श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वितीयः स्कन्धः-अध्याय-06
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-द्वितीयः स्कन्धः-षष्ठोऽध्यायः
छठवाँ अध्याय
दुर्वासा का कुन्ती को अमोघ कामद मन्त्र देना, मन्त्र के प्रभाव से कन्यावस्था में ही कर्ण का जन्म, कुन्ती का राजा पाण्डु से विवाह, शाप के कारण पाण्डु का सन्तानोत्पादन में असमर्थ होना, मन्त्र-प्रयोग से कुन्ती और माद्री का पुत्रवती होना, पाण्डु की मृत्यु और पाँचों पुत्रों को लेकर कुन्ती का हस्तिनापुर आना
युधिष्ठिरादीनामुत्पत्तिवर्णनम्

सूतजी बोले — इस प्रकार उन शन्तनु ने सत्यवती से विवाह कर लिया। उसको [चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक] दो पुत्र उत्पन्न हुए और कालवश वे दोनों मृत्यु को भी प्राप्त हो गये ॥ १ ॥ पुनः व्यासजी के तेज से धृतराष्ट्र उत्पन्न हुए, जो जन्म से ही अन्धे थे; क्योंकि मुनि को देखकर उस स्त्री ने अपने नेत्र बन्द कर लिये थे ॥ २ ॥ तत्पश्चात्‌ छोटी रानी व्यासजी को देखकर पीली पड़ गयी, जिससे व्यासजी के कोप के कारण उससे पीतवर्ण पाण्डु का जन्म हुआ; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३ ॥ निपुण दासी ने व्यासजी को सन्तुष्ट किया, जिसके परिणामस्वरूप धर्म के अंश, सत्यवादी तथा पवित्र विचार वाले विदुर उत्पन्न हुए ॥ ४ ॥ [बड़े होने पर भी] अन्धे होने के कारण धृतराष्ट्र को राज्य नहीं दिया गया और छोटे होते हुए भी पाण्डु को ही मन्त्रियो ने राजसिंहासन पर अभिषिक्त किया। भीष्म की सम्मति से ही महाबली पाण्डु को राज्य प्राप्त हुआ तथा प्रतिभासम्मन्न विदुरजी मन्त्रणा- कार्य में नियुक्त किये गये ॥ ५-६ ॥

धृतराष्ट्र की दो स्त्रियाँ थीं । उनमें पहली सुबलपुत्री गान्धारी कही गयी है और दूसरी एक वैश्यपुत्री थी, जो गृहकार्यों में प्रतिष्ठित की गयी थी ॥ ७ ॥ वेदवादी विद्वानों ने पाण्डु की भी दो पत्नियाँ बतायी हैं। एक शूरसेन की पुत्री कुन्ती और दूसरी मद्रदेश की राजकुमारी माद्री ॥ ८ ॥ गान्धारी ने परम सुन्दर सौ पुत्र उत्पन्न किये एवं वैश्या रानी ने युयुत्सु नाम का एक कान्तिमान्‌ और प्रिय पुत्र उत्पन्न किया ॥ ९ ॥ कुन्ती ने कुमारी अवस्था में ही अपने पिता के घर रहते हुए सूर्य से कर्ण नामक एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न किया था; तदनन्तर कुन्ती का विवाह पाण्डु से हुआ ॥ १० ॥

ऋषिगण बोले — हे मुनिवर सूतजी! आप यह कैसी आश्चर्यजनक बात बता रहे हैं? पहले पुत्र उत्पन्न हुआ और बाद में पाण्डु के साथ कुन्ती का विवाह हुआ! ॥ ११ ॥ सूर्य के द्वारा कन्या कुन्ती से कर्ण की उत्पत्ति कैसे हुई? वह कुन्ती पुनः कन्या कैसे रह गयी, जो पाण्डु के साथ उसका विवाह हो गया। यह आप विस्तारपूर्वक बताइये ॥ १२ ॥

