January 20, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – प्रथम स्कन्ध – अध्याय ३ ॐ श्रीपरमात्मने नम : ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय तीसरा अध्याय भगवान् के अवतारों का वर्णन श्रीसूतजी कहते हैं — सृष्टि के आदि में भगवान् ने लोक के निर्माण की इच्छा की । इच्छा होते ही उन्होंने महत्तत्त्व आदि से निष्पन्न पुरुषरूप ग्रहण किया । उसमें दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच भूत — ये सोलह कलाएँ थीं ॥ १ ॥ उन्होंने कारण-जल में शयन करते हुए जब योगनिद्रा का विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवर में से एक कमल प्रकट हुआ और उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए ॥ २ ॥ भगवान् के उस विराट्रुप के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में ही समस्त लोकों की कल्पना की गयी हैं, वह भगवान् का विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप है ॥ ३ ॥ योगीलोग दिव्यदृष्टि से भगवान् के उस रूप का दर्शन करते हैं । भगवान् का वह रूप हजारों पैर, जाँघें, भुजाएँ और मुखों के कारण अत्यन्त विलक्षण है; उसमें सहस्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएँ हैं । हजारों मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभूषणों से वह उल्लसित रहता है ॥ ४ ॥ भगवान् का यही पुरुषरूप, जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है—इसीसे सारे अवतार प्रकट होते हैं । इस रूप के छोटे-से-छोटे अंश से देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों की सृष्टि होती है ॥ ५ ॥ उन्हीं प्रभु ने पहले कौमारसर्ग में सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार — इन चार ब्राह्मणों के रूप में अवतार ग्रहण करके अत्यन्त कठिन अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया ॥ ६ ॥ दूसरी बार इस संसार के कल्याण के लिये समस्त यज्ञों के स्वामी उन भगवान् ने ही रसातल में गयी हुई पृथ्वी को निकाल लाने के विचार से सूकररूप ग्रहण किया ॥ ७ ॥ ऋषियों की सृष्टि में उन्होंने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और ‘सात्वत तन्त्र’ का (जिसे ‘नारद-पांचरात्र’ कहते हैं) उपदेश किया; उसमें कर्मों के द्वारा किस प्रकार कर्मबन्धन से मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है ॥ ८ ॥ धर्मपत्नी मूर्ति के गर्भ से उन्होंने नर-नारायण के रूप में चौथा अवतार ग्रहण किया । इस अवतार में उन्होंने ऋषि बनकर मन और इन्द्रियाँ का सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की ॥ ९ ॥ पाँचवें अवतार में वे सिद्धों के स्वामी कपिल के रूपमें प्रकट हुए और तत्त्व का निर्णय करनेवाले सांख्य-शास्त्र का, जो समय के फेर से लुप्त हो गया था, आसुरि नामक ब्राह्मण को उपदेश किया ॥ १० ॥ अनसूया के वर माँगने पर छठे अवतार में वे अत्रि की सन्तान-दत्तात्रेय हुए । इस अवतार में उन्होंने अलर्क एवं प्रह्लाद आदि को ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया ॥ ११ ॥ सातवीं बार रुचि प्रजापति की आकूति नामक पत्नी से यज्ञ के रूप में उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वायम्भुव मन्वन्तर की रक्षा की ॥ १२ ॥ राजा नाभि की पत्नी मेरु देवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में भगवान् ने आठवाँ अवतार ग्रहण किया । इस रूप में उन्होंने परमहंसों का वह मार्ग, जो सभी आश्रमियों के लिये वन्दनीय है, दिखाया ॥ १३ ॥ ऋषियों की प्रार्थना से नवीं बार वे राजा पृथु के रूप में अवतीर्ण हुए । शौनकादि ऋषियों ! इस अवतार में उन्होंने पृथ्वी से समस्त ओषधियों का दोहन किया था. इससे यह अवतार सबके लिये बड़ा ही कल्याणकारी हुआ ॥ १४ ॥ चाक्षुष मन्वन्तर के अन्त में जब सारी त्रिलोकी समुद्र में डूब रही थी, तब उन्होंने मत्स्य के रूप में दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वीरूपी नौका पर बैठाकर अगले मन्तन्तर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की ॥ १५ ॥ जिस समय देवता और दैत्य समुद्र-मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छपरूप से भगवान् ने मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया ॥ १६ ॥ बारहवीं बार धन्वन्तरि के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए और तेरहवीं बार मोहिनीरूप धारण करके दैत्यों को मोहित करते हुए देवताओं को अमृत पिलाया ॥ १७ ॥ चौदहवें अवतार में उन्होंने नरसिंह रूप धारण किया और अत्यन्त बलवान् दैत्यराज हिरण्यकशिपु की छाती अपने नखों से अनायास इस प्रकार फाड़ डाली, जैसे चटाई बनानेवाला सींक को चीर डालता हैं ॥ १८ ॥ पंद्रहवीं बार वामन का रूप धारण करके भगवान् दैत्यराज बलि के यज्ञ में गये । वे चाहते तो थे त्रिलोकी का राज्य, परन्तु माँगीं उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी ॥ १९ ॥ सोलहवें परशुराम अवतार में जब उन्होंने देखा कि राजालोग ब्राह्मणों के द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से शून्य कर दिया ॥ २० ॥ इसके बाद सत्रहवें अवतार में सत्यवती के गर्भ से पराशरजी के द्वारा वे व्यास के रूप में अवतीर्ण हुए । उस समय लोगों की समझ और धारणाशक्ति कम देखकर आपने वेदरूप वृक्ष की कई शाखाएँ बना दीं ॥ २१ ॥ अठारहवीं बार देवताओं का कार्य सम्पन्न करने की इच्छा से उन्होंने राजा के रूप में रामावतार ग्रहण किया और सेतु-बन्धन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत-सी लीलाएँ कीं ॥ २२ ॥ उन्नीसवें और बीसवें अवतारों में उन्होंने यदुवंश में बलराम और श्रीकृष्ण के नाम से प्रकट होकर पृथ्वी का भार उतारा ॥ २३ ॥ उसके बाद कलियुग आ जाने पर मगधदेश (बिहार) में देवताओं के द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिये अजन के पुत्ररूप में आपका बुद्धावतार होगा ॥ २४ ॥ इसके भी बहुत पीछे जब कलियुग का अन्त समीप होगा और राजा लोग प्रायः लुटेरे हो जायेंगे, तब जगत् के रक्षक भगवान् विष्णुयश नामक ब्राह्मण के घर कल्किरूप में अवतीर्ण होंगे ॥ २५॥ शौनकादि ऋषियों ! जैसे अगाध सरोवर से हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सन्तनिधि भगवान् श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं ॥ २६ ॥ ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली है, वे सब-के-सव भगवान् के ही अंश हैं ॥ २७ ॥ ये सब अवतार तो भगवान् के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान् (अवतारी) ही हैं । जब लोग दैत्यों के अत्याचार से व्याकुल हो उठते हैं, तब युग-युग में अनेक रूप धारण करके भगवान् उनकी रक्षा करते हैं ॥ २८ ॥ भगवान् के दिव्य जन्मों की यह कथा अत्यन्त गोपनीय-रहस्यमयी है, जो मनुष्य एकाग्रचित्त से नियमपूर्वक सायंकाल और प्रातःकाल प्रेम से इसका पाठ करता है, वह सब दुःखों से छूट जाता है ॥ २९ ॥ प्राकृत स्वरूपरहित चिन्मय भगवान् का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी माया के महत्तत्त्वादि गुणों से भगवान् में ही कल्पित हैं ॥ ३० ॥ जैसे बादल वायु के आश्रय रहते हैं और धूसरपना धूल में होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलों का आकाश में और धूसरपने का वायु में आरोप करते हैं वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मा में स्थूल दृश्यरूप जगत् का आरोप करते हैं ॥ ३१ ॥ इस स्थूल रूप से परे भगवान् का एक सूक्ष्म अव्यक्त रूप है जो न तो स्थूल की तरह आकारादि गुणोंवाला है और न देखने, सुनने में ही आ सकता है; वही सूक्ष्मशरीर है । आत्मा का आरोप या प्रवेश होने से यही जीव कहलाता है और इसीका बार-बार जन्म होता है ॥ ३२ ॥ उपर्युक्त सूक्ष्म और स्थूल शरीर अविद्या से ही आत्मा में आरोपित है । जिस अवस्था में आत्मस्वरूप के ज्ञान से यह आरोप दूर हो जाता है, उसी समय ब्रह्म का साक्षात्कार होता है ॥ ३३ ॥ तत्त्वज्ञानी लोग जानते हैं कि जिस समय यह बुद्धिरूपा परमेश्वर को माया निवृत्त हो जाती हैं, उस समय जीव परमानन्दमय हो जाता है और अपनी स्वरूप-महिमा में प्रतिष्ठित होता है ॥ ३४ ॥ वास्तव में जिनके जन्म नहीं हैं और कर्म भी नहीं हैं, उन हृदयेश्वर भगवान् के अप्राकृत जन्म और कर्मों का तत्त्वज्ञानी लोग इसी प्रकार वर्णन करते हैं; क्योंकि उनके जन्म और कर्म वेदों के अत्यन्त गोपनीय रहस्य हैं ॥ ३५ ॥ भगवान् की लीला अमोघ है । वे लीला से ही इस संसार का सृजन, पालन और संहार करते हैं, किंतु इसमें आसक्त नहीं होते । प्राणियों के अन्तःकरण में छिपे रहकर ज्ञानेन्द्रिय और मन के नियन्ता के रूप में उनके विषयों को ग्रहण भी करते हैं, परंतु उनसे अलग रहते हैं, वे परम स्वतन्त्र हैं — ये विषय कभी उन्हें लिप्त नहीं कर सकते ॥ ३६ ॥ जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नट के सङ्कल्प और वचनों से की हुई करामात को नहीं समझ पाता, वैसे ही अपने संकल्प और वेदवाणी के द्वारा भगवान् के प्रकट किये हुए इन नाना नाम और रूपों को तथा उनकी लीलाओं को कुबुद्धि जीव बहुत-सी तर्कयुक्तियों के द्वारा नही पहचान सकता ॥ ३७ ॥ चक्रपाणि । भगवान् शक्ति और पराक्रम अनन्त हैं-उनकी कोई थाह नहीं पा सकता । वे सारे जगत् के निर्माता होनेपर भी उससे सर्वथा परे हैं । उनके स्वरूप को अथवा उनकी लीला के रहस्य को वही जान सकता है, जो नित्य-निरन्तर निष्कपट भावसे उनके चरणकमलों की दिव्य गन्ध का सेवन करता है— सेवा-भाव से उनके चरणों का चिन्तन करता रहता है ॥ ३८ ॥ शौनकादि ऋषियों ! आपलोग बड़े ही सौभाग्यशाली तथा धन्य हैं जो इस जीवन में और विघ्न-बाधाओं से भरे इस संसार में समस्त लोकों के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण से वह सर्वात्मक आत्मभाव, वह अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते हैं, जिससे फिर इस जन्म-मरणरूप संसार के भयंकर चक्र में नहीं पड़ना होता ॥ ३९ ॥ भगवान् वेदव्यास ने यह वेदों के समान भगवच्चरित्र से परिपूर्ण भागवत नाम का पुराण बनाया है ॥ ४० ॥ उन्होंने इस श्लाघनीय, कल्याणकारी और महान् पुराण को लोगों के परम कल्याण के लिये अपने आत्मज्ञानि-शिरोमणि पुत्र को ग्रहण कराया ॥ ४१ ॥ इसमें सारे वेद और इतिहास का सार-सार संग्रह किया गया है । शुकदेवजी ने राजा परीक्षित को यह सुनाया ॥ ४२ ॥ उस समय वे परमर्षियों से घिरे हुए आमरण अनशन का व्रत लेकर गङ्गातट पर बैठे हुए थे । भगवान् श्रीकृष्ण जब धर्म, ज्ञान आदि के साथ अपने परमधाम को पधार गये, तब इस कलियुग में जो लोग अज्ञानरूपी अंधकार से अंधे हो रहे हैं, उनके लिये यह पुराणरूपी सूर्य इस समय प्रकट हुआ है । शौनकादि ऋषियों ! जब महातेजस्वी श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ इस पुराण की कथा कह रहे थे, तब मैं भी वहाँ बैठा था । वहीं मैंने उनकी कृपापूर्ण अनुमति से इसका अध्ययन किया । मेरा जैसा अध्ययन है और मेरी बुद्धि ने जितना जिस प्रकार इसको ग्रहण किया है, उसीके अनुसार इसे में आपलोगों को सुनाऊँगा ॥ ४३-४५ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथम स्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने तृतीयोऽध्याय ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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