श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-12
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-द्वादशोऽध्यायः
बारहवाँ अध्याय
सात्त्विक, राजस और तामस यज्ञों का वर्णन; मानस यज्ञ की महिमा और व्यासजी द्वारा राजा जनमेजय को देवी-यज्ञ के लिये प्रेरित करना
अम्बायज्ञविधिवर्णनम्

राजा बोले — हे स्वामिन्‌! अब आप उन देवी के यज्ञ की विधि का पूर्णरूप से सम्यक्‌ वर्णन कीजिये। उसे सुनकर मैं यथाशक्ति प्रमादरहित होकर वह यज्ञ करूँगा ॥ १ ॥ उस यज्ञ की पूजा-विधि, उसके मन्त्र, होमद्रव्य, उसमें कितने ब्राह्मण हों और दक्षिणा — इन सभी के बारे में निःसंकोच बताइये ॥ २ ॥

व्यासजी बोले — हे राजन्‌! सुनिये, अब मैं आपसे देवी के यज्ञ का विधानपूर्वक वर्णन करूँगा। अनुष्ठान में विहित कर्म के अनुसार यह यज्ञ सात्त्विक, राजस तथा तामस भेद से सदा तीन प्रकार का समझा जाना चाहिये । मुनियों के लिये सात्त्विक यज्ञ, राजाओं के लिये राजस यज्ञ, राक्षसों के लिये तामस यज्ञ, ज्ञानियों के लिये निर्गुण यज्ञ और वैराग्ययुक्त लोगों के लिये ज्ञानमय यज्ञ कहा गया है; मैं आपसे विस्तारपूर्वक वर्णन कर रहा हूँ ॥ ३-५ ॥ जिस यज्ञ में देश, काल, द्रव्य, मन्त्र, ब्राह्मण तथा श्रद्धा — ये सब सात्त्विक हों; उसे सात्तविक यज्ञ कहा गया है ॥ ६ ॥ हे भूपाल! यदि द्र॒व्यशुद्धि, क्रियाशुद्धि और मन्त्रशुद्धि के साथ यज्ञ सम्पन्न होता है, तब पूर्ण ‘फल की प्राप्ति अवश्य होती है; अन्यथा नहीं होती ॥ ७ ॥ अन्याय के द्वारा उपार्जित किये गये धन से यदि पुण्य-कार्य किया जाता है तो इस लोक में यश की प्राप्ति नहीं होती और परलोक में उसका कोई फल भी नहीं मिलता है, इसलिये न्यायपूर्वक उपार्जित धन से ही सदा पुण्यकार्य करना चाहिये। ऐसा कार्य इस लोक में कीर्ति तथा परलोक में आनन्द के लिये होता है ॥ ८-९ ॥

हे राजेन्द्र! आपके सामने इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। पाण्डवों ने यज्ञों में उत्तम राजसूय-यज्ञ किया था, जिसकी समाप्ति पर उन्होंने श्रेष्ठ दक्षिणा भी दी थी, जिसमें महामनस्वी याददवेन्द्र साक्षात्‌ भगवान्‌ कृष्ण विद्यमान थे और भारद्वाज आदि पूर्णतः विद्यानिष्ठ ब्राह्मणों ने जिस यज्ञ का सम्पादन किया था, उस यज्ञ को विधिवत सम्पन्न करने के पश्चात्‌ एक मास के भीतर ही पाण्डवों कों महान्‌ कष्ट प्राप्त हुआ तथा कठोर वनवास भोगना पड़ा ॥ १०-१२ ॥ द्रौपदी का अपमान हुआ, युधिष्ठिर की जुए में पराजय हुई, पाण्डवों को वनवास हुआ और उन्हें तरह-तरह का घोर कष्ट मिला, तब यज्ञ से होने वाला फल कहाँ चला गया ?॥ १३ ॥ महामनस्वी पाण्डवों को राजा विराट की दासता करनी पड़ी और नारियों में श्रेष्ठ द्रोपदी को कीचक ने प्रताड़ित किया। उस संकटकाल में विशुद्ध हृदय वाले ब्राह्मणों के आशीर्वाद कहाँ चले गये थे और कृष्ण की भक्ति कहाँ चली गयी थी ?॥ १४-१५ ॥ जिस समय परम सुन्दरी पतिव्रता द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटा जा रहा था, उस समय उस बेचारी की रक्षा किसी ने भी नहीं की ॥ १६ ॥ जिस यज्ञ में देवाधीश भगवान्‌ श्रीकृष्ण रहे हों और जिस यज्ञ के कर्ता धर्मराज युधिष्ठिर हों, उस यज्ञ का विपरीत फल मिलने का कारण अवश्य ही धर्मानुष्ठान में कोई कमी रही होगी — ऐसा समझना चाहिये ॥ १७ ॥