सूतजी बोले — हे द्विजगण! शूरसेन की वह पुत्री कुन्ती जब शिशु थी, तभी राजा कुन्तिभोज ने उस सुन्दर कन्या को माँग लिया था। उन्होंने उस चारुहासिनी कन्या को अपनी पुत्री बनाकर रखा और उसे अग्निहोत्र के काम में नियुक्त कर दिया ॥ १३-१४ ॥ एक बार महर्षि दुर्वासा वहाँ आ पहुँचे और चातुर्मास्य के लिये वहीं रहने लगे। कुन्ती ने उनकी सेवा की, जिससे मुनिवर सन्तुष्ट हुए और उसको एक ऐसे मन्त्र का उपदेश दिया, जिसके प्रयोग से आवाहित किये गये देवता स्वयं उपस्थित होंगे और उसकी अभिलाषा पूर्ण करेंगे ॥ १५-१६ ॥ दुर्वासामुनि के वहाँ से चले जाने पर अपने गृह में बैठी हुई कुन्ती उस मन्त्र की परीक्षा के लिये मन में सोचने लगी कि मैं किस देवता का ध्यान करूँ ?॥ १७ ॥ उसने पूर्व दिशा में उदित होते हुए सूर्य को देखा और उस मन्त्र का उच्चारण करके उसने सूर्य का आवाहन किया। तब सूर्य अपने मण्डल से अत्यन्त सुन्दर मनुष्य का रूप धारण करके आकाश से कुन्ती के पास उस भवन में उतर आये ॥ १८-१९ ॥ सूर्यदेव को आते हुए देखकर कुन्ती आश्चर्यचकित हो गयी। वह सुन्दरी काँपती हुई तत्काल रजोधर्म को प्राप्त हो गयी ॥ २० ॥

उस समय सुन्दर नेत्रवाली कुन्ती हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी और सूर्य से बोली — मैं आपके दर्शन से प्रसन्न हो गयी; अब आप अपने मण्डल को चले जाइये ॥ २१ ॥

सूर्य बोले — हे कुन्ति! तुमने मन्त्र बल से मुझे क्यों बुलाया है? तुम मुझे बुला करके भी अपने समक्ष उपस्थित मुझ सूर्य की सेवा क्यों नहीं करती ?॥ २२ ॥ हे चारुलोचने! मैं इस समय कामार्त हूँ, अतः प्रेम के साथ मेरा सेवन करो। मन्त्र के द्वारा अधीनता को प्राप्त मुझको तुम विहार करने के लिये ले चलो ॥ २३ ॥

कुन्ती बोली — हे धर्मज्ञ! मैं अभी कन्या हूँ । हे सर्वसाक्षिन्‌। मैं आपको प्रणाम करती हूँ। हे सुव्रत! आप मेरे प्रति अनुचित बातें न कहें; क्योंकि मैं कुलीन कन्या हूँ ॥ २४ ॥

सूर्य बोले — यदि मैं इस समय व्यर्थ लौट जाता हूँ तो मेरे लिये बड़ी लज्जा की बात होगी और मैं सभी देवताओं में निन्दा का पात्र बनूँगा; इसमें संशय नहीं है ॥ २५ ॥ हे कुन्ति! यदि तुम मेरे साथ रमण नहीं करोगी तो मैं तुम्हें तथा उस मुनि को शाप दे दूँगा, जिसने तुम्हें वह मन्त्र बताया है। हे सुन्दरि! तुम्हारा कन्याधर्म स्थिर रहेगा। इस रहस्य को लोग नहीं जान सकेंगे तथा हे वरानने! मेरे समान ही तेजस्वी पुत्र तुमको प्राप्त होगा ॥ २६-२७ ॥

यह कहकर सूर्यदेव अपनी ओर आसक्त मन वाली एवं लज्जाशील उस कुन्ती से संसर्ग करके तथा उसे मनोवांछित वरदान देकर चले गये ॥ २८ ॥ इस प्रकार उस सुश्रोणी कुन्ती ने गर्भ धारण किया और वह अत्यन्त गुप्त भवन में रहने लगी। केवल उसको एक प्रिय दासी ही इस रहस्य को जानती थी, कुन्ती के माता-पिता भी इसे नहीं जानते थे ॥ २९ ॥ यथासमय उसी गुप्त भवन में कुन्ती को एक अत्यन्त सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सुन्दर कवच तथा दो कुण्डलों से युक्त था और दूसरे सूर्य तथा कुमार कार्तिकेय के समान प्रतीत हो रहा था। धात्री ने उसे अपने हाथ में उठाकर लज्जायुक्त कुन्ती से कहा — हे सुन्दरि! मैं यहाँ हूँ, अतः तुम किस बात की चिन्ता कर रही हो ?॥ ३०-३११/२

