श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-दशम स्कन्धः-अध्याय-05
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-दशम स्कन्धः-पञ्चमोऽध्यायः
पाँचवाँ अध्याय
देवताओं का वैकुण्ठलोक में जाकर भगवान् विष्णु की स्तुति करना
श्रीविष्णुना देवेभ्यो वरप्रदानम्

सूतजी बोले — वैकुण्ठ में जाकर उन देवताओं ने कमलपत्र के समान नेत्रों वाले, देवदेवेश्वर, रमाकान्त, जगद्गुरु भगवान् विष्णु को लक्ष्मीजी के साथ विराजमान देखा। वे गद्गद वाणी से सत्कार करते हुए भक्तिपूर्वक स्तोत्रसे उनकी स्तुति करने लगे ॥ १-३ ॥

॥ देवा ऊचुः ॥
जय विष्णो रमेशाद्य महापुरुष पूर्वज ॥ २ ॥
दैत्यारे कामजनक सर्वकामफलप्रद ।
महावराह गोविन्द महायज्ञस्वरूपक ॥ ३ ॥
महाविष्णो ध्रुवेशाद्य जगदुत्पत्तिकारण ।
मत्स्यावतारे वेदानामुद्धाराधाररूपक ॥ ४ ॥
सत्यव्रत धराधीश मत्स्यरूपाय ते नमः ।
जयाकूपार दैत्यारे सुरकार्यसमर्पक ॥ ५ ॥
अमृताप्तिकरेशान कूर्मरूपाय ते नमः ।
जयादिदैत्यनाशार्थमादिसूकररूपधृक् ॥ ६ ॥
मह्युद्धारकृतोद्योगकोलरूपाय ते नमः ।
नारसिंहं वपुः कृत्वा महादैत्यं ददार यः ॥ ७ ॥
करजैर्वरदृप्ताङ्‌गं तस्मै नृहरये नमः ।
वामनं रूपमास्थाय त्रैलोक्यैश्वर्यमोहितम् ॥ ८ ॥
बलिं सञ्छलयामास तस्मै वामनरूपिणे ।
दुष्टक्षत्रविनाशाय सहस्रकरशत्रवे ॥ ९ ॥
रेणुकागर्भजाताय जामदग्न्याय ते नमः ।
दुष्टराक्षसपौलस्त्यशिरश्छेदपटीयसे ॥ १० ॥
श्रीमद्दाशरथे तुभ्यं नमोऽनन्तक्रमाय च ।
कंसदुर्योधनाद्यैश्च दैत्यैः पृथ्वीशलाञ्छनैः ॥ ११ ॥
भाराक्रान्तां महीं योऽसावुज्जहार महाविभुः ।
धर्मं संस्थापयामास पापं कृत्वा सुदूरतः ॥ १२ ॥
तस्मै कृष्णाय देवाय नमोऽस्तु बहुधा विभो ।
दुष्टयज्ञविघाताय पशुहिंसानिवृत्तये ॥ १३ ॥
बौद्धरूपं दधौ योऽसौ तस्मै देवाय ते नमः ।
म्लेच्छप्रायेऽखिले लोके दुष्टराजन्यपीडिते ॥ १४ ॥
कल्किरूपं समादध्यौ देवदेवाय ते नमः ।
दशावतारास्ते देव भक्तानां रक्षणाय वै ॥ १५ ॥
दुष्टदैत्यविघाताय तस्मात्त्वं सर्वदुःखहृत् ।
जय भक्तार्तिनाशाय धृतं नारीजलात्मसु ॥ १६ ॥
रूपं येन त्वया देव कोऽन्यस्त्वत्तो दयानिधिः ।
इत्येवं देवदेवेशं स्तुत्वा श्रीपीतवाससम् ॥ १७ ॥

देवता बोले — हे विष्णो! हे रमेश ! हे आद्य ! हे महापुरुष ! हे पूर्वज ! हे दैत्यशत्रु ! हे कामजनक ! हे सम्पूर्ण कामनाओं के फल प्रदान करने वाले ! हे महावराह ! हे गोविन्द ! हे महायज्ञस्वरूप ! आपकी जय हो ॥ २-३ ॥ हे महाविष्णो! हे ध्रुवेश ! हे आद्य ! हे जगत् की उत्पत्ति के कारण ! हे मत्स्यावतार में वेदों का उद्धार करने के लिये आधारस्वरूप ! हे सत्यव्रत ! हे धराधीश ! आप मत्स्यरूपधारी को नमस्कार है ॥ ४१/२

हे कच्छपावतार! हे दैत्यशत्रु! हे देवकार्यसमर्पक! आपकी जय हो । अमृत की प्राप्ति कराने वाले हे ईश्वर ! आप कूर्मरूपधारी को नमस्कार है ॥ ५१/२

आदिदैत्य हिरण्याक्ष का संहार करने के लिये सूकररूप- धारी हे ईश्वर ! आपकी जय हो । पृथ्वी का उद्धार करने हेतु उद्योगपरायण आप वराहरूपधारी को नमस्कार है ॥ ६१/२

