श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वादशः स्कन्धः-अध्याय-11
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-द्वादशः स्कन्धः-एकादशोऽध्यायः
ग्यारहवाँ अध्याय
मणिद्वीप के रत्नमय नौ प्राकारों का वर्णन
पद्मरागादिमणिविनिर्मितप्राकारवर्णनम्

व्यासजी बोले — पुष्परागनिर्मित प्राकार के आगे कुमकुम के समान अरुण विग्रह वाला पद्मरागमणियुक्त प्राकार है, जिसके मध्य में भूमि भी उसी प्रकार की है । अनेक गोपुर और द्वारों से युक्त यह प्राकार लम्बाई में दस योजन परिमाण वाला है । हे राजन् ! वहाँ उसी मणि से निर्मित खम्भों से युक्त सैकड़ों मण्डप विद्यमान हैं ॥ १-२ ॥ उसके मध्य की भूमि पर रत्नमय भूषणों से भूषित, अनेक आयुध धारण करने वाली तथा पराक्रमसम्पन्न चौंसठ कलाएँ विराजमान रहती हैं । उन कलाओं का एक-एक पृथक् लोक है और अपने-अपने लोक की वे अधीश्वरी हैं। वहाँ चारों ओर की सभी वस्तुएँ पद्म- रागमणि से निर्मित हैं । अपने-अपने लोक के वाहनों तथा आयुधों से युक्त वे कलाएँ अपने-अपने लोक के निवासियों से सदा घिरी रहती हैं। हे जनमेजय ! अब मैं उन कलाओं के नाम बता रहा हूँ; आप सुनें ॥ ३–५ ॥

पिंगलाक्षी, विशालाक्षी, समृद्धि, वृद्धि, श्रद्धा, स्वाहा, स्वधा, अभिख्या, माया, संज्ञा, वसुन्धरा, त्रिलोकधात्री, सावित्री, गायत्री, त्रिदशेश्वरी, सुरूपा, बहुरूपा, स्कन्दमाता, अच्युतप्रिया, विमला, अमला, अरुणी, आरुणी, प्रकृति, विकृति, सृष्टि, स्थिति, संहृति, सन्ध्यामाता, सती, हंसी, मर्दिका, परा वज्रिका, देवमाता, भगवती, देवकी, कमलासना, त्रिमुखी, सप्तमुखी, सुरासुरविमर्दिनी, लम्बोष्ठी, ऊर्ध्वकेशी, बहुशीर्षा, वृकोदरी, रथरेखा, शशिरेखा, गगनवेगा, पवनवेगा, भुवनपाला, मदनातुरा, अनंगा, अनंगमथना, अनंगमेखला, अनंगकुसुमा, विश्वरूपा, सुरादिका, क्षयंकरी, शक्ति, अक्षोभ्या, सत्यवादिनी, बहुरूपा, शुचिव्रता, उदारा और वागीशी — ये चौंसठ कलाएँ कही गयी हैं ॥ ६-१४ ॥

क्रोध के कारण अति रक्त नेत्रों वाली तथा प्रज्वलित जिह्वा से युक्त मुख वाली वे सभी कलाएँ प्रचण्ड अग्नि उगलती हुई सदा इन शब्दों का उच्चारण करती रहती हैं — ‘हम अभी सम्पूर्ण जल पी डालेंगी, हम अग्नि को नष्ट कर देंगी, हम वायु को रोक देंगी और समस्त संसार का भक्षण कर डालेंगी ‘ ॥ १५-१६ ॥

वे सभी कलाएँ धनुष-बाण धारण करके सदा युद्ध के लिये तत्पर रहती हैं और दाँतों के कटकटाने की ध्वनि से दिशाओं को बधिर – सी बना देती हैं ॥ १७ ॥ अपने हाथ में सदा धनुष और बाण धारण करने वाली ये शक्तियाँ पिंगलवर्ण के उठे हुए केशों से सम्पन्न कही गयी हैं । इनमें से एक-एक कला के पास सौ-सौ अक्षौहिणी सेना बतायी गयी है। लाखों ब्रह्माण्डों को नष्ट कर डालने की क्षमता एक-एक शक्ति में विद्यमान है। हे नृपश्रेष्ठ ! तो फिर वैसी शक्तियों से सम्पन्न सौ अक्षौहिणी सेना इस संसार में क्या नहीं कर सकती उसे बताने में मैं असमर्थ हूँ ॥ १८-१९१/२ ॥ हे मुने! युद्ध की समस्त सामग्री उस पद्मराग के प्राकार में सदा विद्यमान रहती है । उसमें रथों, घोड़ों, हाथियों और शस्त्रों की गणना नहीं है । उसी प्रकार गणों की भी कोई गणना नहीं है ॥ २०-२१ ॥