तत्पश्चात्‌ काष्ठमंजूषा में पुत्र को छोड़ती हुई कुन्ती कहने लगी — हे पुत्र! मैं क्या करूँ ? मैं अत्यन्त दुःखित हूँ, जो कि तुझ प्राणप्रिय को त्याग रही हूँ। में अभागिन तुझ सर्वलक्षणसम्पन्न का परित्याग कर दे रही हूँ ॥ ३२-३३ ॥ सगुणा, निर्गुणा तथा सबकी स्वामिनी वे भगवती अम्बिका तुम्हारी रक्षा करें। वे जगज्जननी कामप्रदा कात्यायनी तुम्हें दुग्धपान करायें। हे पुत्र! तुम साक्षात्‌ सूर्यनारायण के पुत्र हो और मेरे प्राणप्रिय हो — ऐसे तुमको इस निर्जन वन में एक दुष्ट तथा कुलटा स्त्री की भाँति छोड़कर मैं कब तुम्हारा अति सुन्दर मुखकमल देख पाउँगी ॥ ३४ ॥ हे पुत्र! प्रतीत होता है कि मैंने पूर्वजन्म में भी तीनों लोकों की जननी भगवती की आराधना नहीं की थी तथा भगवती शिवा के सुखदायक चरणकमल का भी मैंने कभी ध्यान नहीं किया था; इसी कारण मैं सदा अभागिनी हूँ। हे प्रिय! मैं तुम्हें इस वन में त्यागकर जान-बूझकर स्वयं किये गये इस पाप का स्मरण करती हुई सन्ताप सहूँगी ॥ ३५ ॥

सूतजी बोले — इस प्रकार कहकर कुन्ती ने मंजूषा में रखे हुए उस पुत्र को लोगों की दृष्टि से बचाते हुए भयभीत भाव से धात्री के हाथ में दे दिया ॥ ३६ ॥ तत्पश्चात्‌ स्नान करके भयभीत वह कुन्ती अपने पिता के घर में रहने लगी। जल में बहती हुई वह मंजूषा अधिरथ नामक सूत को प्राप्त हुई। उस सूत की भार्या राधा थी। उसने बच्चे को माँग लिया। इस प्रकार सूत के घर में पलकर वह कर्ण बलवान्‌ तथा वीर हो गया ॥ ३७-३८ ॥ इसके बाद स्वयंवर में कुन्ती का विवाह पाण्डु के साथ हुआ। उनकी दूसरी पत्नी मद्रदेश के राजा की सुलक्षणा कन्या माद्री थी ॥ ३९ ॥ एक बार वन में आखेट करने में तत्पर महाबली पाण्डु ने मृग समझकर रमण करते हुए एक मुनि पर प्रहार कर दिया। तब उस कुपित मुनि ने पाण्डु को शाप दे दिया कि यदि तुम स्त्री के साथ संसर्ग करोगे तो तुम्हारी मृत्यु निश्चित है ॥ ४०-४१ ॥

मुनि के यह शाप दे देने पर पाण्डु शोकाकुल हो गये। वे राज्य त्यागकर अत्यन्त दुःखित हो वन में रहने लगे ॥ ४२ ॥ हे मुनिवरो! उनकी दोनों पत्नियाँ माद्री और कुन्ती भी सतीधर्म का आश्रय लेकर उनकी सेवा करने के लिये उनके साथ ही वन में चली गयीं ॥ ४३ ॥ राजा पाण्डु गंगाजी के तट पर मुनियों के आश्रमों में रहने लगे और धर्मशास्त्रों का श्रवण करते हुए कठिन तपस्या करने लगे ॥ ४४ ॥ किसी समय कथाप्रसंग में सम्यक्‌ प्रकार से पूछने पर किसी मुनि के द्वारा कहा गया यह धार्मिक वचन राजा ने सुना हे परन्तप! अपुत्र को गति नहीं होती; वह स्वर्ग जाने का अधिकारी नहीं होता अतएव जिस किसी भी उपाय से पुत्र उत्पन्न करना चाहिये ॥ ४५-४६ ॥ अंशज, पुत्रिकापुत्र, क्षेत्रज , गोलक, कुण्ड, सहोढ, कानीन, क्रीत, वन मे प्राप्त, पालन करने में असमर्थ किसी का दिया हुआ — इतने प्रकार के पुत्र पिता की सम्पत्ति के उत्तराधिकारी कहे गये हैं, इनमें उत्तरोत्तर एक दूसरे से निकृष्ट पुत्र हैं; यह सुनिश्चित है ॥ ४७-४८ ॥

यह सुनकर राजा पाण्डु ने कमल के समान नेत्रवाली कुन्ती से कहा — तुम किसी तपोनिष्ठ मुनि के पास जाकर शीघ्र पुत्र उत्पन्न करो । मेरी आज्ञा होने के कारण तुम्हें दोष नहीं लगेगा। मैंने सुना है कि पूर्वकाल में महात्मा राजा सौदास ने वसिष्ठ से पुत्र उत्पन्न कराया था ॥ ४९-५० ॥

कुन्ती उनसे यह वचन बोली — सभी कामनाएँ पूर्ण करने वाला एक मन्त्र मेरे पास है। हे प्रभो! पूर्वकाल में महर्षि दुर्वासा ने सिद्धि प्रदान करने वाला वह मन्त्र मुझे प्रदान किया था ॥ ५१ ॥ हे राजन्‌! मैं इस मन्त्र द्वारा जिस देवता का आवाहन करूँगी, वह निमन्त्रित होकर निश्चय ही मेरे पास आ जायगा ॥ ५२ ॥

