श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-42
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-द्विचत्वारिंशोऽध्यायः
बयालीसवाँ अध्याय
इन्द्र द्वारा भगवती लक्ष्मी का षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
महालक्ष्म्याः ध्यानस्तोत्रवर्णनम्

नारदजी बोले — हे प्रभो ! मैंने भगवान् श्रीहरि का कल्याणप्रद गुणानुवाद, उनका उत्तम ज्ञान तथा भगवती लक्ष्मी का अभीष्ट उपाख्यान सुना। अब उन देवी के ध्यान तथा स्तोत्र के विषय में बताइये ॥ १ ॥

श्रीनारायण बोले — [ हे नारद!] प्राचीन काल की बात है। इन्द्र ने क्षीरसमुद्र के तट पर तीर्थस्नान करके दो स्वच्छ वस्त्र धारण करने के बाद कलश की स्थापना करके श्रीगणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव तथा पार्वती — इन छः देवताओं की विधिवत् पूजा की। गन्ध, पुष्प आदि से भक्तिपूर्वक इन देवों की पूजा करके देवेश्वर इन्द्र ने ब्रह्माजी तथा अपने पुरोहित गुरु बृहस्पति के द्वारा निर्दिष्ट विधान अनुसार परम ऐश्वर्यमयी भगवती महालक्ष्मी का आवाहन करके उनकी पूजा की। हे मुने! उस समय उस पावन स्थल पर अनेक मुनि, ब्राह्मणसमुदाय, गुरु बृहस्पति, श्रीहरि, देवगण तथा ज्ञानानन्द भगवान् शिव आदि विराजमान थे ॥ २-५ ॥ हे नारद! इन्द्र ने पारिजात का चन्दन-चर्चित पुष्प लेकर पूर्वकाल में भगवान् श्रीहरि ने ब्रह्माजी को सामवेद में वर्णित जो ध्यान बतलाया था, उसी ध्यान के द्वारा भगवती महालक्ष्मी का ध्यान करके उनका पूजन किया, मैं वही ध्यान तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ॥ ६-७ ॥

सहस्रदलपद्मस्थकर्णिकावासिनीं पराम् ।
शरत्पार्वणकोटीन्दुप्रभामुष्टिकरां पराम् ॥ ८ ॥
स्वतेजसा प्रज्वलन्तीं सुखदृश्यां मनोहराम् ।
प्रतप्तकाञ्चननिभशोभां मूर्तिमतीं सतीम् ॥ ९ ॥
रत्‍नभूषणभूषाढ्यां शोभितां पीतवाससा ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ॥ १० ॥
सर्वसम्पत्प्रदात्रीं च महालक्ष्मीं भजे शुभाम् ।

‘ये पराम्बा महालक्ष्मी सहस्रदल वाले कमल पर स्थित कर्णिका के ऊपर विराजमान हैं, वे श्रेष्ठ हरण करने वाली हैं, अपने ही तेज से देदीप्यमान हैं, भगवती शरत्पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमाओं की कान्ति का इन मनोहर देवी का दर्शन अत्यन्त सुखप्रद है, ये साध्वी महालक्ष्मी मूर्तिमान् होकर तपाये हुए सुवर्ण के समान शोभित हो रही हैं, रत्नमय आभूषणों से अलंकृत तथा पीताम्बर से सुशोभित हो रही हैं, इनके प्रसन्न मुखमण्डल पर मन्द मन्द मुसकान विराज रही है, ये सर्वदा स्थिर रहने वाले यौवन से सम्पन्न हैं- ऐसी कल्याणमयी तथा सर्वसम्पत्तिदायिनी महालक्ष्मी की मैं उपासना करता हूँ’ ॥ ८–१०१/२