यदि कहा जाय कि प्रारब्ध ही ऐसा था तो सभी शास्त्र निष्फल हो जायँगे और वेद-मन्त्र तथा अन्य धर्मग्रन्थ निरर्थक सिद्ध होंगे; इसमें संशय नहीं है। प्रारब्ध तो अवश्यम्भावी है, इस कथन को यदि स्वीकार कर लिया जाय तो सभी साधन निष्फल और सभी उपाय व्यर्थ हो जायँगे; सभी वेद-शास्त्र अर्थवाद के रूप में परिणत हो जायँगे, सभी क्रियाएँ निरर्थक हो जायँगी और स्वर्ग- प्राप्ति के लिये तप तथा वर्ण-धर्म सब व्यर्थ हो जायँगे। केवल प्रारब्ध को ही हृदय में धारण करने से सभी प्रमाण व्यर्थ हो जायँगे। अतएव भाग्य तथा उपाय दोनों कों मानना चाहिये ॥ १८-२१ ॥ कर्म करने पर भी यदि विपरीत परिणाम प्राप्त होता है तो पण्डित शिरोमणि विद्वानों को सोचना चाहिये कि कार्य करने में कोई कमी अवश्य रह गयी थी ॥ २२ ॥ कर्मशील विद्वानों ने कर्तृभेद, मन्त्रभेद तथा द्रव्यभेद से उस कर्म को अनेक प्रकार वाला बताया है ॥ २३ ॥

पूर्वकाल में इन्द्र ने यज्ञ में आचार्य के रूप में विश्वरूप का वरण किया था। उस विश्वरूप ने अपने मातृपक्ष के दानवों के हितार्थ विपरीत कार्य किया। देवताओं तथा दानवों दोनों का कल्याण हो — ऐसा बार-बार कहकर उसने मातृपक्ष के जो असुर थे, उनकी भी रक्षा की। तदनन्तर दानवों को अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट देखकर इन्द्र कुपित हो उठे और उन्होंने वज्र से तत्काल उस विश्वरूप के सिर काट दिये ॥ २४-२६ ॥ इससे यह निस्सन्देह सिद्ध हो जाता है कि कर्ता के भेद से विपरीत फल हो जाता है। यदि इसे न मानें तो ठीक नहीं; क्योंकि पञ्चाल नरेश द्रुपद ने रोषपूर्वक द्रोणाचार्य के नाश के निमित्त एक पुत्र उत्पन्न होने के लिये यज्ञ किया था। [इसके परिणामस्वरूप] यज्ञवेदी के मध्यभाग से धृष्टद्युम्न तथा द्रौपदी — ये दोनों उत्पन्न हुए ॥ २७-२८ ॥

पूर्वकाल में जब महाराज दशरथ ने पुत्रेष्टि-यज्ञ किया तो उन पुत्रहीन राजा दशरथ के भी चार पुत्र उत्पन्न हुए ॥ २९ ॥ अतः हे नृपश्रेष्ठ ! युक्तिपूर्वक किया गया कोई भी कार्य हर प्रकार से सिद्धि प्रदान करने वाला होता है और युक्तिपूर्वक न किया गया कार्य सर्वथा विपरीत फल प्रदान करने वाला होता है ॥ ३० ॥ जैसे पाण्डवों के यज्ञ में किसी दोष के कारण ही उन्हें विपरीत फल मिला और जुए में वे हार गये। हे राजन! युधिष्ठिर सत्यवादी तथा धर्मपुत्र थे, द्रौपदी भी एक पतिव्रता स्त्री थी एवं युधिष्ठिर के अन्य छोटे भाई भी पुण्यात्मा थे, किंतु अन्यायोपार्जित द्रव्यों के प्रयोग के कारण उस यज्ञ में वैगुण्य1 उत्पन्न हुआ अथवा उन्‍होंने अभिमानपूर्वक यज्ञ किया था, जिससे दोष उत्पन्न हुआ ॥ ३१-३३ ॥

हे महाराज! सात्त्विक यज्ञ तो अत्यन्त दुर्लभ माना गया है। वह महायज्ञ केवल वानप्रस्थ मुनियों के लिये ही विहित है ॥ ३४ ॥ हे राजन्‌! तप में तत्पर जो लोग नित्य न्यायपूर्वक अर्जित किये गये द्रव्य-पदार्थ, वन्‍य फल-मूल तथा ऋषियों का सुसंस्कृत सात्त्विक आहार ग्रहण करते हैं — ऐसे तपस्वियों द्वारा नित्य अतिश्रद्धा के साथ पुरोडाश से सम्पादित किये जाने वाले समन्त्रक तथा यूपविहीन यज्ञ परम सात्त्विक यज्ञ कहे गये हैं ॥ ३५-३६ ॥ जिस यज्ञ में अधिक धन व्यय किया जाता है. जिसमें पशु-बलि के लिये सुन्दर यूप गाड़े जाते हैं तथा जो अभिमान के साथ किये जाते हैं – क्षत्रियों तथा वैश्यों द्वारा सम्पादित किये जाने वाले वे यज्ञ राजस यज्ञ कहे गये हैं ॥ ३७ ॥ महात्माओं ने दानवों द्वारा किये जाने वाले यज्ञों को तामस यज्ञ कहा है। ऐसे यज्ञ क्रोध भावना के साथ किये जाते हैं, अहंकार कों बढ़ाने वाले होते हैं ईर्ष्यापूर्वक किये जाते हैं और बड़ी साज-सज्जा तथा क्रूरता के साथ सम्पन्न किये जाते हैं ॥ ३८ ॥ मोक्ष की कामना करने वाले विरक्त मुनि-महात्माओं के लिये सर्वसाधनसम्पन्न मानस-यज्ञ बताया गया है ॥ ३९ ॥