इस पद्मरागमय प्राकार के आगे गोमेदमणि से निर्मित दस योजन लम्बा एक परकोटा है, जो प्रभायुक्त जपाकुसुम के समान कान्तिमान् है। इसके मध्य की भूमि भी वैसी ही है। वहाँ के निवासियों के भवन, पक्षी, उत्तम खम्भे, वृक्ष, वापी तथा सरोवर ये सभी गोमेदमणि से ही निर्मित हैं । गोमेदमणि से बनी वहाँ की सभी वस्तुओं का विग्रह कुमकुम के समान अरुण वर्ण का है ॥ २२–२४ ॥ उस प्राकार के मध्य में गोमेदमणि से भूषित तथा अनेकविध शस्त्र धारण करने वाली बत्तीस महादेवियाँ निवास करती हैं, जो शक्तियाँ कही गयी हैं । हे राजन् ! गोमेदनिर्मित उस प्राकार में पिशाचों के समान भयंकर मुख वाली प्रत्येक लोक की निवासिनी शक्तियाँ सावधान होकर चारों ओर से उसे घेरकर स्थित रहती हैं ॥ २५-२६ ॥ स्वर्गलोक के निवासियों द्वारा नित्य पूजी जाने वाली वे शक्तियाँ हृदय में युद्ध की लालसा से युक्त होकर हाथों में चक्र धारण किये हुए तथा क्रोध के कारण नेत्र लाल करके ‘काटो, पकाओ, छेदो और भस्म कर डालो’ – इन शब्दों को निरन्तर बोलती रहती हैं । उनमें एक-एक महाशक्ति के पास दस-दस अक्षौहिणी सेना कही गयी है । उस सेना की एक ही शक्ति एक लाख ब्रह्माण्डों का संहार करने में समर्थ है तो हे राजन् ! उस प्रकार की शक्तियों से युक्त विशाल सेना का वर्णन कैसे किया जा सकता है ! ॥ २७–२९ ॥

उनके रथों तथा वाहनों की गणना नहीं की जा सकती। भगवती की युद्ध-सम्बन्धी समस्त सामग्री वहाँ विद्यमान रहती है। अब मैं भगवती की शक्तियों के पापनाशक नामों का वर्णन करूँगा विद्या, ही, पुष्टि, प्रज्ञा, सिनीवाली, कुहू, रुद्रा, वीर्या, प्रभा, नन्दा, पोषिणी, ऋद्धिदा, शुभ्रा, कालरात्रि, महारात्रि, भद्रकाली, कपर्दिनी, विकृति, दण्डिनी, मुण्डिनी, सेन्दुखण्डा, शिखण्डिनी, निशुम्भशुम्भमथिनी, महिषासुरमर्दिनी, इन्द्राणी, रुद्राणी, शंकरार्धशरीरिणी, नारी, नारायणी, त्रिशूलिनी, पालिनी, अम्बिका और ह्लादिनी ये शक्तियाँ कही गयी हैं। यदि ये देवियाँ कुपित हो जायँ, तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का तत्क्षण नाश हो जायगा । कहीं किसी भी समय इन शक्तियों की पराजय सम्भव नहीं है ॥ ३०–३५१/२