हे नारद! इस प्रकार ध्यान करके इन्द्र ने ब्रह्माजी के कथनानुसार सोलह पूजनोपचारों से अनेक गुणों वाली उन भगवती महालक्ष्मी की पूजा की, उन्होंने भक्ति के साथ मन्त्रपूर्वक विधान के अनुसार प्रत्येक उपचार अर्पित किया । इन्द्र ने विविध प्रकार के प्रशस्त, उत्कृष्ट तथा श्रेष्ठ उपचार इस प्रकार समर्पित किये ॥ ११-१२१/२

हे महालक्ष्मि ! विश्वकर्मा के द्वारा निर्मित अमूल्य रत्नसारस्वरूप इस विचित्र आसन को ग्रहण कीजिये ॥ १३१/२

हे कमलालये! पापरूपी ईंधन को जलाने के लिये वह्निस्वरूप, सबके द्वारा वन्दित तथा अभिलषित और परम पवित्र इस गंगाजल को [ पाद्य के रूप में] स्वीकार कीजिये ॥ १४१/२

हे पद्मवासिनि! पुष्प, चन्दन, दूर्वा आदि से युक्त इस शंख में स्थित गंगाजल को सुन्दर अर्घ्य के रूप में ग्रहण कीजिये ॥ १५१/२

हे श्रीहरिप्रिये ! सुगन्धित पुष्पों से सुवासित तैल तथा सुगन्धपूर्ण आमलकीचूर्ण — इन देहसौन्दर्य के बीजरूप स्नानीय उपचारों को आप ग्रहण कीजिये। हे देवि ! कपास तथा रेशम से निर्मित इस वस्त्र को आप स्वीकार कीजिये ॥ १६-१७ ॥

हे देवि ! स्वर्ण तथा रत्नों से निर्मित, देहसौन्दर्य की वृद्धि करने वाले, ऐश्वर्य प्रदान करने वाले, सम्पूर्ण सुन्दरता के कारणस्वरूप तथा शीघ्र ही शोभा प्रदान करने वाले इस श्रेष्ठ रत्नमय आभूषण को अपनी शोभा के लिये आप ग्रहण कीजिये। हे श्रीकृष्णकान्ते ! वृक्ष से रस के रूप में निकले हुए तथा सुगन्धित द्रव्यों से युक्त यह पवित्र धूप आप ग्रहण करें । हे देवि ! सुगन्ध से परिपूर्ण तथा सुखप्रद इस चन्दन को आप स्वीकार कीजिये ॥ १८-२० ॥