अन्य सभी यज्ञों में कुछ कमी हो भी सकती हैः क्योंकि वे द्रव्य, श्रद्धा, कर्म, ब्राह्मण, देश, काल तथा अन्य द्रव्यसाधनों से सम्पन्न किये जाते हैं। अतः अन्य यज्ञ वैसा पूर्ण नहीं होता, जैसा मानस-यज्ञ सदैव पूर्ण हो जाता है ॥ ४०-४१ ॥ [इस यज्ञ के लिये] सर्वप्रथम मन को परिशुद्ध तथा गुण से रहित बनाना चाहिये। मन के शुद्ध हो जाने पर शरीर की शुद्धि स्वतः हो जाती है, इसमें संशय नहीं है ॥ ४२ ॥ जब मनुष्य का मन इन्द्रियों के विषयों का परित्याग करके पवित्र हो जाता है, तभी वह उस मानस- यज्ञ को करने का अधिकारी होता है ॥ ४३ ॥ तत्पश्चातू वह अपने मन में पवित्र यज्ञीय वृक्षों से निर्मित, अनेक सुन्दर-सुन्दर स्तम्भों से अलंकृत तथा अनेक योजन विस्तार वाले यज्ञमण्डप की रचना करके उसमें मन-ही-मन एक विशाल यज्ञवेदी की कल्पना करे और उस पर मानसिक अग्नि की विधिपूर्वक स्थापना करे ॥ ४४-४५ ॥ उसी प्रकार [मन में] ब्राह्मणों का वरण करके ब्रह्मा, अध्वर्यु, होता, प्रस्तोता, उदगाता, प्रतिहर्ता तथा अन्य सभासदों को नियुक्त करके यथोचित रूप से प्रयत्नपूर्वक मन से उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ ४६-४७ ॥

प्राण, अपान, व्यान, समान तथा उदान — इन पाँचों अग्नियों को यज्ञवेदी पर विधानपूर्वक स्थापित करना चाहिये ॥ ४८ ॥ उनमें प्राण को गार्हपत्य अग्नि, अपान को आहवनीय अग्नि, व्यान को दक्षिणाग्नि, समान को आवसथ्य अग्नि तथा उदान को सभ्य अग्नि कहा गया है। ये पाँचों परम तेजस्वी हैं। इस यज्ञ में मानसिक रूप से ही दोषरहित तथा परम पवित्र सामग्रियों की भी कल्पना करनी चाहिये ॥ ४९-५० ॥ इस यज्ञ में होता तथा यजमान दोनों के रूप में मन ही होता है। निर्गुण तथा अविनाशी ब्रह्म इस यज्ञ में अधिदेवता होते हैं ॥ ५१ ॥ निर्गुणा पराशक्ति सभी फलों को प्रदान करने वाली हैं। उन वैराग्यदायिनी, कल्याणकारिणी, ब्रह्मविद्या, समस्त जगत्‌ की आधारस्वरूपा तथा जगत्‌ कों व्याप्त करके सर्वत्र विराजमान रहने वाली आदिशक्ति- स्वरूपा भगवती को प्रसन्न करने के उद्देश्य से द्विज को मनःकल्पित हवन-सामग्रियों की आहुति अपने प्राणरूपी अग्नि में देनी चाहिये ॥ ५२१/२ ॥ हे प्रभो! मानस हवन के पश्चात्‌ अपने मन को आलम्बनरहित करके कुण्डलिनी के मुखमार्ग से अर्थात्‌ सुषुम्ना रन्ध्रद्वार शाश्वत ब्रह्म में अपने प्राणों की भी आहुति दे देनी चाहिये ॥ ५३१/२ ॥ अपनी अनुभूति से स्वयं का साक्षात्कार करके तथा महेश्वरी को अपनी आत्मस्वरूपा जानकर समाधियोग से शान्तचित्त होकर ध्यान करना चाहिये ॥ ५४१/२

इस प्रकार जब वह साधक सभी प्राणियों में अपने-आपको तथा अपने में सभी प्राणियों को देखने लगता है, तब वह भूतात्मा उन कल्याणस्वरूपा भगवती का दर्शन प्राप्त कर लेता है और उन सच्चिदानन्दस्वरूपिणी का दर्शन करके ब्रह्मज्ञानी हो जाता है। हे भूपाल! तब उसका सब मायाजनित प्रपंच जलकर भस्म हो जाता है और केवल प्रारब्धकर्म का भोग करने के लिये ही शरीर रहता है ॥ ५५-५७ ॥ हे तात! तब वह जीवन्मुक्त हो जाता है और मृत्यु के उपरान्त मोक्ष प्राप्त करता है। जो भगवती को भजता है, वह सब प्रकार से कृतकृत्य हो जाता है। इसलिये गुरु के वचनों के अनुसार सम्पूर्ण प्रयत्न के साथ श्रीभुवनेश्वरी भगवती का ध्यान, उनके चरित्र का श्रवण तथा मनन करना चाहिये ॥ ५८-५९ ॥ हे राजन्‌! इस प्रकार किया हुआ यज्ञ मोक्षप्रद होता है; इसमें सन्देह नहीं। इसके अतिरिक्त अन्य सकाम यज्ञ विनाशोन्मुख होते हैं ॥ ६० ॥