नृसिंह का रूप धारण कर जिन्होंने वरदान से उन्मत्त अंगों वाले महान् दैत्य हिरण्यकशिपु को अपने नखों से विदीर्ण कर डाला, उन नृसिंहभगवान्‌ को नमस्कार है ॥ ७१/२

वामनरूप धारण कर जिन्होंने त्रिलोकी के ऐश्वर्य से मोहित राजा बलि को छला था, उन वामनरूपधारी को नमस्कार है ॥ ८१/२

दुष्ट क्षत्रियों का संहार करने वाले, कार्तवीर्य सहस्रार्जुन के शत्रु तथा रेणुका के गर्भ से उत्पन्न आप जमदग्निपुत्र परशुराम को नमस्कार है ॥ ९१/२

पुलस्त्यनन्दन दुराचारी राक्षस रावण के सिर काटने में परम पटु, अनन्त पराक्रम वाले आप दशरथपुत्र श्रीमान् राम को नमस्कार है ॥ १०१/२

राजाओं के लिये कलंकस्वरूप कंस, दुर्योधन आदि दैत्यों के द्वारा भाराक्रान्त पृथ्वी का जिन महाप्रभु ने उद्धार किया तथा पापों का अन्त करके जिन्होंने धर्म की स्थापना की, हे विभो ! उन आप श्रीकृष्णभगवान्‌ को बार-बार नमस्कार है ॥ ११-१२१/२

दुष्ट यज्ञों को विनष्ट करने तथा पशुहिंसा रोकने के लिये जिन्होंने बौद्धरूप धारण किया; उन आप बुद्धदेव को नमस्कार है ॥ १३१/२

सम्पूर्ण जगत् में म्लेच्छों का बाहुल्य हो जाने पर तथा दुष्ट राजाओं द्वारा प्रजाओं को पीड़ित किये जाने पर आपने कल्किरूप धारण किया था; उन आप देवाधिदेव को नमस्कार है ॥ १४१/२

हे देव ! आपके ये दसों अवतार भक्तों की रक्षा के लिये तथा दुष्ट राक्षसों के विनाश के लिये ही हुए हैं, अतएव आप सभी प्राणियों का दुःख हरने वाले हैं ॥ १५१/२

भक्तों का दुःख दूर करने के लिये आपने मोहिनी स्त्री तथा जल-जन्तुओं का रूप धारण किया, अतएव हे देव! आपके अतिरिक्त दूसरा कौन दयासागर हो सकता है ? आपकी जय हो ॥ १६१/२

इस प्रकार पीताम्बरधारी देवदेवेश श्रीहरि का स्तवन करके उन श्रेष्ठ देवताओं ने भक्तिपूर्वक उन्हें साष्टांग प्रणाम किया ॥ १७१/२

उनकी स्तुति सुनकर गदाधर पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु सभी देवताओं को हर्षित करते हुए बोले — ॥ १८१/२

श्रीभगवान् बोले — हे देवताओ ! मैं आप लोगों की स्तुति से प्रसन्न हूँ, आपलोग शोक का त्याग कर दें । मैं आप लोगों के इस परम दुःसह कष्ट को दूर करूँगा ॥ १९१/२

हे देवताओ! आप लोग मुझसे परम दुर्लभ वर माँग लीजिये; [आप लोगों की] इस स्तुति के प्रभाव से अति प्रसन्न होकर मैं वर प्रदान करूँगा ॥ २०१/२

जो मनुष्य प्रातः काल उठकर मुझमें दृढ़ भक्ति रखकर इस स्तोत्र का पाठ करेगा, उसे कभी शोक स्पर्श नहीं कर सकेगा। हे देवताओ ! दरिद्रता तथा दुर्भाग्य उसके घर पर आक्रमण नहीं कर सकेंगे । विघ्न-बाधाएँ, वेताल, ग्रह तथा ब्रह्मराक्षस उसे पीड़ित नहीं कर सकते । वात-पित्त-कफ सम्बन्धी रोग भी उसे नहीं होंगे। उसकी अकाल-मृत्यु कभी नहीं होगी और उसकी सन्तानें दीर्घ काल तक जीवित रहेंगी। जो इस स्तोत्र का पाठ करेगा, उस मनुष्य के घर में सुख आदि सभी भोग-साधन विद्यमान रहेंगे । अधिक कहने से क्या प्रयोजन, यह स्तोत्र सभी अर्थों का परम साधन करने वाला है ॥ २१–२५ ॥ इस स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्यों के लिये भोग तथा मोक्ष उनसे दूर नहीं रहेंगे। हे देवताओ ! आप लोगों को जो कष्ट हो, उसे आप निःसंकोच बताइये, मैं उसे दूर करूँगा; इसमें आप लोगों को अणुमात्र भी सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ २६१/२

इस प्रकार श्रीभगवान्‌ का वचन सुनकर सभी देवताओं का मन प्रसन्नता से भर गया और वे पुनः वृषाकपि भगवान् विष्णु से कहने लगे ॥ २७ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत दसवें स्कन्ध का ‘श्रीविष्णु के द्वारा देवताओं को वरप्रदान’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥

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