May 27, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-50 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-पञ्चाशत्तमोऽध्यायः पचासवाँ अध्याय भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गा के मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवन का वर्णन देव्या आवरणपूजाविधिवर्णनम् नारदजी बोले — [ हे भगवन् ! ] मूलप्रकृतिरूपा देवियों का सारा आख्यान मैंने यथार्थरूप में सुन लिया, जिसका श्रवण करके प्राणी जन्म-मरणरूपी भवबन्धन से मुक्त हो जाता है । अब मैं भगवती राधा तथा दुर्गा का वेदगोपित रहस्य तथा वेदोक्त पूजा-विधान सुनना चाहता हूँ ॥ १-२ ॥ हे मुनीश्वर ! आपने इन दोनों पराशक्तियों की अद्भुत महिमा बतायी, उसे सुनकर भला किस पुरुष का मन उनमें लीन नहीं हो जायगा ॥ ३ ॥ [हे भगवन्!] यह सम्पूर्ण जगत् जिनका अंश है, यह चराचर विश्व जिनसे नियन्त्रित है तथा जिनकी भक्ति प्राणियों की मुक्ति हो जाती है, उन देवियों के पूजा-विधान के विषय में अब आप मुझे बताइये ॥ ४ ॥ श्रीनारायण बोले — हे नारद! सुनिये, मैं वह वेदवर्णित परम सारस्वरूप तथा परात्पर रहस्य आपको बता रहा हूँ, जिसे मैंने किसी को भी नहीं बताया है । इसे सुनकर आप किसी दूसरे से मत कहियेगा; क्योंकि यह परम गोपनीय है ॥ ५ ॥ जगत् की उत्पत्ति के समय मूलप्रकृतिस्वरूपिणी ज्ञानमयी भगवती से प्राण तथा बुद्धि की अधिष्ठात्री देवियों के रूप में दो शक्तियाँ प्रकट हुईं। [ श्रीराधा भगवान् श्रीकृष्ण के प्राणों की तथा श्रीदुर्गा उनकी बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं ।] वे शक्तियाँ ही सम्पूर्ण जीवों को सदा नियन्त्रित तथा प्रेरित करती हैं । विराट् आदि चराचरसहित सम्पूर्ण जगत् उन्हीं शक्तियों के अधीन है ॥ ६-७१/२ ॥ जबतक उन दोनों शक्तियों की कृपा नहीं होती, तबतक मोक्ष दुर्लभ रहता है । अतएव उन दोनों की प्रसन्नता के लिये उनकी निरन्तर उपासना करनी चाहिये ॥ ८१/२ ॥ हे नारद! उनमें आप पहले राधिकामन्त्र को भक्तिपूर्वक सुनिये, जिस परात्पर मन्त्र को ब्रह्मा, विष्णु आदि भी सदा जपते रहते हैं । ‘ श्रीराधा’ इस शब्द के अन्त में चतुर्थी विभक्ति लगाकर उसके आगे अग्निपत्नी ‘स्वाहा’ पद जोड़ देने पर ‘श्रीराधायै स्वाहा’ नामक यह षडक्षर महामन्त्र धर्म, अर्थ आदि को प्रकाशित करने वाला है । इसी राधिकामन्त्र के आदि में मायाबीज (ह्रीं) – से युक्त होकर ह्रीं श्रीराधायै स्वाहा – यह वाञ्छाचिन्तामणि मन्त्र कहा गया है। इस मन्त्र का माहात्म्य करोड़ों मुखों तथा जिह्वाओं के द्वारा भी नहीं कहा जा सकता है ॥ ९–१२ ॥ सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्ण ने गोलोक में रासमण्डल में मूलदेवी भगवती श्रीराधा के उपदेश करने पर भक्तिपूर्वक इस मन्त्र को ग्रहण किया था। तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण ने विष्णु को, विष्णु ने विराट् ब्रह्मा को, ब्रह्मा ने धर्मदेव को और धर्मदेव ने मुझको इस मन्त्र का उपदेश किया। इस प्रकार यह परम्परा चली आयी ॥ १३-१४ ॥ मैं उस मन्त्र का जप करता हूँ, इसी कारण से मैं ऋषिरूप में पूजित हूँ । ब्रह्मा आदि समस्त देवता भी सदा प्रसन्नतापूर्वक उन श्रीराधिका का ध्यान करते रहते हैं। राधा की पूजा के बिना श्रीकृष्ण की पूजा करने का अधिकार नहीं है, अतः सभी वैष्णवों को राधिका का पूजन [ अवश्य ] करना चाहिये ॥ १५-१६ ॥ वे भगवती राधिका भगवान् श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं, अतः वे विभु उनके अधीन रहते हैं । वे श्रीकृष्ण के रास की सदा स्वामिनी हैं, इसलिये श्रीकृष्ण उन राधिका के बिना नहीं रह सकते। वे [प्राणियों के ] सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करती हैं, इसलिये वे ‘राधा’ – इस नाम से विख्यात हैं ॥ १७१/२ ॥ यहाँ कहे गये सभी मन्त्रों का ऋषि मैं नारायण ही हूँ, उनमें राधामन्त्र का देवी गायत्री छन्द है तथा राधिका देवता हैं, तार (प्रणव) बीज है और देवी भुवनेश्वरी को शक्ति कहा गया है। मूलमन्त्र की आवृत्ति से षडंगन्यास कर लेना चाहिये ॥ १८-१९१/२ ॥ हे मुने! इसके बाद सामवेद में वर्णित पूर्वोक्त रीति अनुसार रासेश्वरी महादेवी राधिका का ध्यान करना चाहिये । [ ध्यान इस प्रकार है ] — श्वेतचम्पकवर्णाभां शरदिन्दुसमाननाम् ॥ २१ ॥ कोटिचन्द्रप्रतीकाशां शरदम्भोजलोचनाम् । बिम्बाधरां पृथुश्रोणीं काञ्चीयुतनितम्बिनीम् ॥ २२ ॥ कुन्दपङ्क्तिसमानाभदन्तपङ्क्तिविराजिताम् । क्षौमाम्बरपरीधानां वह्निशुद्धांशुकान्विताम् ॥ २३ ॥ ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां करिकुम्भयुगस्तनीम् । सदा द्वादशवर्षीयां रत्नभूषणभूषिताम् ॥ २४ ॥ शृङ्गारसिन्धुलहरीं भक्तानुग्रहकातराम् । मल्लिकामालतीमालाकेशपाशविराजिताम् ॥ २५ ॥ सुकुमाराङ्गलतिकां रासमण्डलमध्यगाम् । वराभयकरां शान्तां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ॥ २६ ॥ रत्नसिंहासनासीनां गोपीमण्डलनायिकाम् । कृष्णप्राणाधिकां वेदबोधितां परमेश्वरीम् ॥ २७ ॥ ‘ परमेश्वरी श्रीराधा श्वेत चम्पा के वर्ण के समान आभावाली हैं, शरत्कालीन चन्द्रमा के समान मुखवाली हैं, इनके श्रीविग्रह की कान्ति करोड़ों चन्द्रों की प्रभा के समान है, ये शरद् ऋतु खिले हुए कमल के समान नेत्रों वाली हैं, बिम्बाफल के समान ओष्ठ वाली तथा स्थूल श्रोणी वाली हैं, करधनी से सुशोभित नितम्बदेशवाली हैं । कुन्द-पुष्पों की पंक्ति के सदृश आभावाली दन्तपंक्ति से सुशोभित हैं, इन्होंने अग्नि के समान विशुद्ध रेशमी वस्त्र धारण कर रखा है, ये मन्द मन्द मुसकानयुक्त प्रसन्न मुखमण्डल वाली हैं, इनके दोनों वक्षःस्थल हाथी मस्तक के समान विशाल हैं, ये सदा बारह वर्ष की अवस्था वाली प्रतीत होती हैं, रत्नमय आभूषणों से अलंकृत हैं, शृंगारसिन्धु की तरंगों के समान हैं, भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये आतुर हैं, मल्लिका तथा मालती के पुष्पों की मालाओं से युक्त केशपाश से सुशोभित हो रही हैं, इनके सुकुमार अंगों में मोतियों की लड़ियाँ शोभा दे रही हैं, ये रासमण्डल के मध्यभाग में विराजमान हैं, इन्होंने अपने हाथों में वर तथा अभय मुद्राओं को धारण कर रखा है, ये शान्त स्वभाव वाली हैं, सदा शाश्वत यौवन से सम्पन्न हैं, रत्ननिर्मित सिंहासन पर विराजमान हैं, समस्त गोपियों की स्वामिनी हैं, ये भगवान् श्रीकृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं और वेदों में इन परमेश्वरी राधिका की महिमा का वर्णन हुआ है’ ॥ २०–२७ ॥ इस प्रकार हृदयदेश में ध्यान करके बाहर शालग्रामशिला, कलश अथवा आठ दलवाले यन्त्रपर विधानपूर्वक देवी राधिका की पूजा करनी चाहिये ॥ २८ ॥ देवी राधिका का आवाहन करने के पश्चात् आसन आदि समर्पण करे। मूलमन्त्र का सम्यक् उच्चारण करके ही आसन आदि वस्तुएँ भगवती के सम्मुख उपस्थित करनी चाहिये । पाद्य-जल उनके चरणों में अर्पण करना चाहिये । उनके मस्तक पर अर्घ्य देने का विधान बताया गया है। मूलमन्त्र से तीन बार मुख में आचमन कराना चाहिये । तत्पश्चात् मधुपर्क देकर श्रीराधा के लिये एक पयस्विनी (दूध देने वाली) गौ प्रदान करनी चाहिये। तदनन्तर उन्हें स्नानगृह में ले जाकर वहीं पर उनकी भावना करे ॥ २९–३१ ॥ तैल आदि सुगन्धित द्रव्यों से विधिपूर्वक स्नान कराने के पश्चात् दो वस्त्र अर्पण करे । तदनन्तर नानाविध आभूषणों से अलंकृत करके चन्दन समर्पित करे। इसके बाद तुलसी की मंजरी से युक्त अनेक प्रकार की पुष्पमालाएँ और पारिजात तथा शतदल कमल के पुष्प आदि समर्पित करे ॥ ३२-३३ ॥ तदनन्तर प्रधान देवता उन भगवती की पवित्र आवरण- पूजा सम्पन्न करनी चाहिये। अग्निकोण, ईशानकोण, नैर्ऋत्यकोण, वायव्यकोण तथा पूर्व आदि दिशाओं में भगवती राधिका के अंगपूजन का विधान है । इसके बाद अष्टदल यन्त्र को आगे करके दक्षिणावर्त क्रम से पूर्व से प्रारम्भ करके पूजन करे । बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि अष्टदल यन्त्र के पूर्वदिशा वाले दल में मालावती, अग्निकोण में माधवी, दक्षिण में रत्नमाला, नैर्ऋत्यकोण में सुशीला, पश्चिम में शशिकला, वायव्यकोण में पारिजाता, उत्तर में परावती का पूजन करे तथा ईशानकोण में सुन्दरी प्रियकारिणी की पूजा करे । यन्त्र पर दल के बाहर ब्राह्मी आदि शक्तियों की तथा भूपुर में दिक्पालों और वज्र आदि आयुधों का अर्चन करे – इस विधि से भगवती श्रीराधिका का पूजन करना चाहिये ॥ ३४–३८ ॥ तत्पश्चात् बुद्धिमान् पुरुष को राजोपचारसहित गन्ध आदि पूजनोपचारों से आवरणों सहित भगवती. राधिका की पूजा करनी चाहिये। इसके बाद सहस्रनामस्तोत्र से देवेश्वरी राधा की स्तुति करनी चाहिये और मन्त्र का एक हजार जप भी नित्य प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ॥ ३९-४० ॥ जो मनुष्य इस विधि से रासेश्वरी परात्परा राधिका की पूजा करता है, वह विष्णुतुल्य हो जाता है और गोलोक में जाकर सदा वास करता है ॥ ४१ ॥ जो बुद्धिमान् पुरुष कार्तिक पूर्णिमा तिथि को भगवती श्रीराधा का जन्मोत्सव मनाता है, उसे रासेश्वरी परमा श्रीराधिका अपना सान्निध्य प्रदान कर देती हैं ॥ ४२ ॥ गोलोक सदा निवास करने वाली भगवती श्रीराधा किसी कारण से ही वृन्दावन में वृषभानु की पुत्री के रूप में आविर्भूत हुईं ॥ ४३ ॥ यहाँ कहे गये मन्त्रों की वर्णसंख्या के अनुसार पुरश्चरण – क्रिया बतायी गयी है। इसमें जपे गये मन्त्र के दशांश से हवन करना चाहिये, भक्ति-भावपूर्वक दुग्ध, मधु और घृत — इन तीन मधुर पदार्थों से मिश्रित तिलों से आहुति प्रदान करनी चाहिये ॥ ४४१/२ ॥ नारदजी बोले — हे मुने ! अब आप वह स्तोत्र बताइये, जिससे भगवती श्रीराधि का भलीभाँति प्रसन्न हो जाती हैं ॥ ४५ ॥ ॥ श्रीनारायण उवाच ॥ नमस्ते परमेशानि रासमण्डलवासिनि । रासेश्वरि नमस्तेऽस्तु कृष्णप्राणाधिकप्रिये ॥ ४६ ॥ नमस्त्रैलोक्यजननि प्रसीद करुणार्णवे । ब्रह्मविष्ण्वादिभिर्देवैर्वन्द्यमानपदाम्बुजे ॥ ४७ ॥ नमः सरस्वतीरूपे नमः सावित्रि शङ्करि । गङ्गापद्मावतीरूपे षष्ठि मङ्गलचण्डिके ॥ ४८ ॥ नमस्ते तुलसीरूपे नमो लक्ष्मीस्वरूपिणि । नमो दुर्गे भगवति नमस्ते सर्वरूपिणि ॥ ४९ ॥ मूलप्रकृतिरूपां त्वां भजामः करुणार्णवाम् । संसारसागरादस्मानुद्धराम्ब दयां कुरु ॥ ५० ॥ इदं स्तोत्रं त्रिसन्ध्यं यः पठेद्राधां स्मरन्नरः । न तस्य दुर्लभं किञ्चित्कदाचिच्च भविष्यति ॥ ५१ ॥ देहान्ते च वसेन्नित्यं गोलोके रासमण्डले । इदं रहस्यं परमं न चाख्येयं तु कस्यचित् ॥ ५२ ॥ श्रीनारायण बोले — [ स्तोत्र इस प्रकार है — ] रासमण्डल में निवास करने वाली हे परमेश्वरि ! आपको नमस्कार है । कृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हे रासेश्वरि! आपको नमस्कार है ॥ ४६ ॥ ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं के द्वारा वन्दित चरणकमल वाली हे त्रैलोक्यजननि ! आपको नमस्कार है । हे करुणार्णवे ! आप मुझपर प्रसन्न होइये ॥ ४७ ॥ हे सरस्वतीरूपे ! आपको नमस्कार है । हे सावित्रि ! हे शंकरि ! हे गंगा-पद्मावतीरूपे ! हे षष्ठि ! हे मंगलचण्डिके ! आपको नमस्कार है ॥ ४८ ॥ हे तुलसीरूपे ! आपको नमस्कार है । हे लक्ष्मीस्वरूपिणि ! आपको नमस्कार है। हे दुर्गे ! हे भगवति ! आपको नमस्कार है । है सर्वरूपिणि! आपको नमस्कार है ॥ ४९ ॥ अम्ब! मूलप्रकृतिस्वरूपिणी तथा करुणासिन्धु आप भगवती की हम उपासना करते हैं, संसारसागर से हमारा उद्धार कीजिये, दया कीजिये ॥ ५० ॥ जो मनुष्य तीनों कालों (प्रातः, मध्याह्न, सायं ) – में श्रीराधिका का स्मरण करते हुए इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके लिये कोई भी वस्तु कभी भी दुर्लभ नहीं रहती । वह देह त्याग के अनन्तर गोलोक में रासमण्डल में निरन्तर निवास करता है । [ हे मुने ! ] इस परम रहस्य को किसी के समक्ष प्रकाशित नहीं करना चाहिये ॥ ५१-५२ ॥ हे विप्रवर! अब आप उन भगवती दुर्गा का पूजा-विधान सुनिये, जिनके स्मरणमात्र से घोर विपत्तियाँ भाग जाती हैं ॥ ५३ ॥ जो इन भगवती दुर्गा की उपासना नहीं करता हो, वैसा कोई मनुष्य कहीं नहीं है । ये भगवती सबकी उपास्या, सभी प्राणियों की जननी तथा अत्यन्त अद्भुत शैवी शक्ति हैं । ये समस्त प्राणियों की बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी तथा अन्तर्यामीस्वरूपिणी हैं । ये घोर संकट से रक्षा करती हैं, अतः जगत् में ‘दुर्गा’ नाम से विख्यात हैं ॥ ५४-५५ ॥ सभी वैष्णवों तथा शैवों की ये सदा उपास्य हैं । मूल प्रकृतिरूपिणी हैं और जगत् का सृजन, पालन तथा संहार करनेवाली हैं ॥ ५६ ॥ [हे नारद!] अब मैं उन भगवती दुर्गा के उत्तमोत्तम नवाक्षर मन्त्र का वर्णन करूँगा । सरस्वतीबीज (ऐं), भुवनेश्वरीबीज (ह्रीं) और कामबीज ( क्लीं ) – इन तीनों का आदि में क्रमशः प्रयोग करने के बाद ‘चामुण्डायै ‘ – इस पद को लगाने के अनन्तर ‘विच्चे’ इन दो अक्षरों को जोड़ देने पर बना हुआ ‘ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’ — यह नवाक्षर मन्त्र कहा गया है, जो जप करने वाले मनुष्य के लिये कल्पवृक्ष के समान है ॥ ५७-५८ ॥ ब्रह्मा, विष्णु और शिव इस मन्त्र के ऋषि कहे गये हैं। गायत्री, उष्णिक् और अनुष्टुप् – ये तीनों इस मन्त्र छन्द कहे गये हैं । महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती इस मन्त्र की देवता हैं । रक्तदन्तिका, दुर्गा तथा भ्रामरी — इस मन्त्र के बीज हैं । नन्दा, शाकम्भरी और भीमा — ये देवियाँ इस मन्त्र की शक्तियाँ कही गयी हैं ॥ ५९-६० ॥ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिये इस मन्त्र का विनियोग किया जाता है। ऋषि, छन्द और देवता का क्रमशः मस्तक पर, मुख में और हृदय में न्यास करना चाहिये। सर्वार्थसिद्धि के लिये दोनों स्तनों में शक्तिबीजों का न्यास करना चाहिये ॥ ६१-६२ ॥ ऐं, ह्रीं क्लीं — तीन बीजमन्त्रों, चार वर्णोंवाले चामुण्डायै, दो वर्णों वाले विच्चे के साथ तथा पूरे मन्त्र के साथ क्रमशः नमः स्वाहा, वषट्, हुम्, वौषट् और फट् — इन छः जातिसंज्ञक वर्णों को लगाकर साधक को शिखा, दोनों नेत्र, दोनों कान, नासिका, मुख और गुदा आदि छः स्थानों में न्यास करना चाहिये; साथ ही सम्पूर्ण मन्त्र से [ सिर से लेकर पैर तक] व्यापक न्यास करना चाहिये ॥ ६३-६४ ॥ [महाकाली का ध्यान — ] खड्गचक्रगदाबाणचापानि परिघं तथा । शूलं भुशुण्डीं च शिरः शङ्खं सन्दधतीं करैः ॥ ६५ ॥ महाकालीं त्रिनयनां नानाभूषणभूषिताम् । नीलाञ्जनसमप्रख्यां दशपादाननां भजे ॥ ६६ ॥ मधुकैटभनाशार्थं यां तुष्टावाम्बुजासनः । ‘हाथों में खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डि, कपाल तथा शंख धारण करने वाली; नानाविध आभूषणों से अलंकृत; नीलांजन के समान कान्ति वाली; दस चरणों तथा दस मुखों वाली एवं तीन नेत्रों वाली भगवती महाकाली की मैं आराधना करता हूँ, जिनका स्तवन कमलासन ब्रह्माजी ने मधु और कैटभ का वध करने के लिये किया था’ — इस प्रकार कामबीजस्वरूपिणी भगवती महाकाली का ध्यान करना चाहिये ॥ ६५–६७ ॥ [ महालक्ष्मी का ध्यान — ] अक्षमालां च परशुं गदेषुकुलिशानि च । पद्मं धनुष्कुण्डिकां च दण्डं शक्तिमसिं तथा ॥ ६८ ॥ चर्माम्बुजं तथा घण्टां सुरापात्रं च शूलकम् । पाशं सुदर्शनं चैव दधतीमरुणप्रभाम् ॥ ६९ ॥ रक्ताम्बुजासनगतां मायाबीजस्वरूपिणीम् । महालक्ष्मीं भजेदेवं महिषासुरमर्दिनीम् ॥ ७० ॥ ‘जो अपने हाथों में अक्षमाला, परशु, गदा, बाण, वज्र, पद्म, धनुष, कुण्डिका, दण्ड, शक्ति, खड्ग, ढाल, कमल, घण्टा, मधुपात्र, शूल, पाश और सुदर्शनचक्र धारण करती हैं; जो अरुण प्रभावाली हैं; रक्त कमल के आसन पर विराजमान हैं तथा मायाबीजस्वरूपिणी हैं’ — इस तरह से महिषासुरमर्दिनी उन महालक्ष्मी का ध्यान करना चाहिये ॥ ६८–७० ॥ [महासरस्वतीका ध्यान – ] घण्टाशूले हलं शङ्खं मुसलं च सुदर्शनम् । धनुर्बाणान् हस्तपद्मैर्दधानां कुन्दसन्निभाम् ॥ ७१ ॥ शुम्भादिदैत्यसंहर्त्रीं वाणीबीजस्वरूपिणीम् । महासरस्वतीं ध्यायेत्सच्चिदानन्दविग्रहाम् ॥ ७२ ॥ ‘जो अपने कर-कमलों में घण्टा, शूल, हल, शंख, मुसल, सुदर्शनचक्र, धनुष तथा बाण धारण करती हैं; कुन्द के समान मनोहर कान्ति वाली हैं; शुम्भ आदि दैत्यों का संहार करने वाली हैं; सच्चिदानन्द-विग्रह से सम्पन्न हैं तथा वाणीबीजस्वरूपिणी हैं’ — उन भगवती महासरस्वती का ध्यान करना चाहिये ॥ ७१-७२ ॥ हे प्राज्ञ ! अब इन भगवती के यन्त्र के विषय में सुनिये। तीन अस्त्रों वाला तथा छः कोणों से युक्त यन्त्र होना चाहिये, उसके चारों ओर अष्टदलकमल हो और कमल में चौबीस पंखुड़ियाँ विद्यमान हों, वह यन्त्र भूगृह से सम्पन्न हो — इस प्रकार के यन्त्र के विषय में चिन्तन करना चाहिये ॥ ७३१/२ ॥ एकाग्रचित्त होकर शालग्राम, कलश, यन्त्र, प्रतिमा, बाणलिंग अथवा सूर्य में भगवती की भावना करके उनका यजन करना चाहिये । जया आदि शक्तियों से सम्पन्न पीठ पर देवी की विधिवत् पूजा करे ॥ ७४-७५ ॥ यन्त्र के पूर्वकोण में सरस्वतीसहित ब्रह्मा की पूजा करे, नैर्ऋत्यकोण में लक्ष्मीसहित विष्णु की पूजा करे तथा वायव्यकोण में पार्वतीसहित भगवान् शिव की पूजा करे । देवी के उत्तर में सिंह की तथा बायीं ओर महिषासुर की पूजा करनी चाहिये । इसके बाद छः कोणों में क्रमशः भगवती नन्दजा, रक्तदन्ता, शाकम्भरी, कल्याणकारिणी दुर्गा, भीमा तथा भ्रामरी का पूजन करना चाहिये। तदनन्तर आठ दलों में ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ऐन्द्री और चामुण्डा की पूजा करनी चाहिये। तत्पश्चात् चौबीस पंखुड़ियों में पूर्व के क्रम से विष्णुमाया, चेतना, बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, छाया, पराशक्ति, तृष्णा, शान्ति, जाति, लज्जा, क्षान्ति, श्रद्धा, कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, वृत्ति, श्रुति, स्मृति, दया, तुष्टि, पुष्टि, माता और भ्रान्ति — इन देवियों की पूजा करनी चाहिये ॥ ७६–८२ ॥ तदनन्तर बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि भूपुर-कोणों में गणेश, क्षेत्रपाल, बटुक और योगिनियों की पूजा करे । दल के बाहर वज्र आदि आयुधों से युक्त इन्द्र आदि देवताओं की भी पूजा करे । इसी रीति से आवरणसहित भगवती दुर्गा की पूजा करे । भगवती की प्रसन्नता के लिये विविध प्रकार के राजसी पूजनोपचार उन्हें अर्पण करने चाहिये । तत्पश्चात् मन्त्रार्थ पर ध्यान रखते हुए नवार्ण मन्त्र का जप करना चाहिये ॥ ८३- ८५ ॥ तदनन्तर भगवती दुर्गा के सामने सप्तशतीस्तोत्र का पाठ करना चाहिये। तीनों लोकों में इस स्तोत्र के सदृश दूसरा कोई भी स्तोत्र नहीं है, इसलिये मनुष्य को इस स्तोत्र के द्वारा प्रतिदिन देवेश्वरी दुर्गा को प्रसन्न करना चाहिये। ऐसा करने वाला मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का आलय बन जाता है ॥ ८६-८७ ॥ विप्र ! इस प्रकार मैंने आपको भगवती दुर्गा के पूजन का विधान बता दिया। इसके द्वारा सबकी कृतार्थता सम्पन्न हो सके, इसीलिये मैंने आपसे इसका वर्णन किया है ॥ ८८ ॥ ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी प्रमुख देवतागण, सभी मनुगण, ज्ञाननिष्ठ मुनि, योगिजन, आश्रमवासी तथा लक्ष्मी आदि देवियाँ — ये सब उन भगवती शिवा का ध्यान करते हैं । जन्म की सफलता तभी समझी जाती है, जब श्रीदुर्गा का स्मरण हो जाय ॥ ८९-९० ॥ भगवती दुर्गा के चरणकमल का ध्यान करके ही चौदहों मनुओं ने मनुपद तथा देवतागणों ने अपना-अपना स्थान प्राप्त किया है ॥ ९१ ॥ इस प्रकार मैंने रहस्यों का भी अति रहस्यस्वरूप यह सारा आख्यान कह दिया । इसमें भगवती प्रकृति के पाँच मुख्य स्वरूपों तथा उनके अंशों का वर्णन है ॥ ९२ ॥ इसका नित्य श्रवण करने से मनुष्य चारों पुरुषार्थ ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) प्राप्त कर लेता है, इसमें सन्देह नहीं है। यह सब मैंने सच – सच कहा है ॥ ९३ ॥ इस रहस्य के प्रभाव से पुत्रहीन व्यक्ति पुत्र तथा विद्याभिलाषी मनुष्य विद्या प्राप्त कर लेता है । इसका श्रवण करके मनुष्य जिस-जिस मनोरथ की पूर्णता की कामना करता है, उस-उसको प्राप्त कर लेता है ॥ ९४ ॥ नवरात्र में एकाग्रचित्त होकर भगवती दुर्गा के सम्मुख इसका पाठ करना चाहिये । जगद्धात्री भगवती दुर्गा इससे निश्चय ही प्रसन्न हो जाती हैं ॥ ९५ ॥ जो मनुष्य प्रतिदिन इस नवम स्कन्ध के एक अध्याय का पाठ करता है, भगवती दुर्गा उसके अधीन हो जाती हैं और वह मनुष्य देवी का प्रियकर हो जाता है ॥ ९६ ॥ इस विषय में किसी कुमारी के दिव्य हाथ अथवा बालक के करकमल से यथाविधि शकुन की परीक्षा करनी चाहिये। अपने मनोरथ का संकल्प करके पुस्तक की पूजा करे, तत्पश्चात् जगदीश्वरी भगवती दुर्गा को बार-बार प्रणाम करे। भलीभाँति स्नान की हुई कन्या को वहाँ विराजमान करके [ देवी के रूपमें ] उसकी विधिपूर्वक पूजा करने के अनन्तर स्वर्णनिर्मित शलाका उस कन्या से स्कन्ध के मध्य में रखवाना चाहिये । शलाका रखने पर शुभ अथवा अशुभ जो भी प्रसंग आता है, वैसा ही फल होता है; अथवा उदासीन प्रसंग आने पर कार्य भी उदासीन ही होता है — यह निश्चित है ॥ ९७–१०० ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘देवी की आवरणपूजा की विधि का वर्णन’ नामक पचासवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५० ॥ ॥ नवम स्कन्ध समाप्त ॥ Content is available only for registered users. 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