मनीषी विद्वानू यह वेदानुशासन बताते हैं कि स्वर्ग की इच्छा वाले को विधिपूर्वक अग्निष्टोम यज्ञ करना चाहिये। मेरी समझ से पुण्य क्षीण होने पर पुनः उन्हें मृत्युलोक में आना ही पड़ता है, अतः अक्षय फल वाला वह मानस-यज्ञ ही श्रेष्ठ है ॥ ६१-६२ ॥ विजय की इच्छा रखने वाला राजा इस मानस- यज्ञ को सम्पन्न नहीं कर सकता। हे राजन्‌! अभी कुछ ही समय पूर्व आपने तामस सर्पयज्ञ किया था, जिसमें आपने दुरात्मा तक्षक से वैर का बदला चुकाया था और उसमें आपने करोड़ों सर्पो को अम्नि में जलाकर मार डाला था ॥ ६३-६४ ॥ हे नृपश्रेष्ठ अब आप विधिपूर्वक विस्तृत देवीयज्ञ कीजिये, जिसे पूर्वकाल में सृष्टि के आरम्भ में भगवान्‌ विष्णु ने किया था ॥ ६५ ॥

हे राजेन्द्र! मैं आपको उसकी विधि बता रहा हूँ, आप वैसा कीजिये। हे राजेन्द्र! आपके यहाँ वेदों के पूर्ण ज्ञाता, विधि को जानने वाले, देवी के बीजमन्त्र के विधान के जानकार तथा मन्त्रमार्ग के विद्वान्‌ अनेक ब्राह्मण हैं, वे ही उस यज्ञ में आपके याजक होंगे और आप यजमान बनेंगे ॥ ६६-६७ ॥ हे महाराज! इस प्रकार आप विधिवत्‌ देवीयज्ञ करके उस यज्ञ से मिले हुए पुण्य को अर्पित करके अपने दुर्गतिप्राप्त पिता का उद्धार कीजिये ॥ ६८ ॥ ब्राह्मण के अपमान से होने वाला पाप बड़ा भयंकर और नरकदायक होता है। हे अनघ! आपके पिता वैसे ही शापजनित दोष से ग्रस्त हो चुके हैं; साथ ही साँप के काटने से महाराज की अकालमृत्यु हुई है और भूमि पर बिछे कुशासन पर नहीं अपितु आकाश में उनका मरण हुआ है, उनकी मृत्यु न रणस्थल में हुई है और न गंगातट पर ही अपितु हे कुरुश्रेष्ठ । आपके पिता बिना स्नान-दान आदि किये ही महल में मर गये ॥ ६९-७१ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! ये सब कुत्सित साधन नरक के हेतु हैं। राजा के लिये नरक से बचने का एक उपाय था; किंतु वह अत्यन्त दुर्लभ उपाय भी उनसे न बन सका ॥ ७२ ॥

जहाँ कहीं भी प्राणी स्थित रहे, काल को समीप आया जानकर साधनों के अभाव में भी अत्यन्त कष्ट के कारण विवश हुआ वह जब हृदय में वैराग्य-भाव आ जाय, तब निर्मल मन से यह सोचने लगे कि यह शरीर तो पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु-इन पंचभूतों से निर्मित है, तब फिर यह मेरे लिये क्‍या दुःखदायी हो सकता है !॥ ७३-७४ ॥ यह देह अभी नष्ट हो जाय; मैं तो मुक्त, निर्गुण तथा अविनाशी हूँ। ये पंचतत्त्व तो विनाशशील हैं, तब इनके लिये मुझे चिन्ता ही कया! मैं तो सदा मुक्त और सनातन ब्रह्म हूँ; संसारी जीव नहीं हूँ। इस देह से मेरा सम्बन्ध केवल कर्मभोग के कारण ही है। शरीर द्वारा किये गये उन सभी शुभाशुभ कर्मों का मेरा बन्धन तो छूट चुका है; क्योंकि मनुष्य शरीर से मैंने दुःख तथा सुख भोग लिया है और इस अत्यन्त भयानक, घोर तथा भीषण सांसारिक कष्ट से मैं सर्वथा विमुक्त हूँ, इस प्रकार का चिन्तन करता हुआ पुरुष यदि स्नान-दानरहित भी मृत्यु प्राप्त करता है तो भी वह पुनः जन्म लेने के दुःख से छूट जाता है। यह सर्वोत्कृष्ट साधन कहा गया है, जो योगियों के लिये भी दुर्लभ है ॥ ७५-७९ ॥