गोमेदनिर्मित प्राकार के आगे वज्रमणि (हीरे ) – से निर्मित दस योजन ऊँचाई वाला एक परकोटा है। उस परकोटे में अनेक गोपुर तथा द्वार बने हुए हैं। वह परकोटा कपाट और सांकल से बन्द रहता है तथा नये-नये वृक्षों से सदा सुशोभित रहता है । उस प्राकार के मध्यभाग की समस्त भूमि हीरायुक्त कही गयी है। भवन, गलियाँ, चौराहे, महामार्ग, आँगन, वृक्षों के थाले, वृक्ष, सारंग, अनेक बावलियाँ, वापी, तडाग तथा कुएँ ये सब उसी प्रकार हीरकमय हैं ॥ ३६–३९ ॥ उस प्राकार में भगवती भुवनेश्वरी की परिचारिकाएँ रहती हैं। मद से गर्वित रहने वाली एक-एक परिचारिका लाखों दासियों से सेवित रहती हैं ॥ ४० ॥ अत्यधिक गर्वित कई परिचारिकाएँ ताड़ के पंखे, कई अपने करकमलों में मधुपात्र तथा कई अपने हाथ में ताम्बूलपात्र धारण किये रहती हैं। कई परिचारिकाएँ छत्र लिये रहती हैं, कई चामर धारण किये रहती हैं, कुछ अनेक प्रकार के वस्त्र धारण किये रहती हैं और कुछ अपने कमलसदृश हाथों में पुष्प लिये स्थित रहती हैं ॥ ४१-४२ ॥ कुछ परिचारिकाएँ अपने हाथों में दर्पण, कुछ कुमकुम का लेप, कुछ काजल और कुछ सिन्दूर-पात्र धारण किये खड़ी रहती हैं । कुछ चित्रकारी बनाने, कुछ चरण दबाने, कुछ भूषण सजाने तथा कुछ भगवती के भूषण से पूरित रत्नमय पात्र धारण करने में तत्पर रहती हैं। कुछ पुष्पों के आभूषण बनाने वाली, कुछ पुष्प-शृंगार में कुशल तथा अनेक प्रकार के विलास में चतुर इसी तरह की बहुत-सी युवतियाँ वहाँ विद्यमान रहती हैं ॥ ४३-४५ ॥ सुन्दर-सुन्दर परिधान धारण की हुई वे सभी युवतियाँ भगवती की लेशमात्र कृपा के प्रभाव से तीनों लोकों को तुच्छ समझती हैं । शृंगार के मद में उन्मत्त ये सब देवी की दूतिकाएँ कही गयी हैं । हे नृपश्रेष्ठ ! अब मैं उनके नाम बता रहा हूँ, सुनिये ॥ ४६-४७ ॥

पहली अनंगरूपा, दूसरी अनंगमदना और तीसरी सुन्दर रूपवाली मदनातुरा कही गयी है । तत्पश्चात् भुवनवेगा, भुवनपालिका, सर्वशिशिरा, अनंगवदना और अनंगमेखला हैं। इनके सभी अंग विद्युत् की कान्ति के समान प्रकाशमान रहते हैं, इनके कटिभाग कई लड़ियों वाली ध्वनिमय किंकिणियों से सुशोभित हैं और इनके चरण ध्वनि करते हुए नूपुर से सुशोभित हैं। ये सभी दूतियाँ वेगपूर्वक बाहर तथा भीतर जाते समय विद्युत् की लता के सदृश सुशोभित होती हैं। हाथ में बेंत लेकर सभी ओर भ्रमण करने वाली ये दूतियाँ सभी कार्यों में दक्ष हैं। इस प्राकार से बाहर आठों दिशाओं में इन दूतियों के निवास हेतु अनेकविध वाहनों तथा शस्त्रों से सम्पन्न भवन विद्यमान हैं ॥ ४८-५२ ॥