हे सुरेश्वरि ! जगत् के लिये चक्षुस्वरूप, अन्धकार दूर करने वाले, सुखरूप तथा परम पवित्र इस दीपक को आप स्वीकार कीजिये ॥ २१ ॥
नाना प्रकार के उपहारस्वरूप अनेकविध रसों से युक्त तथा अत्यन्त स्वादिष्ट इस नैवेद्य को आप स्वीकार कीजिये । अन्न ब्रह्मस्वरूप होता है, यह प्राणरक्षा का परम कारण है, तुष्टि तथा पुष्टि प्रदान करता है, अतः हे देवि ! आप इस अन्न को ग्रहण कीजिये ॥ २२-२३ ॥
हे महालक्ष्मि ! शर्करा और गोघृत मिलाकर अगहनी चावल से तैयार किये गये इस स्वादिष्ट पक्वान्न को परमान्न के रूप में आप स्वीकार करें। हे परमेश्वरि ! शर्करा और घृत में पकाया गया यह स्वादिष्ट तथा अत्यन्त मनोहर स्वस्तिक नामक नैवेद्य आप ग्रहण करें ॥ २४-२५ ॥
अच्युतप्रिये ! ये अनेक प्रका रके सुन्दर पक्वान्न तथा फल और सुरभीधेनु के स्तन से दुहे गये मृत्युलोक के लिये अमृतस्वरूप, अत्यन्त मनोहर तथा सुस्वादु दुग्ध को आप स्वीकार कीजिये । ईख से निकाले गये अत्यन्त स्वादिष्ट रस को अग्नि पर पकाकर निर्मित किये गये इस परम स्वादिष्ट गुड़ को आप स्वीकार कीजिये। हे देवि ! जौ, गेहूँ आदि के चूर्ण में गुड़ तथा गाय का घृत मिलाकर भली-भाँति पकाये गये इस मिष्टान्न को आप ग्रहण कीजिये। मैंने धान्य के चूर्ण से बनाये गये तथा स्वस्तिक आदि से युक्त यह पका हुआ नैवेद्य आपको भक्तिपूर्वक अर्पण किया है, इसे स्वीकार करें ॥ २६-२९१/२
हे कमले ! शीतल वायु प्रदान करनेवाला और उष्णकाल में परम सुखदायक यह पंखा तथा स्वच्छ चँवर ग्रहण कीजिये ॥ ३०१/२
कर्पूर आदि सुगन्धित पदार्थों से सुवासित तथा जिह्वा की जड़ता को दूर करने वाले इस उत्तम ताम्बूल को आप स्वीकार करें ॥ ३११/२
हे देवि! प्यास बुझाने वाले, अत्यन्त शीतल, सुवासित तथा जगत् के लिये जीवनस्वरूप इस जल को स्वीकार कीजिये ॥ ३२१/२
हे देवि ! देहसौन्दर्य के मूल कारण तथा सदा शोभा बढ़ाने वाले इस सूती तथा रेशमी वस्त्र को आप ग्रहण करें ॥ ३३१/२
हे देवि ! रक्तस्वर्णनिर्मित, शरीर की शोभा आदि की वृद्धि करने वाला, सौन्दर्य का आधार तथा कान्तिवर्धक यह आभूषण ग्रहण कीजिये ॥ ३४१/२
हे देवि ! विविध ऋतुओं के पुष्पों से गूँथी गयी, अत्यधिक शोभा के आश्रयस्वरूप तथा देवराज इन्द्र के लिये भी परम प्रिय इस श्रेष्ठ तथा पवित्र माला को आप स्वीकार करें ॥ ३५१/२
हे देवि ! सुगन्धित द्रव्यों से सम्पन्न, सभी मंगलों का भी मंगल करने वाले, शुद्धि प्रदान करने वाले तथा शुद्धस्वरूप इस दिव्य चन्दन को आप ग्रहण कीजिये ॥ ३६१/२
हे कृष्णकान्ते ! यह पवित्र तीर्थजल स्वयं शुद्ध है तथा दूसरों को भी सदा शुद्धि प्रदान करने वाला है, इस दिव्य जल को आप आचमन के रूप में ग्रहण कीजिये ॥ ३७१/२
हे देवि ! अमूल्य रत्नों से निर्मित, पुष्प तथा चन्दन से चर्चित और वस्त्र – आभूषण तथा श्रृंगार- सामग्री से सम्पन्न इस दिव्य शय्या को आप स्वीकार करें । हे देवि ! इस पृथ्वी पर जो भी अपूर्व तथा दुर्लभ द्रव्य शरीर की शोभावृद्धि के योग्य हैं, उन समस्त द्रव्यों को आपको अर्पण कर रहा हूँ, आप ग्रहण कीजिये ॥ ३८-३९१/२