हे नृपसत्तम ! आपके पिता ने ब्राह्मण के द्वारा दिये गये उस शाप को सुनकर भी अपने शरीर के प्रति मोह रखा और वैराग्य का आश्रय नहीं लिया ॥ ८० ॥ उनकी यह प्रबल इच्छा थी कि मेरा यह शरीर सदा निरोग रहे, मैं निष्कंटक राज्य करता रहूँ और चिरकाल तक कैसे जीया रहूँ, [— इस भावना से उन्होंने सचिवों को आज्ञा दी कि सर्पविष उतारने का] मन्त्र जानने वालों को बुलाओ ॥ ८१ ॥ राजा ने औषध, मणि, मन्त्र तथा उत्तमोत्तम यन्त्रों का संग्रह किया और वे एक ऊँचे महल पर आरूढ़ हो गये। उस समय उन्होंने न स्नान किया, न दान दिया और न भगवती का स्मरण ही किया। दैव को प्रधान मानकर वे भूमि पर भी नहीं सोये ॥ ८२-८३ ॥ कलि के प्रभाव के कारण एक तपस्वी के प्रति अपमानजन्य पाप करके घोर मोहरूपी सागर में डूबकर महल के ऊपर सर्प के डँसने से वे मर गये। ऐसे आचरणों से अवश्य ही नरक होता है। इसलिये हे नृपश्रेष्ठ! अपने उन पिता का पाप से उद्धार कीजिये ॥ ८४-८५ ॥

सूतजी बोले — [ हे ऋषिगण !] अमित तेजस्वी व्यासजी का यह वचन सुनकर महाराज जनमेजय बड़े दुःखी हुए और अश्रुप्रवाह के कारण उनका कण्ठ रुँध गया। [मन में पश्चात्ताप करते हुए वे कहने लगे— ] आज मेरे इस जीवन को धिक्कार है जो कि मेरे पिता नरक में पड़े हैं। इसलिये अब मैं ऐसा उपाय करता हूँ, जिससे उत्तरातनय राजा परीक्षित्‌ स्वर्ग चले जायेँ ॥ ८६-८७ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का अम्बायज़विधिवर्णन नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥

1. गुणहीन होने का भाव । विगुणता । · अपराध । दोष । · नीचता । वाहियात- पन । · गुणों की भिन्नता । · अकुशलता ।

श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण
तृतीयः स्कन्धः द्वादशोऽध्यायः
अम्बायज्ञविधिवर्णनम्