वज्रमणि-निर्मित प्राकार से आगे वैदूर्यमणि से बना हुआ एक प्राकार है । अनेक गोपुरों तथा द्वारों से सुशोभित वह प्राकार दस योजन ऊँचाईवाला है ॥ ५३ ॥ वहाँ की सम्पूर्ण भूमि वैदूर्यमणियुक्त है। वहाँ के अनेक प्रकार के भवन, गलियाँ, चौराहे तथा महामार्ग ये सब वैदूर्यमणि से निर्मित हैं। इस परकोटेकी बावलियाँ, कुएँ, तडाग, नदियों के तट और बालू ये सब वैदूर्यमणि से निर्मित हैं ॥ ५४-५५ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! उस प्राकार की आठों दिशाओं में सब ओर अपने गणों से सदा घिरी रहने वाली ब्राह्मी आदि देवियों का मण्डल सुशोभित रहता है। वे प्रत्येक ब्रह्माण्ड के मातृकाओं की समष्टियाँ कही गयी हैं । ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी और चामुण्डा ये सात मातृकाएँ और आठवीं महालक्ष्मी नामवाली इस प्रकार ये आठ मातृकाएँ कही गयी हैं ॥ ५६-५८ ॥ जगत् का कल्याण करने वाली तथा अपनी- अपनी सेनाओं से घिरी हुई वे मातृकाएँ ब्रह्मा, रुद्र आदि देवताओं के समान आकारवाली कही गयी हैं ॥ ५९ ॥ हे राजन् ! उस परकोटे के चारों द्वारों पर महेश्वरी भगवती के वाहन अलंकारों से सुसज्जित होकर सर्वदा विराजमान रहते हैं ॥ ६० ॥ उनके वाहन के रूप में करोड़ों हाथी, करोड़ों घोड़े, पालकियाँ, हंस, सिंह, गरुड, मयूर और वृषभ हैं। हे नृपनन्दन! उन वाहनों से युक्त करोड़ों रथ वहाँ विद्यमान रहते हैं, जिन पर सेनापति विराजमान रहते हैं और आकाश तक पहुँचने वाली पताकाएँ सुशोभित रहती हैं ॥ ६१-६२ ॥ अनेकविध वाद्य-यन्त्रों से युक्त, विशाल ध्वजाओं से सुशोभित और अनेक प्रकार के चिह्नों से अंकित करोड़ों विमान उस प्राकार में स्थित रहते हैं ॥ ६३ ॥

वैदूर्यमणिमय प्राकार के भी आगे इन्द्रनीलमणि- निर्मित दस योजन ऊँचा एक दूसरा प्राकार कहा गया है ॥ ६४ ॥ उस प्राकार के मध्य की भूमि, गलियाँ, राजमार्ग, भवन, वापी, कुएँ और सरोवर ये सब उसी मणि से बने हुए हैं ॥ ६५ ॥ वहाँ पर दूसरे सुदर्शन चक्र की भाँति प्रतीत होने वाला, अनेक योजन विस्तृत तथा सोलह दलों वाला एक दीप्तिमान् कमल विद्यमान कहा गया है । उस पर सोलह शक्तियों के लिये सभी सामग्रियों तथा समृद्धियों से सम्पन्न विविध स्थान बने हुए हैं ॥ ६६-६७ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! अब मैं उन शक्तियों के नामों का वर्णन करूँगा, सुनिये कराली, विकराली, उमा, सरस्वती, श्री, दुर्गा, उषा, लक्ष्मी, श्रुति, स्मृति, धृति, श्रद्धा, मेधा, मति, कान्ति और आर्या ये सोलह शक्तियाँ हैं ॥ ६८-६९ ॥ अपने करकमलों में ढाल तथा तलवार धारण किये हुए, नीले मेघ के समान वर्णवाली तथा अपने मन में सदा युद्ध की लालसा रखने वाली ये सभी शक्तियाँ जगदीश्वरी श्रीदेवी की सेनानी हैं । ये प्रत्येक ब्रह्माण्ड में स्थित रहने वाली शक्तियों की नायिकाएँ कही गयी हैं ॥ ७०-७१ ॥ अनेक शक्तियों को साथ लेकर भाँति-भाँति के रथों पर विराजमान ये शक्तियाँ भगवती जगदम्बा की शक्ति से सम्पन्न होने के कारण सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को क्षुब्ध करने में समर्थ हैं। हजार मुख वाले शेषनाग भी इनके पराक्रम का वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं ॥ ७२१/२

