श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-01
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-प्रथमोऽध्यायः
पहला अध्याय
व्यासजी द्वारा त्रिदेवों की तुलना में भगवती की उत्तमता का वर्णन
योगमायाप्रभाववर्णनम्

ऋषिगण बोले — हे सूतजी ! आपने यह बहुत ही उत्तम कथा कही, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण के सर्वपापविनाशक तथा अलौकिक चरित्र का वर्णन है ॥ १ ॥ हे महाभाग! हे महामते! [ आपके द्वारा ] विस्तारपूर्वक कहे जा रहे श्रीकृष्ण के इस कथानक में हमें सन्देह हो रहा है ॥ २ ॥ [ एक तो ] विष्णु के अंशावतार श्रीकृष्ण ने वन में जाकर घोर तप किया और शिव की आराधना की; पुनः जगज्जननी श्रीदेवी भगवती पूर्णा की अंशस्वरूपा देवी पार्वती ने श्रीकृष्ण को जो वरदान दिया; ईश्वर होते हुए भी श्रीकृष्ण ने शिव तथा पार्वती की उपासना क्यों की? क्या श्रीकृष्ण में शिव की अपेक्षा कोई न्यूनता थी ? यही हमारा सन्देह है ॥ ३-५ ॥

सूतजी बोले — हे महाभाग मुनिगण ! व्यासजी से इसका जो कारण मैंने सुना है, उसे आपलोग सुनिये। अब मैं भगवान् श्रीकृष्ण के गुणों से परिपूर्ण कथा कहता हूँ ॥ ६ ॥ व्यासजी से यह वृत्तान्त सुनकर प्रतिभावान् राजा जनमेजय और भी अधिक सन्देह में पड़ गये; तब उन्होंने फिर पूछा ॥ ७ ॥

जनमेजय बोले — हे सत्यवतीतनय व्यासजी ! मैंने परमकारणस्वरूपा भगवती के विषय में सुना। फिर भी मन की वृत्ति संशय से मुक्त नहीं हो पा रही है ॥ ८ ॥ हे महाभाग ! मुझे यह महान् विस्मय है कि देवों के भी देव विष्णु के अंश से उत्पन्न श्रीकृष्ण ने अति उग्र तपस्या करके भगवान् शिव की आराधना की। जो सभी जीवों की आत्मा, सभी के ईश्वर और सभी प्रकार की सिद्धियाँ देने वाले हैं — उन भगवान् कृष्ण ने भी सामान्य प्राणियों की भाँति घोर तप क्यों किया ? भगवान् श्रीकृष्ण तो जगत् का सृजन, पालन तथा संहार करने में समर्थ हैं; तब भी उन्होंने इतनी उग्र तपस्या किसलिये की ? ॥ ९-११ ॥

व्यासजी बोले — हे राजन् ! आपने सत्य कहा है। दैत्यदमन भगवान् वासुदेव देवताओं के सभी कार्य करने में समर्थ थे; फिर भी उन परमेश्वर श्रीकृष्ण ने मानव – देह धारण करने के कारण वर्णाश्रमधर्म से सम्बन्धित मानवोचित कार्य सम्पादित किये थे। उन्होंने वृद्धजनों की पूजा, गुरुजनों की चरण-वन्दना, ब्राह्मणों की सेवा तथा देवताओं की आराधना की। शोक के अवसर पर वे शोकाकुल हुए तथा हर्ष की स्थिति में हर्षित हुए। [ अवसर के अनुसार ] उन्होंने दीनता का प्रदर्शन किया, नानाविध लोकापवादों को सहन किया तथा अपनी स्त्रियों के साथ लीला-विहार किया । जिस प्रकार मानव में समय-समय पर काम, क्रोध तथा लोभ होते रहते हैं, उसी प्रकार के भाव उनके भी मन में जाग्रत् हुए; क्योंकि गुणमय देह में निर्गुणत्व कैसे हो सकता है ? ॥ १२-१६ ॥ सुबलसुता गान्धारी तथा ब्राह्मण अष्टावक्र के शापजनित दोष के कारण यादवों का विनाश हुआ और भगवान् कृष्ण को देह त्याग करना पड़ा ॥ १७ ॥