॥ राजोवाच ॥
वद यज्ञविधिं सम्यग्देव्यास्तस्याः समन्ततः ।
श्रुत्वा करोम्यहं स्वामिन्यथाशक्ति ह्यतन्द्रितः ॥ १ ॥
पूजाविधिं च मन्त्रांश्‍च होमद्रव्यमसंशयम् ।
ब्राह्मणाः कतिसंख्याश्च दक्षिणाश्चतथा पुनः ॥ २ ॥
॥ व्यास उवाच ॥
शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि देव्या यज्ञं विधानतः ।
त्रिविधं तु सदा ज्ञेयं विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ ३ ॥
सात्त्विकं राजसं चैव तामसं च तथापरम् ।
मुनीनां सात्त्विकं प्रोक्तं नृपाणां राजसं स्मृतम् ॥ ४ ॥
तामसं राक्षसानां वै ज्ञानिनां तु गुणोज्झितम् ।
विमुक्तानां ज्ञानमयं विस्तरात्प्रब्रवीमि ते ॥ ५ ॥
देशः कालस्तथा द्रव्यं मन्त्राश्‍च ब्राह्मणास्तथा ।
श्रद्धा च सात्वकी यत्र तं यज्ञं सात्त्विकं विदुः ॥ ६ ॥
द्रव्यशुद्धिः क्रियाशुद्धिर्मन्त्रशुद्धिश्‍च भूमिप ।
भवेद्यदि तदा पूर्णं फलं भवति नान्यथा ॥ ७ ॥
अन्यायोपार्जितेनैव कर्तव्यं सुकृतं कृतम् ।
न कीर्तिरिह लोके च परलोके न तत्फलम् ॥ ८ ॥
तस्मान्न्यायार्जितेनैव कर्तव्यं सुकृतं सदा ।
यशसे परलोकाय भवत्येव सुखाय च ॥ ९ ॥
प्रत्यक्षं तव राजेन्द्र पाण्डवैस्तु मखः कृतः ।
राजसूयः क्रतुवरः समाप्तवरदक्षिणः ॥ १० ॥
यत्र साक्षाद्धरिः कृष्णो यादवेन्द्रो महामनाः ।
ब्राह्मणाः पूर्णविद्याश्‍च भारद्वाजादयस्तथा ॥ ११ ॥
कृत्वा यज्ञं सुसम्पूर्णं मासमात्रेण पाण्डवैः ।
प्राप्तं महत्तरं कष्टं वनवासश्‍च दारुणः ॥ १२ ॥
पीडनञ्चैव पाञ्चाल्यास्तथा द्यूते पराजयः ।
वनवासो महत्कष्टं क्व गतं मखजं फलम् ॥ १३ ॥
दासत्वञ्च विराटस्य कृतं सर्वमहात्मभिः ।
कीचकेन परिक्लिष्टा द्रौपदी च प्रमद्वरा ॥ १४ ॥
आशीर्वादा द्विजातीनां क्व गताः शुद्धचेतसाम् ।
भक्तिर्वा वासुदेवस्य क्व गता तत्र संकटे ॥ १५ ॥
न रक्षिता तदा बाला केनापि द्रुपदात्मजा ।
प्राप्तकेशग्रहा काले साध्वी च वरवर्णिनी ॥ १६ ॥
किमत्र चिन्तनीयं वै धर्मवैगुण्यकारणम् ।
केशवे सति देवेशे धर्मपुत्रे युधिष्ठिरे ॥ १७ ॥
भवितव्यमिति प्रोक्ते निष्फलः स्यात्तदागमः ।
वेदमन्त्रास्तथान्ये च वितथाः स्युरसंशयम् ॥ १८ ॥
साधनं निष्फलं सर्वमुपायश्च निरर्थकः ।
भवितव्यं भवत्येव वचने प्रतिपादके ॥ १९ ॥
आगमोऽप्यर्थवादः स्यात्क्रियाः सर्वा निरर्थकाः ।
स्वर्गार्थञ्च तपो व्यर्थं वर्णधर्मश्‍च वै तथा ॥ २० ॥
सर्वं प्रमाणं व्यर्थं स्याद्‌भवितव्ये कृते हृदि ।
उभयञ्चापि मन्तव्यं दैवं चोपाय एव च ॥ २१ ॥
कृते कर्मणि चेत्सिद्धिर्विपरिता यदा भवेत् ।
वैगुण्यं कल्पनीयं स्यात्प्राज्ञैः पण्डितमौलिभिः ॥ २२ ॥
तत्कर्म बहुधा प्रोक्तं विद्वद्‌भिः कर्मकारिभिः ।
कर्तृभेदान्मन्त्रभेदाद्‌द्रव्यभेदात्तथा पुनः ॥ २३ ॥
यथा मघवता पूर्वं विश्वरूपो वृतो गुरुः ।
विपरीतं कृतं तेन कर्म मातृहिताय वै ॥ २४ ॥
देवेभ्यो दानवेभ्यस्तु स्वस्तीत्युक्त्वा पुनः पुनः ।
असुरा मातृपक्षीयाः कृतं तेषाञ्च रक्षणम् ॥ २५ ॥
दैत्यान् दृष्ट्वातिसम्पुष्टांश्‍चुकोप मघवा तदा ।
शिरांसि तस्य वज्रेण चिच्‍छेद तरसा हरिः ॥ २६ ॥
क्रियावैगुण्यमत्रैव कर्तृभेदादसंशयम् ।
नोचेत्पञ्चालराजेन रोषेणापि कृता क्रिया ॥ २७ ॥
भारद्वाजविनाशाय पुत्रस्योत्पादनाय च ।
धृष्टद्युम्नः समुत्पन्नो वेदिमध्याच्च द्रौपदी ॥ २८ ॥
पुरा दशरथेनापि पुत्रेष्टिस्तु कृता यदा ।
अपुत्रस्य सुतास्तस्य चत्वारः सम्प्रजज्ञिरे ॥ २९ ॥