उस इन्द्रनीलमणि के विशाल प्राकार के आगे दस योजन की ऊँचाई तक उठा हुआ एक अतिविस्तीर्ण तथा प्रकाशमान मोती का प्राकार है । इसके मध्य की भूमि भी मोती की बनी हुई कही गयी है। उसके मध्य में मुक्तामणियों से निर्मित तथा केसरयुक्त आठ दलों वाला एक विशाल कमल विद्यमान है । उन आठों दलों पर भगवती जगदम्बा के ही समान आकार वाली देवियाँ अपने हाथों में आयुध धारण किये सदा विराजमान रहती हैं। जगत्‌ का समाचार सूचित करने वाली ये आठ देवियाँ भगवती की मन्त्रिणी कही गयी हैं ॥ ७३–७५३ ॥ वे देवियाँ भगवती के समान भोग वाली, उनके संकेत को समझने वाली, बुद्धिसम्पन्न, सभी कार्यों में कुशल, अपनी स्वामिनी के कार्य सम्पादन में तत्पर, भगवती के अभिप्राय को जानने वाली, चतुर तथा अत्यन्त सुन्दर हैं ॥ ७६-७७ ॥

विविध शक्तियों से सम्पन्न वे देवियाँ अपनी ज्ञान-शक्ति के द्वारा प्रत्येक ब्रह्माण्ड में रहने वाले प्राणियों का समाचार जान लेती हैं । हे नृपश्रेष्ठ ! मैं उनके नाम बता रहा हूँ, आप सुनिये — अनंगकुसुमा, अनंगकुसुमातुरा, अनंगमदना, अनंगमदनातुरा, भुवन-पाला, गगनवेगा, शशिरेखा और गगनरेखा । अपने हाथों में पाश, अंकुश, वर तथा अभय मुद्राएँ धारण किये हुए लाल विग्रहवाली वे देवियाँ विश्व से सम्बन्धित सभी बातों से भगवती को प्रतिक्षण अवगत कराती रहती हैं ॥ ७८–८११/२

इस मुक्ता-प्राकार के आगे महामरकतमणि से निर्मित एक दूसरा श्रेष्ठ प्रकार कहा गया है । वह दस योजन लम्बा और अनेकविध सौभाग्य तथा भोगवाली सामग्रियों से परिपूर्ण है ॥ ८२-८३ ॥ इसके मध्य की भूमि भी वैसी ही कही गयी है अर्थात् मरकत-मणि के सदृश है और वहाँ के भवन भी उसी मणि से निर्मित हैं । उस प्राकार में भगवती का एक विशाल तथा छ: कोणों वाला यन्त्र है । अब आप उन कोणों पर विराजमान रहने वाले देवताओं के विषय में सुनिये ॥ ८४ ॥ इसके पूर्वकोण में कमण्डलु, अक्षसूत्र, अभयमुद्रा, दण्ड तथा आयुध धारण करने वाले चतुर्मुख श्रेष्ठ ब्रह्माजी भगवती गायत्री के साथ विराजमान रहते हैं । परादेवता भगवती गायत्री भी उन्हीं आयुधों को धारण किये रहती हैं। समस्त वेद, विविध शास्त्र, स्मृतियाँ तथा पुराण मूर्तिमान् होकर वहाँ निवास करते हैं ब्रह्मा जो विग्रह हैं, गायत्री के जो विग्रह हैं और व्याहृतियों के जो विग्रह हैं — वे सभी वहाँ नित्य निवास करते हैं ॥ ८५–८७१/२

नैर्ऋत्यकोण में भगवती सावित्री अपने करकमल में शंख, चक्र, गदा और कमल धारण किये विराजमान हैं। महाविष्णु भी वहाँ पर उसी रूप में विराजमान रहते हैं। मत्स्य तथा कूर्म आदि जो महाविष्णु के विग्रह हैं और जो भगवती सावित्री के विग्रह हैं — वे सब वहाँ निवास करते हैं ॥ ८८-८९१/२

वायुकोण में परशु, अक्षमाला, अभय और वरमुद्रा धारण करने वाले महारुद्र विराजमान हैं और सरस्वती भी उसी रूप में वहाँ रहती हैं । हे राजन् ! भगवान् रुद्र के दक्षिणास्य आदि जो-जो रूप हैं और इसी प्रकार भगवती गौरी जो-जो रूप हैं — वे सभी वहाँ निवास करते हैं । चौंसठ प्रकार के जो आगम तथा इसके अतिरिक्त भी जो अन्य आगमशास्त्र कहे गये हैं — वे सभी मूर्तिमान् होकर वहाँ विराजमान रहते हैं ॥ ९०-९२१/२