[ हे मुने!] मूलमन्त्र पढ़ते हुए ये उपचार भगवती को समर्पित करके देवराज इन्द्र ने विधान के अनुसार भक्तिपूर्वक उनके मूल मन्त्र का दस लाख जप किया। उस दस लाख जप से इन्द्र को मन्त्र की सिद्धि हो गयी ॥ ४०-४१ ॥ सभी के लिये कल्पवृक्ष के समान यह मूलमन्त्र उन्हें ब्रह्माजी के द्वारा प्रदान किया गया था । पूर्व में लक्ष्मीबीज (श्रीं), मायाबीज ( ह्रीं), कामबीज (क्लीं) और वाणीबीज (ऐं) — का प्रयोग करके कमलवासिनी इस शब्द के अन्त में ‘ङे’ (चतुर्थी) विभक्ति लगाकर पुनः ‘स्वाहा’ शब्द जोड़ देने पर ‘ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्यै स्वाहा’ — यही मन्त्र वैदिक मन्त्रराज के रूप में प्रसिद्ध है। कुबेर ने इसी मन्त्र के द्वारा परम ऐश्वर्य प्राप्त किया था और दक्षसावर्णि नामक मनु ने राजराजेश्वर का पद प्राप्त कर लिया था । मंगल इसी मन्त्र के प्रभाव से सात द्वीपों के राजा हुए थे । हे नारद! प्रियव्रत, उत्तानपाद और केदार — ये सभी इसी मन्त्र के प्रभाव से परम सिद्ध राजाधिराज बने ॥ ४२–४५ ॥

इस मन्त्र के सिद्ध हो जाने पर भगवती महालक्ष्मी ने इन्द्र को दर्शन दिया। उस समय वे वरदायिनी भगवती सर्वोत्तम रत्न से निर्मित विमान पर विराजमान थीं, उन्होंने अपने तेज से सात द्वीपोंवाली सम्पूर्ण पृथ्वी को व्याप्त कर रखा था, उनका श्रीविग्रह श्वेत चम्पा के पुष्प की आभा के समान था, वे रत्नमय आभूषणों से सुशोभित थीं, उनका मुखमण्डल मन्द मन्द मुसकान तथा प्रसन्नता से युक्त था, वे भक्तों पर कृपा करने के लिये परम आतुर थीं, उन्होंने रत्नमयी माला धारण कर रखी थी और वे करोड़ों चन्द्रमाओं के समान कान्ति से युक्त थीं । उन शान्त स्वभाववाली जगज्जननी भगवती महालक्ष्मी को देखकर इन्द्र के सभी अंग पुलकित हो उठे और वे दोनों हाथ जोड़कर अश्रुपूरित नेत्रों से ब्रह्माजी से प्राप्त तथा सम्पूर्ण अभीष्ट प्रदान करने वाले इस वैदिक स्तोत्रराज के द्वारा उन महालक्ष्मी की स्तुति करने लगे ॥ ४६–५० ॥

