सब विघ्न दूर हो गये हैं, अतः विवाह – कार्य प्रारम्भ करना चाहिये। विनायक के कृपा-प्रसाद से सम्पूर्ण जगत् स्वस्थ एवं निर्भय हो गया है, अतः अब दूर देशों में स्थित मित्रजनों को विवाह की लग्नपत्रिका भेजनी चाहिये और विवाह की सभी सामग्री एकत्रित करने के लिये दूतों को गाँव-गाँव में नियुक्त कर देना चाहिये ॥ ५-६१/२

ब्रह्माजी बोले — मन्त्रियों द्वारा कही गयी इस प्रकार की बातों को सुनकर सभी लोग तथा सभा में बैठे हुए सभासद् कहने लगे — आप लोगों ने बहुत अच्छी बात कही है। यह सुनकर राजा को अत्यन्त हर्ष हुआ। उसी दिन उन्होंने ज्योतिषियों से विवाह का लग्न दिन निश्चित करवा लिया ॥ ७-८ ॥ तदनन्तर राजा ने मित्रजनों को बुलवाने के लिये मांगलिक दूतों को भेजा और उचित रीति से विश्वस्त दूतों के द्वारा विवाह-सामग्री को एकत्रित करवाया । तदनन्तर मगध देश के राजा भी अपनी पुत्री को लेकर उस नगरी में आये और सभी मित्र तथा सम्बन्धी भी नाना दिशाओं से वहाँ उपस्थित हुए ॥ ९-१० ॥ उन्होंने परस्पर एक-दूसरे को अनेकों उपहार प्रदान किये । काशिराज तथा मगध के राजा ने देवताओं की स्थापना की और बड़े-बड़े महोत्सवों का आयोजन किया। उन्होंने बड़े ही प्रयत्नपूर्वक विवाह की समस्त विधियों का सांगोपांग सम्पादन किया और धन आदि के प्रदान के द्वारा ब्राह्मणों तथा अन्य लोगों को सन्तुष्ट किया ॥ ११-१२ ॥

तदनन्तर काशिराज ने सभी मित्रगणों को विदा करके उबटन का अनुलेपन एवं स्नान कराकर विविध प्रकार के श्रेष्ठ आभूषणों तथा वस्त्रों से विनायक को सुसज्जित किया और अपने बन्धु-बान्धवों के साथ उन्हें भोजन कराया। इसके पश्चात् नृपश्रेष्ठ काशिराज ने विनायक के साथ रथ में आरूढ़ होकर वाद्यों की ध्वनि के साथ महर्षि कश्यपजी के श्रेष्ठ आश्रम के लिये प्रस्थान किया ॥ १३–१४१/२

उस समय नगर के सभी लोग अपने-अपने कार्यों को छोड़कर बाहर निकल आये। उन्होंने भोजन करना, पढ़ना, निद्रा, व्यासंग (नानाविध कर्मों में आसक्ति) आदि का परित्याग कर दिया और अपनी वेष-भूषा को पहने बिना ही वे शीघ्रता से पुरी से बाहर निकल आये ॥ १५-१६ ॥ उस समय हजारों बालकों ने उन विनायक को जाकर रोक दिया और वे कहने लगे — ‘आप हमको छोड़कर क्यों जा रहे हैं, क्यों आप इतने निष्ठुर हो गये हैं ? आपने किसी बातचीत के प्रसंग में पहले हमें कभी नहीं बताया था कि ‘मैं वापस जाऊँगा’, हमारे घर में भोजन किये बिना आप अपने आश्रम को क्यों जा रहे हैं ? ‘ ॥ १७-१८ ॥

किसी बालक ने रोते-रोते उनके चरणकमल को पकड़ लिया तो किसी ने प्रेमपूर्वक उनका आलिंगन करके उनके करकमलों को पकड़ लिया ॥ १९ ॥ नगरी की स्त्रियाँ, बालिकाएँ तथा युवावस्था को प्राप्त सभी मुग्धा युवतियाँ अस्त-व्यस्त वेष में ही उन्हें देखने के लिये वैसे ही आ पड़ीं, जैसे कि वर्षाऋतु में समुद्र की ओर जाने वाली सभी नदियाँ समुद्र की ओर प्रवाहित होने लगती हैं, जैसे हंस मोतियों की राशि की ओर दौड़ पड़ते हैं, और जैसे मरुद्गण देवराज इन्द्र की ओर चल पड़ते हैं ॥ २०-२१ ॥ वे स्त्रियाँ अत्यन्त प्रीति से समन्वित होकर कहने लगीं — ‘ हे विनायक ! आप अकस्मात् स्नेह का परित्यागकर क्यों जा रहे हैं? आज आप इतने निष्ठुर कैसे हो गये हैं ?’ ॥ २२ ॥

