January 31, 2025 | aspundir | Leave a comment ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 24 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥ चौबीसवाँ अध्याय राजा अश्वपति द्वारा सावित्री की उपासना तथा फलस्वरूप सावित्री नामक कन्या की उत्पत्ति, सत्यवान् के साथ सावित्री का विवाह, सत्यवान् की मृत्यु, सावित्री और यमराज का संवाद भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! जब राजा अश्वपति ने विधिपूर्वक भगवती सावित्री की पूजा करके इस स्तोत्र से उनका स्तवन किया, तब देवी उनके सामने प्रकट हो गयीं। उनका श्रीविग्रह ऐसा प्रकाशमान था, मानो हजारों सूर्य एक साथ उदित हो गये हों। साध्वी सावित्री अत्यन्त प्रसन्न होकर हँसती हुई राजा अश्वपति से इस प्रकार बोलीं, मानो माता अपने पुत्र से बात कर रही हो । उस समय देवी सावित्री की प्रभा से चारों दिशाएँ उद्भासित हो रही थीं । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय देवी सावित्री ने कहा — महाराज ! तुम्हारे मन की जो अभिलाषा है, उसे मैं जानती हूँ । तुम्हारी पत्नी के सम्पूर्ण मनोरथ भी मुझसे छिपे नहीं हैं। अतः सब कुछ देने के लिये मैं निश्चितरूप से प्रस्तुत हूँ। राजन् ! तुम्हारी परम साध्वी रानी कन्या की अभिलाषा करती है और तुम पुत्र चाहते हो; क्रम से दोनों ही प्राप्त होंगे। इस प्रकार कहकर भगवती सावित्री ब्रह्मलोक में चली गयीं और राजा भी अपने घर लौट आये। यहाँ समयानुसार पहले कन्या का जन्म हुआ । भगवती सावित्री की आराधना से उत्पन्न हुई लक्ष्मी की कलास्वरूपा उस कन्या का नाम राजा अश्वपति ने सावित्री रखा। वह कन्या समयानुसार शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान प्रतिदिन बढ़ने लगी । समय पर उस सुन्दरी कन्या में नवयौवन के लक्षण प्रकट हो गये । द्युमत्सेनकुमार सत्यवान् का उसने पतिरूप में वरण किया; क्योंकि सत्यवान् सत्यवादी, सुशील एवं नाना प्रकार के उत्तम गुणों से सम्पन्न थे । राजा ने रत्नमय भूषणों से अलंकृत करके अपनी कन्या सावित्री सत्यवान् को समर्पित कर दी। सत्यवान् भी श्वशुर की ओर से मिले हुए बड़े भारी दहेज के साथ उस कन्या को लेकर अपने घर चले गये । एक वर्ष व्यतीत हो जाने के पश्चात् सत्यपराक्रमी सत्यवान् अपने पिता की आज्ञा के अनुसार हर्षपूर्वक फल और ईंधन लाने के लिये अरण्य में गये । उनके पीछे-पीछे साध्वी सावित्री भी गयी। दैववश सत्यवान् वृक्ष से गिरे और उनके प्राण प्रयाण कर गये। मुने! यमराज ने उनके अङ्गुष्ठ-सदृश जीवात्मा को सूक्ष्म शरीर के साथ बाँधकर यमपुरी के लिये प्रस्थान किया। तब साध्वी सावित्री भी उनके पीछे लग गयी। संयमनीपुरी के स्वामी साधु श्रेष्ठ यमराज ने सुन्दरी सावित्री को पीछे-पीछे आती देख मधुर वाणी में कहा । धर्मराज ने कहा — अहो सावित्री ! तुम इस मानव-देह से कहाँ जा रही हो ? यदि पतिदेव के साथ जाने की तुम्हारी इच्छा है तो पहले इस शरीर का त्याग कर दो। मर्त्यलोक का प्राणी इस पाञ्चभौतिक शरीर को लेकर मेरे लोक में नहीं जा सकता । नश्वर व्यक्ति नश्वर लोक में ही जाने का अधिकारी है। साध्वि ! तुम्हारा पति सत्यवान् भारतवर्ष में आया था। उसकी आयु अब पूर्ण हो चुकी, अतएव अपने किये हुए कर्म का फल भोगने के लिये अब वह मेरे लोक को जा रहा है । प्राणी का कर्म से ही जन्म होता है और कर्म से ही उसकी मृत्यु भी होती है । सुख, दुःख, भय और शोक- ये सब कर्म के अनुसार प्राप्त होते रहते हैं । कर्म के प्रभाव से जीव इन्द्र भी हो सकता है। अपना उत्तम कर्म उसे ब्रह्मपुत्र तक बनाने में समर्थ है। अपने शुभ कर्म की सहायता से प्राणी श्रीहरि का दास बनकर जन्म आदि विकारों से मुक्त हो सकता है । सम्पूर्ण सिद्धि, अमरत्व तथा श्रीहरि के सालोक्यादि चार प्रकार के पद भी अपने शुभ कर्म के प्रभाव से मिल सकते हैं। देवता, मनु, राजेन्द्र, शिव, गणेश, मुनीन्द्र, तपस्वी, क्षत्रिय, वैश्य, म्लेच्छ, स्थावर, जङ्गम, पर्वत, राक्षस, किन्नर, अधिपति, वृक्ष, पशु, किरात, अत्यन्त सूक्ष्म जन्तु, कीड़े, दैत्य, दानव तथा असुर – ये सभी योनियाँ प्राणी को अपने कर्म के अनुसार प्राप्त होती हैं। इसमें कुछ भी संशय नहीं है । इस प्रकार सावित्री से कहकर यमराज मौन हो गये । (अध्याय २४) ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे कर्मविपाके कर्मणः सर्वहेतुत्वप्रदर्शनं नाम चतुर्विंशतितमोऽध्यायः ॥ २४ ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Related