॥ पुरन्दर उवाच ॥
नमः कमलवासिन्यै नारायण्यै नमो नमः ।
कृष्णप्रियायै सततं महालक्ष्यै नमो नमः ॥ ५१ ॥
पद्मपत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नमः ।
पद्मासनायै पद्मिन्यै वैष्णव्यै च नमो नमः ॥ ५२ ॥
सर्वसम्पत्स्वरूपिण्यै सर्वाराध्यै नमो नमः ।
हरिभक्तिप्रदात्र्यै च हर्षदात्र्यै नमो नमः ॥ ५३ ॥
कृष्णवक्षःस्थितायै च कृष्णेशायै नमो नमः ।
चन्द्रशोभास्वरूपायै रत्‍नपद्मे च शोभने ॥ ५४ ॥
सम्पत्त्यधिष्ठातृदेव्यै महादेव्यै नमो नमः ।
नमो वृद्धिस्वरूपायै वृद्धिदायै नमो नमः ॥ ५५ ॥
वैकुण्ठे या महालक्ष्मीर्या लक्ष्मीः क्षीरसागरे ।
स्वर्गलक्ष्मीरिन्द्रगेहे राजलक्ष्मीर्नृपालये ॥ ५६ ॥
गृहलक्ष्मीश्च गृहिणां गेहे च गृहदेवता ।
सुरभिः सागरे जाता दक्षिणा यज्ञकामिनी ॥ ५७ ॥
अदितिर्देवमाता त्वं कमला कमलालया ।
स्वाहा त्वं च हविर्दाने कव्यदाने स्वधा स्मृता ॥ ५८ ॥
त्वं हि विष्णुस्वरूपा च सर्वाधारा वसुन्धरा ।
शुद्धसत्त्वस्वरूपा त्वं नारायणपरायणा ॥ ५९ ॥
क्रोधहिंसावर्जिता च वरदा शारदा शुभा ।
परमार्थप्रदा त्वं च हरिदास्यप्रदा परा ॥ ६० ॥
यया विना जगत्सर्वं भस्मीभूतमसारकम् ।
जीवन्मृतं च विश्वं च शश्वत्सर्वं यया विना ॥ ६१ ॥
सर्वेषां च परा माता सर्वबान्धवरूपिणी ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां त्वं च कारणरूपिणी ॥ ६२ ॥
यथा माता स्तनान्धानां शिशूनां शैशवे सदा ।
तथा त्वं सर्वदा माता सर्वेषां सर्वरूपतः ॥ ६३ ॥
मातृहीनः स्तनान्धस्तु स च जीवति दैवतः ।
त्वया हीनो जनः कोऽपि न जीवत्येव निश्चितम् ॥ ६४ ॥
सुप्रसन्नस्वरूपा त्वं मां प्रसन्ना भवाम्बिके ।
वैरिग्रस्तं च विषयं देहि मह्यं सनातनि ॥ ६५ ॥
अहं यावत्त्वया हीनो बन्धुहीनश्च भिक्षुकः ।
सर्वसम्पद्विहीनश्च तावदेव हरिप्रिये ॥ ६६ ॥
ज्ञानं देहि च धर्मं च सर्वसौभाग्यमीप्सितम् ।
प्रभावञ्च प्रतापं च सर्वाधिकारमेव च ॥ ६७ ॥
जयं पराक्रमं युद्धे परमैश्वर्यमेव च ।

पुरन्दर बोले — भगवती कमलवासिनी को नमस्कार है। देवी नारायणी को नमस्कार है, कृष्णप्रिया महालक्ष्मी को निरन्तर बार – बार नमस्कार है ॥ ५१ ॥ कमलपत्र के समान नेत्रवाली और कमल के समान मुख वाली को बार-बार नमस्कार है। पद्मासना, पद्मिनी और वैष्णवी को बार-बार नमस्कार है ॥ ५२ ॥ सर्वसम्पत्स्वरूपा तथा सबकी आराध्या देवी को बार-बार नमस्कार है । भगवान् श्रीहरि की भक्ति प्रदान करने वाली तथा हर्षदायिनी भगवती लक्ष्मी को बार-बार नमस्कार है ॥ ५३ ॥ हे रत्नपद्मे ! हे शोभने ! श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल पर सुशोभित होने वाली तथा चन्द्रमा की शोभा धारण करने वाली आप कृष्णेश्वरी को बार-बार नमस्कार है ॥ ५४ ॥ सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी को नमस्कार है। महादेवी को नमस्कार है । वृद्धिस्वरूपिणी भगवती महालक्ष्मी को नमस्कार है । वृद्धि प्रदान करने वाली महालक्ष्मी को बार-बार नमस्कार है ॥ ५५ ॥