हे राजन् ! उसी प्रकार उनकी स्त्रियों का हरण हुआ, उनका धन लूट लिया गया तथा अर्जुन उन लुटेरों पर अपना अस्त्र चलाने में पुरुषार्थहीन हो गये ॥ १८ ॥ श्रीकृष्ण को अपने घर से प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के हरण की जानकारी नहीं हो पायी। इस प्रकार यह मानव-शरीर पाकर उन्होंने साधारण प्राणी की भाँति सभी मानवीय चेष्टाओं का प्रदर्शन किया ॥ १९ ॥ तब भगवान् विष्णु के अंशावतार तथा साक्षात् नारायण के अंश से उत्पन्न इन श्रीकृष्ण ने यदि शिवजी की उपासना की तो इसमें आश्चर्य क्या ? ॥ २० ॥ वे प्रभु सबके ईश्वर हैं तथा विष्णु की भी उत्पत्ति के कारण हैं। वे सुषुप्तस्थान ( कारण – देह) – के स्वामी हैं। इसीलिये वे विष्णु के द्वारा भी पूजित हैं। कृष्ण आदि उन्हीं विष्णु के अंश से अवतीर्ण हैं तब वे शिव की पूजा क्यों नहीं करेंगे ? ॐकार का ‘अ’ ब्रह्मा का रूप है, ‘उ’ विष्णु का रूप है, ‘म्’ भगवान् शिव का रूप है और अर्धमात्रा ( चन्द्रबिन्दु) भगवती महेश्वरी का रूप है। ये उत्तरोत्तर क्रम से एक-दूसरे से उत्तम हैं — ऐसा विद्वानों ने कहा है ॥ २१–२३ ॥ अतएव समस्त शास्त्रों में देवी सर्वोत्तम मानी गयी हैं। वे भगवती बिन्दुरूप नित्य अर्धमात्रा में स्थित हैं, जो [ अर्धमात्रा ] विशेषरूप से उच्चारित नहीं की जा सकती ॥ २४ ॥ ब्रह्माजी से भी बढ़कर विष्णु तथा विष्णु से भी बढ़कर भगवान् शिव हैं। अतः श्रीकृष्ण द्वारा शिव की आराधना में किसी प्रकार का सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ २५ ॥

सृजन – कार्य के लिये जब ब्रह्माजी ने शिव की उपासना की तब इच्छापूर्वक उन्हें वरदान देने के लिये शिवजी उन्हीं के मुख से प्रकट हो गये, जो मूलरुद्र कहलाये । पुनः उन मूलरुद्र के अंश से द्वितीय रुद्र उत्पन्न हुए। वे रुद्रदेव भी सबके पूजनीय हैं तो फिर मूलरुद्र के विषय में कहना ही क्या ? देवीतत्त्व के सांनिध्य में रहने के कारण ही शिवजी में उत्तमता कही गयी है ॥ २६-२७ ॥ भगवती योगमाया के ही प्रभाव से प्रत्येक युग में भगवान् विष्णु के विभिन्न अवतार होते रहते हैं; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ २८ ॥ अत्यन्त निगूढ रहस्यों वाली जो भगवती अप्रत्यक्षरूप से नेत्र की पलक झपनेमात्र में भलीभाँति जगत्‌ की उत्पत्ति, पालन तथा संहार कर देती हैं; वे ही ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव को अनेकविध रूपों में अवतार ग्रहण करने में निरन्तर दुःखों से व्याकुल करती रहती हैं ॥ २९ ॥ इन्हीं योगमाया के द्वारा श्रीकृष्ण को प्रसूतिगृह से निकालकर गोपराज नन्द के भवन में पहुँचाकर उनकी रक्षा की गयी। वे योगमाया ही कंस के विनाशार्थ श्रीकृष्ण को मथुरा ले गयीं । जरासन्ध से अत्यन्त भयाक्रान्त चित्तवाले श्रीकृष्ण को द्वारका बनाने की प्रेरणा भी उन्हीं भगवती ने दी ॥ ३० ॥ उन्होंने ही अपनी कला-शक्ति से सोलह हजार पचास रानियों तथा आठ पटरानियों की रचना करके पुनः भगवान् श्रीकृष्ण को उनके विलास के वशीभूत करके उन अनन्त शक्तिसम्पन्न श्रीकृष्ण को उनका वशवर्ती बना दिया ॥ ३१ ॥

केवल एक ही युवती अपने लौहमय सुदृढ़ पाश में पुरुष को बाँध सकने में समर्थ है तो फिर जिसकी सोलह हजार पचास भार्याएँ हों उसके विषय में क्या कहना ? वे सब तो उस पुरुष को पालित तोते की भाँति अपनी इच्छा के अनुरूप नियन्त्रित कर ही सकती हैं ॥ ३२ ॥ सत्राजित् की पुत्री सत्यभामा के वशीभूत श्रीकृष्ण उसके कहने पर प्रसन्नतापूर्वक इन्द्र के भवन में पहुँच गये । वहाँ पर इन्द्र के साथ युद्ध करके उन्होंने तरुराज कल्पवृक्ष छीन लिया और उससे अपनी प्रिया सत्यभामा के महल को सुशोभित किया ॥ ३३ ॥ समस्त धार्मिक अनुष्ठानों को विधिपूर्वक करने की इच्छावाले भगवान् श्रीकृष्ण ने शिशुपाल आदि वीरों को जीतकर [ पूर्वतः वाग्दत्ता ] रुक्मिणी का हरण कर लिया और अपने बल के प्रभाव से उसे अपनी धर्मपत्नी के रूप में ग्रहण किया। किसी दूसरे की भार्या हरण करने की यह कौन-सी विधि निर्मित हो गयी ? ॥ ३४ ॥ अत्यन्त दारुण अध: पतन कराने वाले मोहजाल से विमोहित तथा अहंकार के वशीभूत मनुष्य नानाविध शुभ तथा अशुभ कार्य करता है ॥ ३५ ॥ मूलप्रकृतिजन्य उग्र अहंकार से ही इस स्थावर- जंगमात्मक जगत् की उत्पत्ति हुई है और इसी से विष्णु, शिव आदि देवों का भी प्रादुर्भाव हुआ है ॥ ३६ ॥