अतः क्रिया कृता युक्त्या सिद्धिदा सर्वथा भवेत् ।
अयुक्त्या विपरिता स्यात्सर्वथा नृपसत्तम ॥ ३० ॥
पाण्डवानां यथा यज्ञे किञ्चिद्वैगुण्ययोगतः ।
विपरीतं फलं प्राप्तं निर्जितास्ते दुरोदरे ॥ ३१ ॥
सत्यवादी तथा राजन् धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ।
द्रौपदी च तथा साध्वी तथान्येप्यनुजाः शुभाः ॥ ३२ ॥
कुद्रव्ययोगाद्वैगुण्यं समुत्पन्नं मखेऽथवा ।
साभिमानैः कृताद्वापि दूषणं समुपस्थितम् ॥ ३३ ॥
सात्त्विकस्तु महाराज दुर्लभो वै मखः स्मृतः ।
वैखानसमुनीनां हि विहितोऽसौ महामखः ॥ ३४ ॥
सात्त्विकं भोजनं ये वै नित्यं कुर्वन्ति तापसाः ।
न्यायार्जितञ्च वन्यञ्च तथा ऋष्यं सुसंस्कृतम् ॥ ३५ ॥
पुरोडाशपरा नित्यं वियूपा मन्त्रपूर्वकाः ।
श्रद्धाधिका मखा राजन् सात्त्विकाः परमाः स्मृताः ॥ ३६ ॥
राजसा द्रव्यबहुलाः सयूपाश्‍च सुसंस्कृताः ।
क्षत्रियाणां विशाञ्चैव साभिमानाश्‍च वै मखाः ॥ ३७ ॥
तामसा दानवानां वै सक्रोधा मदवर्धकाः ।
सामर्षाः संस्कृताः क्रूरा मखाः प्रोक्ता महात्मभिः ॥ ३८ ॥
मुनीनां मोक्षकामानां विरक्तानां महात्मनाम् ।
मानसस्तु स्मृतो यागः सर्वसाधनसंयुतः ॥ ३९ ॥
अन्येषु सर्वयज्ञेषु किञ्चिन्न्यूनं भवेदपि ।
द्रव्येण श्रद्धया वाऽपि क्रियया ब्राह्मणैस्तथा ॥ ४० ॥
देशकालपृथग्द्रव्यसाधनैः सकलैस्तथा ।
नान्यो भवति पूर्णे वै तथा भवति मानसः ॥ ४१ ॥
प्रथमं तु मनः शोध्यं कर्तव्यं गुणवर्जितम् ।
शुद्धे मनसि देहो वै शुद्ध एव न संशयः ॥ ४२ ॥
इन्द्रियार्थपरित्यक्तं यदा जातं मनः शुचि ।
तदा तस्य मखस्यासौ प्रभवेदधिकारवान् ॥ ४३ ॥
तदाऽसौ मण्डपं कृत्वा बहुयोजनविस्तृतम् ।
स्तम्भैश्‍च विपुलैः श्लक्ष्णैर्यज्ञियद्रुमसम्भवैः ॥ ४४ ॥
वेदीं च विशदां तत्र मनसा परिकल्पयेत् ।
अग्नयोऽपि तथा स्थाप्या विधिवन्मनसा किल ॥ ४५ ॥
ब्राह्मणानाञ्च वरणं तथैव प्रतिपाद्य च ।
ब्रह्माध्वर्युस्तथा होता प्रस्तोता विधिपूर्वकम् ॥ ४६ ॥
उद्‌गाता प्रतिहर्ता च सभ्याश्‍चान्ये यथाविधि ।
पूजनीयाः प्रयत्‍नेन मनसैव द्विजोत्तमाः ॥ ४७ ॥
प्राणोऽपानस्तथा व्यानः समानोदान एव च ।
पावकाः पञ्च एवैते स्थाप्या वेद्यां विधानतः ॥ ४८ ॥
गार्हपत्यस्तदा प्राणोऽपानश्‍चाहवनीयकः ।
दक्षिणाग्निस्तथा व्यानः समानश्‍चावसथ्यकः ॥ ४९ ॥
सभ्योदानः स्मृता ह्येते पावकाः परमोत्कटाः ।
द्रव्यञ्च मनसा भाव्यं निर्गुणं परमं शुचि ॥ ५० ॥
मन एव तदा होता यजमानस्तथैव तत् ।
यज्ञाधिदेवता ब्रह्म निर्गुणं च सनातनम् ॥ ५१ ॥
फलदा निर्गुणा शक्तिः सदा निर्वेददा शिवा ।
ब्रह्मविद्याखिलाधारा व्याप्य सर्वत्र संस्थिता ॥ ५२ ॥
तदुद्देशेन तद्‌द्रव्यं हुनेत्प्राणाग्निषु द्विजः ।
पश्‍चाच्चित्तं निरालम्बं कृत्वा प्राणानपि प्रभो ॥ ५३ ॥
कुण्डलीमुखमार्गेण हुनेद्‌ब्रह्मणि शाश्‍वते ।
स्वानुभूत्या स्वयं साक्षात्स्वात्मभूतां महेश्वरीम् ॥ ५४ ॥
समाधिनैव योगेन ध्यायेच्चेतस्यनाकुलः ।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ॥ ५५ ॥
यदा पश्यति भूतात्मा तदा पश्यति तां शिवाम् ।
दृष्ट्वा तां ब्रह्मविद्‌भूयात्सच्चिदानन्दरूपिणीम् ॥ ५६ ॥
तदा मायादिकं सर्वं दग्धं भवति भूमिप ।
प्रारब्धं कर्ममात्रं तु यावद्देहं च तिष्ठति ॥ ५७ ॥
जीवन्मुक्तस्तदा जातो मृतो मोक्षमवाप्नुयात् ।
कृतकृत्यो भवेत्तात यो भजेज्जगदम्बिकाम् ॥ ५८ ॥
तस्मात्सर्वप्रयत्‍नेन ध्येया श्रीभुवनेश्‍वरी ।