ब्रह्माजी बोले — थके हुए, दौड़ते हुए, फिसलते हुए तथा गिरते हुए उन सभी जनों को देखकर राजासहित विनायक रथ से उतर पड़े ॥ २३ ॥ राजा के साथ नगर से शीघ्र ही बाहर आये वे विनायक एक मुहूर्त वहीं ठहरकर उन सभी से बोले — ‘इस समय मैं आप सबसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे ऊपर कृपा करना न छोड़ें, आप लोगों के घर आकर वहाँ जो अपराध मुझसे हुए हैं, उन्हें आप क्षमा कर दें। यदि आप लोगों का पुनः दर्शन होगा, तो आप मुझे पहचानने में भूल न करें।’ उनके इस प्रकार के वचनों को सुनकर शोक में निमग्न समस्त पुरवासियों के शरीर में रोमांच हो आया और वे गद्गद वाणी में कहने लगे ॥ २४-२६१/२

लोग बोले — ‘आप समस्त जगत् के पिता हैं, सब पर दया दिखाने वाले हैं, किंतु हमपर आपकी कुछ भी ममता नहीं है। बालक कितने भी अपराध करने वाले क्यों न हों, पिता कभी भी उनका परित्याग नहीं करते। चन्द्रमा कभी उष्ण नहीं होता और सुवर्ण कभी नीला नहीं हो जाता, फिर क्यों आप इतने निष्ठुर हो गये हैं। और क्यों जाने के लिये इतनी उतावली कर रहे हैं ? यदि पहले आप यहाँ आये ही नहीं होते तो आज हमें जो विरहजन्य शोक हो रहा है, वह नहीं होता ॥ २७–२९ ॥ हम सभी के मन को चुराकर आप चले क्यों जा रहे हैं, हमारे मन को [आपके द्वारा ] ले लिये जाने पर हम सब मन के बिना कैसे कार्य करेंगे ? जल के विनष्ट हो जाने पर जलचर जीव कैसे जीयेंगे, यह आप हमें बताइये, प्राण चले जानेपर हमारे शरीर का क्या प्रयोजन है ? यदि ईख से विष निकलने लगे तो फिर उसका क्या प्रतिकार है ? इसलिये आप हम किंकरों को भी अपने साथ वहीं ले चलें, जहाँ आप जा रहे हैं’ ॥ ३०-३२ ॥

उनके वचनों को सुनकर वे विनायक अपने नेत्रों से आँसुओं की धारा बहाते हुए उन सभी स्त्रियों, वृद्धों एवं बालकों से गद्गद वाणी में बोले — ॥ ३३ ॥

विनायकदेव बोले — आपको कभी भी दुखी नहीं होना चाहिये । आपलोगों को मेरा वियोग कभी नहीं होगा; क्योंकि मैं सबकी अन्तरात्मा में निवास करने वाला हूँ, विनाशरहित हूँ और आनन्दस्वरूप हूँ। मुझ निराकार का केवल चिन्तनमात्र करने से आपके मन का समाधान नहीं होगा, अतः आप लोग अपने-अपने घर में मेरी मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करें। हे सज्जनो! आप लोग जब संकट में पड़ें, तब आप मेरा स्मरण करें, मैं आप लोगों को प्रत्यक्ष दर्शन दूँगा और आप लोगों के संकट का विनाश करूँगा ॥ ३४–३६ ॥

ब्रह्माजी बोले — उनका वचन सुनकर सभी नगरनिवासी अत्यन्त आनन्दित हो गये। उन्होंने देव विनायक को प्रणाम किया, उनकी प्रदक्षिणा करके जय- जयकार करते हुए उनकी स्तुति करने लगे ॥ ३७ ॥ तदनन्तर उनकी आज्ञा प्राप्तकर सभी पुरवासी जन अपने-अपने घरों को चले गये, देव विनायक भी माता के दर्शन की लालसा से शीघ्र ही रथपर आरूढ़ होकर काशिराज के साथ आगे चल पड़े ॥ ३८१/२

विनायकने मुँह घुमाकर पीछे नगरनिवासी बालकों की ओर देखा, वे रो रहे थे। उनसे विनायक ने कहा — ‘मैं पुनः आऊँगा, तुम लोग जाओ, तुम्हें कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिये। मैं सत्य बोल रहा हूँ, कभी भी मैं झूठ नहीं बोलता ।’ इस प्रकार समझा-बुझाकर उन्हें लौटाकर वे क्षणभर में ही अपने आश्रम में जा पहुँचे ॥ ३९-४० ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘विनायक का आश्रम की ओर प्रस्थान ‘ नामक इकहत्तरवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७१ ॥

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