श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-एकादशः स्कन्धः-अध्याय-10
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-एकादशः स्कन्धः-दशमोऽध्यायः
दसवाँ अध्याय
भस्म-धारण की विधि
भस्ममाहात्म्ये पाशुपतव्रतवर्णनम्

श्रीनारायण बोले — हे ब्रह्मन् ! हे ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! अग्नि से तैयार किया गया ‘गौण’ भस्म भी अज्ञान का नाश करने वाला तथा ज्ञान का साधन है । इस गौण भस्म को भी आप अनेक प्रकार वाला जानिये ॥ १ ॥

हे मुने! अग्निहोत्राग्निजनित भस्म, उसी तरह विरजाग्निजनित भस्म, औपासनाग्नि से उत्पन्न भस्म, समिधाग्निजन्य भस्म, पचनाग्नि ( भोजननिर्माण) — जन्य भस्म तथा दावाग्नि से उत्पन्न भस्म गौण भस्म हैं । हे महामुने ! समस्त त्रैवर्णि कों (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य ) — को अग्निहोत्रजन्य तथा विरजाग्निजन्य भस्म धारण करना चाहिये । गृहस्थों को विशेषकर औपासन- अग्निजनित भस्म तथा ब्रह्मचारी को समिधाग्नि से उत्पन्न भस्म लगाना चाहिये । शूद्रों को वैदिक ब्राह्मण की पाकशाला में भोजननिर्माण से उत्पन्न भस्म तथा अन्य सभी जनों को दावानलजनित भस्म लगाना चाहिये ॥ २-५१/२

[हे ब्रह्मन् ! अब मैं विरजाग्निजन्य भस्म की उत्पत्ति के विषय में बता रहा हूँ ] चित्रा नक्षत्रयुक्त पूर्णिमा की तिथि तथा अपना निवासस्थान ही इसके निर्माण के लिये समीचीन है । इसके अतिरिक्त खेत, बाग तथा वन भी इस विरजाहोम के लिये शुभ लक्षणों वाले तथा प्रशस्त हैं । पूर्णिमा तिथि के पूर्व त्रयोदशी को विधिवत् स्नान करके सन्ध्या आदि नित्य कर्म सम्पादित कर अपने आचार्य से आज्ञा लेकर उनकी पूजा करे तथा उन्हें प्रणाम करे । तदनन्तर उनकी विशिष्ट पूजा करके स्वयं श्वेत वस्त्र धारणकर शुद्ध यज्ञोपवीत पहनकर श्वेत माला धारण करे तथा चन्दनादि लगाये ॥ ६–८१/२

तत्पश्चात् कुश के आसन पर बैठकर हाथ की मुट्ठी में कुश लेकर पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके तीन बार प्राणायाम करना चाहिये । पुनः महादेव तथा महादेवी का ध्यान करके उनके द्वारा निर्दिष्ट रीति के अनुसार इस प्रकार निवेदन करके संकल्प में दीक्षित होना चाहिये — ‘मैं इस शिरोव्रत को इस शरीर की समाप्ति तक अथवा बारह वर्षत क अथवा छः वर्षत क अथवा तीन वर्ष तक अथवा बारह मास तक अथवा छः मास तक अथवा तीन मास तक अथवा एक मास तक अथवा बारह दिन तक अथवा छः दिन तक अथवा तीन दिन तक अथवा एक दिन की अवधि तक अनुष्ठित करने के लिये यह व्रत – संकल्प ग्रहण करता हूँ’ ॥ ९–१३ ॥

इसके बाद विरजा“स्वच्छ”, “शुद्ध”, या “अशुद्धियों से मुक्त”-होम के लिये विधिपूर्वक (अपनी शाखा के गृह्यसूत्र की विधि से) अग्न्याधान करके घृत, समिधा तथा चरु से विधिवत् हवन करना चाहिये । पुनः इस पवित्र दिन के बाद चतुर्दशी को अपने तत्त्वों की शुद्धि के उद्देश्य से मूलमन्त्र का उच्चारण करते हुए उन्हीं समिधा आदि द्रव्यों से आहुति प्रदान करनी चाहिये। मेरे शरीर में ये तत्त्व शुद्धता को प्राप्त हो जायँ — ऐसी भावना करते हुए आहुति डालनी चाहिये। पाँच पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश), पंचतन्मात्राएँ (गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द), कर्मेन्द्रियाँ (हाथ, पैर, वाक्, पायु, उपस्थ), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (नेत्र, कान, नासिका, जीभ, त्वचा), सात धातुएँ (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य ) प्राण आदि पाँच वायु (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान), मन, बुद्धि, अहंकार, तीनों गुण (सत्त्व, रज, तम), प्रकृति, पुरुष, राग, विद्या, कला, नियति, काल, माया, शुद्ध विद्या, महेश्वर, सदाशिव, शक्ति तथा शिवतत्त्व — ये क्रमशः तत्त्व कहे गये हैं ॥ १४–१९ ॥ विरजामन्त्रों से आहुति प्रदान करके वह होता निष्पाप हो जाता है । इसके बाद गाय का गोबर लेकर उसका पिण्ड बनाकर उसे [ पंचाक्षरमन्त्र से] अभिमन्त्रित करके पुनः उसे अग्नि में रखकर उसका संरक्षण करता रहे। उस दिन केवल हविष्यान्न ग्रहण करे । चतुर्दशी को प्रातःकाल पूर्वोक्त विधि से [ नित्यकर्म तथा हवन आदि] समस्त कार्य सम्पन्न करके उस दिन निराहार रहकर सम्पूर्ण समय व्यतीत करे ॥ २०-२११/२