श्रोतव्या चैव मन्तव्या गुरुवाक्यानुसारतः ॥ ५९ ॥
राजन्नेवं कृतो यज्ञो मोक्षदो नात्र संशयः ।
अन्ये यज्ञाः सकामास्तु प्रभवन्ति क्षयोन्मुखाः ॥ ६० ॥
अग्निष्टोमेन विधिवत्स्वर्गकामो यजेदिति ।
वेदानुशासनं चैतत्प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ६१ ॥
क्षीणे पुण्ये मृत्युलोकं विशन्ति च यथामति ।
तस्मात्तु मानसः श्रेष्ठो यज्ञोऽप्यक्षय एव सः ॥ ६२ ॥
न राज्ञा साधितुं योग्यो मखोऽसौ जयमिच्छता ।
तामसस्तु कृतः पूर्वं सर्पयज्ञस्त्वयाधुना ॥ ६३ ॥
वैरं निर्वाहितं राजंस्तक्षकस्य दुरात्मनः ।
यत्कृते निहताः सर्पास्त्वया‍ऽग्नौ कोटिशः परे ॥ ६४ ॥
देवीयज्ञं कुरुष्वाद्य विततं विधिपूर्वकम् ।
विष्णुना यः कृतः पूर्वं सृष्ट्यादौ नृपसत्तम ॥ ६५ ॥
तथा त्वं कुरु राजेन्द्र विधिं ते प्रब्रवीम्यहम् ।
ब्राह्मणाः सन्ति राजेन्द्र विधिज्ञा वेदवित्तमाः ॥ ६६ ॥
देवीबीजविधानज्ञा मन्त्रमार्गविचक्षणाः ।
याजकास्ते भविष्यन्ति यजमानस्त्वमेव हि ॥ ६७ ॥
कृत्वा यज्ञं विधानेन दत्त्वा पुण्य़ं मखार्जितम् ।
समुद्धर महाराज पितरं दुर्गतिङ्गतम् ॥ ६८ ॥
विप्रावमानजं पापं दुर्घटं नरकप्रदम् ।
तथैव शापजो दोषः प्राप्तः पित्रा तवानघ ॥ ६९ ॥
तथा दुर्मरणं प्राप्तं सर्पदंशेन भूभुजा ।
अन्तराले तथा मृत्यूर्न भूमौ कुशसंस्तरे ॥ ७० ॥
न सङ्ग्रामे न गङ्गायां स्नानदानादिवर्जितम् ।
मरणं ते पितुस्तत्र सौधे जातं कुरूद्वह ॥ ७१ ॥
कृपणानि च सर्वाणि नरकस्य नृपोत्तम ।
तत्रैकं कारणं तस्य न जातं चातिदुर्लभम् ॥ ७२ ॥
यत्र यत्र स्थितःप्राणो ज्ञात्वा कालं समागतम् ।
साधनानामभावेऽपि ह्यवशश्‍चातिसङ्कटे ॥ ७३ ॥
यदा निर्वेदमायाति मनसा निर्मलेन वै ।
पञ्चभूतात्मको देहो मम किञ्चात्र दुःखदम् ॥ ७४ ॥
पतत्वद्य यथाकामं मुक्तोऽहं निर्गुणोऽव्ययः ।
नाशात्मकानि तत्त्वानि तत्र का परिदेवना ॥ ७५ ॥
ब्रह्मैवाहं न संसारी सदा मुक्तः सनातनः ।
देहेन मम सम्बन्धः कर्मणा प्रतिपादितः ॥ ७६ ॥
तानि सर्वाणि मुक्तानि शुभानि चेतराणि च ।
मनुष्यदेहयोगेन सुखदुःखानुसाधनात् ॥ ७७ ॥
विमुक्तोऽतिभयाद्‌घोरादस्मात्संसारसङ्कटात् ।
इत्येवं चिन्त्यमानस्तु स्नानदानविवर्जितः ॥ ७८ ॥
मरणं चेदवाप्नोति स मुच्च्येज्जन्मदुःखतः ।
एषा काष्ठा परा प्रोक्ता योगिनामपि दुर्लभा ॥ ७९ ॥
पिता ते नृपशार्दूल श्रुत्वा शापं द्विजोदितम् ।
देहे ममत्वं कृतवान्न निर्वेदमवाप्तवान् ॥ ८० ॥
नीरोगो मम देहोऽयं राज्यं निहतकण्टकम् ।
कथं जीवाम्यहं कामं मन्त्रज्ञानानयन्तु वै ॥ ८१ ॥
औषधं मणिमन्त्रं च यन्त्रं परमकं तथा ।
आरोहणं तथा सौधे कृतवान्नृपतिस्तदा ॥ ८२ ॥
न स्नानं न कृतं दानं न देव्याः स्मरणं कृतम् ।
न भूमौ शयनं चैव दैवं मत्वा परं तथा ॥ ८३ ॥
मग्नो मोहार्णवे घोरे मृतः सौधेऽहिना हतः ।
कृत्वा पापं कलेर्योगात्तापसस्यावमानजम् ॥ ८४ ॥
अवश्यमेव नरकं एतैराचरणैर्भवेत् ।
तस्मात्तं पितरं पापात्समुद्धर नृपोत्तम ॥ ८५ ॥
॥ सूत उवाच ॥
इति श्रुत्वा वचस्तस्य व्यासस्यामिततेजसः ।
साश्रुकण्ठोऽतिदुःखार्तो बभूव जनमेजयः ॥ ८६ ॥
धिगिदं जीवितं मेऽद्य पिता मे नरके स्थितः ।
तत्करोमि यथैवाद्य स्वर्गं यात्युत्तरासुतः ॥ ८७ ॥
॥ इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे अम्बायज्ञविधिवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

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