हे भगवति! आप वैकुण्ठ में महालक्ष्मी, क्षीरसागर में लक्ष्मी, इन्द्र के भवन में स्वर्गलक्ष्मी, राजाओं के भवन में राजलक्ष्मी, गृहस्थों के घर में गृहलक्ष्मी और गृहदेवता, सागर के यहाँ सुरभि तथा यज्ञ के पास दक्षिणा के रूप में विराजमान रहती हैं ॥ ५६-५७ ॥ आप अदिति, देवमाता, कमला तथा कमलालया नाम से प्रसिद्ध हैं और हवि प्रदान करते समय स्वाहा तथा कव्य प्रदान करते समय स्वधा नाम से कही गयी हैं ॥ ५८ ॥ सम्पूर्ण जगत् ‌को धारण करने वाली विष्णुस्वरूपिणी पृथ्वी आप ही हैं। आप भगवान् नारायण की आराधना में सदा तत्पर रहने वाली तथा विशुद्ध सत्त्वसम्पन्न हैं । आप क्रोध तथा हिंसा से रहित, वर प्रदान करने वाली, बुद्धि प्रदान करने वाली, मंगलमयी, श्रेष्ठ, परमार्थ तथा भगवान्‌ का दास्य प्रदान करने वाली हैं ॥ ५९-६० ॥ आपके बिना सम्पूर्ण जगत् भस्मीभूत तथा सारहीन है। आपके बिना यह समग्र विश्व सर्वथा जीते-जी मरे हुए के समान है ॥ ६१ ॥ आप समस्त प्राणियों की श्रेष्ठ माता, सबकी बान्धवस्वरूपिणी और धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष (पुरुषार्थचतुष्टय) – की मूल कारण हैं ॥ ६२ ॥ जिस प्रकार माता शैशवावस्था में स्तनपायी शिशुओं की सदा रक्षा करती है, उसी प्रकार आप सभी प्राणियों की माता के रूप में सब प्रकार से उनकी रक्षा करती हैं ॥ ६३ ॥ स्तनपायी शिशु माता के न रहने पर भी दैवयोग से जी भी सकता है, किंतु आपसे रहित होकर कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता — यह निश्चित है । हे अम्बिके! आप अत्यन्त प्रसन्नतापूर्ण स्वरूपवाली हैं, अतः मुझपर प्रसन्न हों ॥ ६४ ॥

हे सनातनि ! शत्रुओं के द्वारा अधिकृत किया गया मेरा राज्य मुझे पुनः प्राप्त कराइये । हे हरिप्रिये ! मैं जब तक आपके दर्शन से वंचित था; तभी तक बन्धुहीन, भिक्षुक और सम्पूर्ण सम्पदाओं से विहीन था। अब आप मुझे ज्ञान, धर्म, पूर्ण सौभाग्य, सम्पूर्ण अभीष्ट, प्रभाव, प्रताप, सम्पूर्ण अधिकार, परम ऐश्वर्य, पराक्रम तथा युद्ध में विजय प्रदान कीजिये ॥ ६५–६७१/२

[ हे नारद!] ऐसा कहकर सभी देवताओं के साथ इन्द्र अश्रुपूरित नेत्रों से तथा मस्तक झुकाकर भगवती को बार-बार प्रणाम किया । ब्रह्मा, शंकर, शेषनाग, धर्म तथा केशव – इन सभी ने देवताओं के कल्याणहेतु भगवती से बार-बार प्रार्थना की ॥ ६८-६९१/२

तब देवसभा में परम प्रसन्न होकर भगवती महालक्ष्मी ने देवताओं को वर प्रदान करके भगवान् श्रीकृष्ण को मनोहर पुष्पमाला समर्पित कर दी। हे नारद! तदनन्तर सभी देवता प्रसन्न होकर अपने- अपने स्थान को चले गये और प्रसन्नचित्त महालक्ष्मी भी क्षीरसागर में शयन करने वाले भगवान् श्रीहरि के लोक को चली गयीं । हे नारद! देवताओं को आशीर्वाद देकर ब्रह्मा और शिव भी प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने लोक को चले गये ॥ ७०–७२१/२

[ हे नारद!] जो मनुष्य तीनों सन्ध्याकाल में इस परम पवित्र स्तोत्र का पाठ करता है, वह कुबेर के समान महान् राजराजेश्वर हो जाता है । पाँच लाख जप करने पर मनुष्यों के लिये यह स्तोत्र सिद्ध हो जाता है । यदि कोई मनुष्य एक मास तक निरन्तर इस सिद्ध स्तोत्र का पाठ करे, तो वह परम सुखी तथा राजेन्द्र हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ७३–७५ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘महालक्ष्मी का ध्यानस्तोत्रवर्णन’ नामक बयालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४२ ॥

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