जब ब्रह्माजी पूर्णरूप से अहंकार से रहित होते हैं, तब वे सृष्टि के निर्माण-कार्य से मुक्त हो जाते हैं; अन्यथा अहंकार के वशवर्ती होकर वे सृष्टि रचना में प्रवृत्त रहते हैं ॥ ३७ ॥ उस अहंकार से मुक्त प्राणी सांसारिक बन्धन से छूट जाता है और उसके वशीभूत हुआ प्राणी सांसारिक बन्धन में पड़ जाता है। हे राजन् ! स्त्री, धन, घर, पुत्र तथा सहोदर भाई – ये सब बन्धन के मूल कारण नहीं हैं, अपितु अहंकार ही प्राणियों के लिये बन्धनकारी वस्तु है। मैं ही कर्ता हूँ, यह कार्य मैंने अपने ही सामर्थ्य से पूरा किया है, यह कार्य पूरा कर लूँगा, यह कार्य अभी कर लेता हूँ-इन भावनाओं के कारण प्राणी स्वयं बँधता चला जाता है। कोई भी कार्य बिना कारण के कदापि नहीं होता है, जैसे मिट्टी के पिण्ड के बिना घड़ा न तो बन सकता है, न दिखायी पड़ सकता है ॥ ३८–४०१/२

जब भगवान् विष्णु अहंकार के वशवर्ती होते हैं तभी वे विश्व का पालन करने में समर्थ होते हैं। नहीं तो वे सदा [सृष्टिपालन के] चिन्तारूपी समुद्र में डूबे क्यों रहते ? ॥ ४११/२

अहंकारमुक्त होकर यदि वे मनुष्यरूप ग्रहण करें तो निर्मलचित्त हुए वे अवतार – प्रवाह में होने वाले ( सुख- दुःखादि)-में कैसे डूबें-उतराएँ ? ॥ ४२१/२

अहंकार ही अज्ञान का मूल कारण है तथा उसी से इस जगत् की उत्पत्ति हुई है। अहंकार से विहीन प्राणी को अज्ञानता तथा सांसारिक बन्धन- दोनों ही नहीं होते ॥ ४३१/२

हे महाराज ! इस जगत् में सत्त्वगुणी, रजोगुणी तथा तमोगुणी – ये तीन प्रकार के पुरुष कहे गये हैं । हे राजेन्द्र ! सृष्टि, पालन तथा संहारकार्य सम्पन्न करने वाले ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि तीनों देवताओं में भी ये तीन गुण सदा विद्यमान रहते हैं । तत्त्वदर्शी मुनियों ने अहंकार को ही जगत् की उत्पत्ति का परम कारण बताया है। अतएव इसमें सन्देह नहीं है कि ये ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश भी उसी अहंकार से आबद्ध हैं ॥ ४४-४६ ॥ माया से विमोहित मन्द बुद्धिवाले कुछ मनीषी कहते हैं कि भगवान् विष्णु अपनी इच्छा से नानाविध अवतार ग्रहण करते हैं, किंतु जब कोई मन्दमति प्राणी भी अतिशय दुःखप्रद गर्भ में निवास करना पसन्द नहीं करता तो फिर सर्वविद्यासम्पन्न वे चक्रधारी भगवान् विष्णु अवतार ग्रहण करना क्यों चाहेंगे ? ॥ ४७-४८ ॥ कुछ लोग कहते हैं कि भगवान् विष्णु अपनी इच्छा से कौसल्या तथा देवकी के मल-मूत्र से परिपूर्ण गर्भ में आये थे । किंतु वैकुण्ठ – भवन छोड़कर करोड़ों चिन्ताओं के आगार विषतुल्य दुःखदायक गर्भवास में आने से उन्हें कौन – सा सुख प्राप्त हुआ होगा ? ॥ ४९-५० ॥ जब साधारण प्राणी भी तपस्या करके, विविध प्रकार के यज्ञ सम्पन्न करके तथा नाना प्रकार के दान देकर अत्यन्त दुःखद गर्भवास नहीं चाहते तब यदि भगवान् विष्णु स्वतन्त्र होते तो उस गर्भवास को क्यों चाहते ? यदि वे अपने वश में होते तो गर्भवास के प्रति उनकी रुचि क्यों होती ? ॥ ५१-५२ ॥

अतः हे महाराज ! आप यह जान लीजिये कि ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सम्पूर्ण जगत्, सभी देव, मानव तथा पशु-पक्षी योगमाया आदिशक्ति भगवती के वश में हैं ॥ ५३ ॥ मकड़ी के तन्तुजाल में फँसे कीट की भाँति ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश आदि ये सभी देव उन भगवती की लीला से मायारूपी बन्धन में पड़ जाते हैं और आवागमन के चक्र में भ्रमण करते रहते हैं ॥ ५४ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘योगमायाप्रभाववर्णन’ नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥

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