तत्पश्चात् पूर्णिमा के दिन प्रातःकाल नित्यकर्म करके हवन करे और होम के अनन्तर रुद्राग्नि का विसर्जन करके सावधानी के साथ भस्म ग्रहण कर ले। तदनन्तर जटाधारी, मुण्डी अथवा शिखारूपी एक जटावाला होकर पुनः स्नान कर लेने के अनन्तर यदि लज्जाशून्य हो गया हो तो दिगम्बर (नग्न) हो जाय, यदि नहीं तो गेरुआ वस्त्र अथवा मृगचर्म अथवा वस्त्र का एक टुकड़ा या एक वस्त्र या पेड़ की छाल पहनकर हाथ में दण्ड तथा कटिप्रदेश में मेखला धारण करे । तत्पश्चात् अपने दोनों पैर प्रक्षालित – कर दो बार आचमन करके विरजाग्निजन्य उस भस्म को एकत्र करके ‘अग्निरिति भस्म’ ॐ अग्निरिति भस्म। ॐ वायुरिति भस्म। ॐ जलमिति भस्म। ॐ स्थलमिति भस्म ।ॐ व्योमेति भस्म। ॐ सर्वं गूँ हवा इदं भस्म। आदि छः आथर्वण मन्त्रों से अंगों का शोधन करके पुनः उन्हीं मन्त्रों से क्रम से मस्तक से लेकर चरण तक भस्म लगाना चाहिये। इस क्रम से उस भस्म द्वारा उद्धूलन करके प्रणव (ॐ) मन्त्र से या शिवमन्त्र से सम्पूर्ण शरीर में भस्म का अनुलेपन करना चाहिये । इसके बाद ‘त्र्यायुष’ ॐ त्र्यायुषं जमदग्नेरिति ललाटे। ॐ कश्यप त्र्यायुषमिति ग्रीवायाम्। ॐ यद्देवेषु त्र्यायुषमिति भुजायाम्। ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषमिति हृदये।संज्ञावाले मन्त्र से त्रिपुण्ड्र धारण करे। ऐसा कर लेने पर शिवभाव को प्राप्त होकर शिवभाव का ही आचरण करे ॥ २२–२८१/२

इस प्रकार इस पाशुपतव्रत को प्रातः कालीन, मध्याह्नकालीन तथा सायंकालीन तीनों सन्ध्याओं के समय करना चाहिये। यह पाशुपतव्रत भोग तथा मोक्ष को देने वाला है और यह पशुत्वभाव को दूर कर देता है। अतएव पशुत्व-विचार का त्याग करके पाशुपतव्रत का अनुष्ठान करने के अनन्तर लिंगमूर्ति महादेव सदाशिव की पूजा करनी चाहिये ॥ २९-३०१/२

भस्मस्नान महान् पुण्यदायक; सभी सुखों की प्राप्ति कराने वाला; अतिश्रेष्ठ; आयु, बल, आरोग्य, लक्ष्मी तथा पुष्टि की वृद्धि करने वाला है । अतः अपनी रक्षा, कल्याण तथा सर्वविधसम्पदा की समृद्धि के लिये मनुष्यों को भस्म धारण करना चाहिये । भस्म- स्नान करने वाले मनुष्यों को महामारी का भय नहीं रहता है । यह भस्म शान्तिक ( शान्तिकारक ), पौष्टिक (पुष्टिकारक ) तथा कामद (सिद्धिप्रदायक ) – इन तीन प्रकार का होता है ॥ ३१–३३ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत ग्यारहवें स्कन्ध का ‘भस्म-माहात्म्य के प्रसंग में पाशुपतव्रतवर्णन ‘ नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥

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