अग्निकोण में धन प्रदान करने वाले कुबेर अपने दोनों हाथों में रत्नयुक्त कुम्भ तथा मणिमय करण्डक (पात्र) धारण किये हुए विराजमान हैं। अनेक प्रकार की वीथियों से युक्त और अपने सद्गुणों से सम्पन्न देवी की निधि के स्वामी कुबेर महालक्ष्मी के साथ वहाँ विराजमान रहते हैं ॥ ९३-९४१/२

पश्चिम के महान् वरुणकोण में अपनी भुजाओं में पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करने वाले कामदेव रति के साथ निवास करते हैं। सभी प्रकार के शृंगार मूर्तिमान् होकर वहाँ सदा विराजमान रहते हैं ॥ ९५-९६ ॥ ईशान कोण में विघ्न दूर करने वाले तथा पराक्रमी विघ्नेश्वर गणेशजी अपने हाथों में पाश तथा अंकुशधारण किये हुए देवी पुष्टि के साथ सदा विराजमान रहते हैं। हे नृपश्रेष्ठ! गणेशजी की जो-जो विभूतियाँ हैं, वे सभी महान् ऐश्वर्यों से सम्पन्न होकर वहाँ निवास करती हैं ॥ ९७-९८ ॥ प्रत्येक ब्रह्माण्ड में रहने वाले ब्रह्मा आदि की समष्टियाँ ब्रह्मा आदि नाम से कही गयी हैं — ये सभी भगवती जगदीश्वरी की सेवामें संलग्न रहती हैं ॥ ९९ ॥

इस महामरकतमणि-निर्मित प्राकार के आगे कुमकुम के समान अरुण विग्रह वाला तथा सौ योजन लम्बाई वाला एक दूसरा प्रवालमणि का प्राकार है । उसके मध्य की भूमि तथा भवन भी उसी प्रकार के कहे गये हैं। उसके मध्यभाग में पंचभूतों की पाँच स्वामिनियाँ निवास करती हैं । हृल्लेखा, गगना, रक्ता, चौथी करालिका और पाँचवीं महोच्छुष्मा नामक ये शक्तियाँ पंचभूतों के समान ही प्रभा वाली हैं। पाश, अंकुश, वर तथा अभय मुद्रा धारण करने वाली ये शक्तियाँ अनेक प्रकार के भूषणों से अलंकृत, नूतन यौवन से गर्वित और भगवती जगदम्बा के सदृश वेषभूषा से मण्डित हैं ॥ १००–१०३ ॥ हे राजन् ! इस प्रवालमय प्राकार के आगे नौ रत्नों से बना हुआ अनेक योजन विस्तृत एक विशाल प्राकार है । आम्नाय में वर्णित देवियों के बहुत से भवन, तडाग तथा सरोवर — वे सभी उन्हीं नौ रत्नों से निर्मित हैं । हे भूपाल ! श्रीदेवी के जो-जो अवतार हैं, वे सब वहाँ निवास करते हैं और महाविद्या के सभी रूप वहाँ विद्यमान हैं। करोड़ों सूर्यों के समान प्रभा से युक्त सभी देवियाँ अपनी-अपनी आवरणशक्तियों, अपने भूषणों तथा वाहनों के साथ वहाँ विराजमान रहती हैं। सात करोड़ महामन्त्रों के देवता भी वहाँ रहते हैं ॥ १०४-१०७१/२

इस नौ रत्नमय प्राकार के आगे चिन्तामणि से बना हुआ एक विशाल भवन है। वहाँ की प्रत्येक वस्तु चिन्तामणि से निर्मित है। उसमें सूर्य, चन्द्रमा और विद्युत् के समान दीप्ति वाले पत्थरों से निर्मित हजारों स्तम्भ हैं, जिनकी तीव्र प्रभा के कारण उस भवन के अन्दर स्थित कोई भी वस्तु दृष्टिगोचर नहीं हो पाती है ॥ १०८–११० ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत बारहवें स्कन्ध का ‘पद्मरागादिमणिविनिर्मित प्राकारवर्णन’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥

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