पति की आज्ञा से वहाँ कुन्ती ने देवताओं में श्रेष्ठ धर्मराज का स्मरण करके उनके संयोग से सर्वप्रथम युधिष्ठिर को पुत्ररूप में उत्पन्न किया ॥ ५३ ॥ तत्पश्चातू उसने वायु के द्वारा भीम को और इन्द्र के द्वारा अर्जुन को उत्पन्न किया। इस प्रकार एक-एक वर्ष के अन्तराल में कुन्ती के तीन महाबली पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ५४ ॥ इसके बाद माद्री ने भी अपने पति पाण्डु से कहा — हे श्रेष्ठ! मुझे भी पुत्र प्रदान कीजिये। हे महाराज! मैं क्या करूँ? हे प्रभो! मेरा दुःख दूर कीजिये ॥ ५५ ॥

तब पति पाण्डु के प्रार्थना करने पर दयालु कुन्ती ने वह मन्त्र माद्री को बता दिया। सुन्दरी माद्री ने भी एक पुत्र की प्राप्ति के लिये पति से अनुमति पाकर अश्विनीकुमारों का स्मरण करके नकुल और सहदेव नामक दो पुत्र उत्पन्न किये ॥ ५६-५७ ॥ हे मुनिवरो! इस प्रकार वे पाँचों पाण्डव देवताओं के पुत्र थे । वे क्षेत्रज पुत्र के रूप में उस वन में क्रमश: एक-एक वर्ष के अन्तर से उत्पन्न हुए ॥ ५८ ॥ एक बार राजा पाण्डु ने माद्री को निर्जन आश्रम में देखकर अपनी मृत्यु निकट आयी होने के कारण अत्यन्त कामातुर हो पकड़ लिया। माद्री के द्वारा ‘ नहीं-नहीं ‘— ऐसा कहकर बार-बार निषेध करने पर भी उन्होंने बलपूर्वक अपनी उस प्रिया का आलिंगन कर लिया और वे दैववश [शाप के कारण] पृथ्वी पर गिर पड़े ॥ ५९-६० ॥ जैसे वृक्ष पर चढ़ी हुई लता वृक्ष के कट जाने पर गिर पड़ती है, बैसे ही वह रानी माद्री भी बहुत रुदन करती हुई गिर पड़ी ॥ ६१ ॥ उस समय कोलाहल सुनकर रोती हुई कुन्ती, सभी बालक और महाभाग मुनिगण भी वहाँ आ गये ॥ ६२ ॥ इस प्रकार जब पाण्डु मर गये, तब सभी व्रतधारी मुनियों ने गंगा के तट पर चिता लगाकर उनका दाह-संस्कार कर दिया। तत्पश्चात्‌ अपने दोनों पुत्र कुन्ती को सौंप करके सती-धर्म का पालन करते हुए वह माद्री सत्य की कामना से उनके साथ ही सती हो गयी ॥ ६३-६४ ॥ वहाँ के निवासी मुनिगण जलांजलि आदि देकर पाँचों पुत्रोंसहित कुन्ती को हस्तिनापुर ले आये ॥ ६५ ॥

धृतराष्ट्र की नगरी हस्तिनापुर में कुन्ती के आने का समाचार पाकर भीष्म, विदुर आदि सभी लोग वहाँ आ पहुँचे ॥ ६६ ॥ सभी लोगों ने कुन्ती से पूछा हे सुमुखि! ये किसके पुत्र हैं ? तब कुन्ती अत्यन्त दुःखित होकर पाण्डु की शापजन्य मृत्यु का उल्लेख करके बोली कुरुवंश में उत्पन्न हुए ये सब बालक देवताओं के पुत्र हैं। उन्हें विश्वास दिलाने के लिये कुन्ती ने उस समय सभी देवताओं का आह्वान भी किया, तब उन देवताओं ने आकाश में प्रकट होकर कहा ये पाँचों निःसन्देह हम लोगों के पुत्र हैं। भीष्म ने देवताओं के वचन का अनुमोदन किया तथा कुन्ती के पाँचों पुत्रों का स्वागत किया ॥ ६७-६९ ॥

तत्पश्चात्‌ उन पुत्रों तथा वधू कुन्ती को लेकर भीष्म आदि सभी लोग हस्तिनापुर चले गये और प्रसन्नचित्त होकर प्रयत्नपूर्वक उनका पालन-पोषण करने लगे। इस प्रकार पाण्डव उत्पन्न हुए और भीष्म ने उनका परिपालन किया ॥ ७०-७१ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत द्वितीय स्कन्ध का  ‘युधिष्ठिरादीनामुत्पत्तिवर्णनं’ नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥

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