भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १८७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १८७
श्रद्धा की महिमा, खखोल्क-मन्त्र का माहात्म्य तथा गौ की महिमा

अरुणने पूछा — भगवन् आदित्यदेव ! मनुष्य किस पुण्यकर्म का सम्पादन कर स्वर्ग जाते हैं ? कर्मयज्ञ, तपोयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ, ध्यानयज्ञ और ज्ञानयज्ञ— इन पाँच यज्ञों में सर्वोत्तम यज्ञ कौन है ? इन यज्ञों का क्या फल है और इनसे कौन-सी गति प्राप्त होती है ? धर्म और अधर्म के कितने भेद कहे गये हैं ? उनके साधन क्या हैं और उनसे कौन-सी गति होती है । नारकी पुरुष के पुनः पृथ्वी पर आने पर भोग से शेष कर्मों के कौन-कौनसे चिह्न उपलब्ध रहते हैं ? इस धर्माधर्म से व्याप्त भवसागर तथा गर्भ में आगमन-रूपी से कैसे मुक्ति प्राप्त होती है ? इसे आप बतलाने की कृपा करें ।om, ॐभगवान् सूर्य बोले — अरुण ! स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) — के फल को देनेवाले तथा नरकरूपी समुद्र से पार करानेवाले, पापहारी एवं पुण्यप्रद धर्म को सुनो । धर्म के पूर्व में तथा मध्य में और उसके अन्त में श्रद्धा आवश्यक है । श्रद्धा-निष्ठ ही धर्म प्रतिष्ठित होता है, अतः धर्म श्रद्धा-मूलक ही है । वेद-मन्त्रों के अर्थ अतीव गूढतम हैं । उनमें प्रधान पुरुष परमेश्वर अधिष्ठित है, अतः इन्हें श्रद्धा आश्रय से ही ग्रहण किया जा सकता है । ये इस बाह्य चक्षु से नहीं देखे जाते । श्रद्धा-रहित देवता भी भाँति-भाँति को शरीर को कष्ट देने पर तथा अत्यधिक अर्थ-व्यय करने पर भी धर्म के सूक्ष्मरूप वेदमय परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकते । श्रद्धा परम सूक्ष्म धर्म है, श्रद्धा यज्ञ है, श्रद्धा हवन, श्रद्धा तप, श्रद्धा ही स्वर्ग और मोक्ष है । यह सम्पूर्ण जगत् श्रद्धामय ही है, अश्रद्धा से सर्वस्व जीवन देनेपर भी कुछ फल नहीं होता । बिना श्रद्धा के किया गया कार्य सफल नहीं होता । अतः मानव को श्रद्धा-सम्पन्न होना चाहिये ।
श्रद्धापूर्वः सदा धर्मः श्रद्धामध्यान्त-संस्थितः ।
श्रद्धानिष्ठप्रतिष्ठश्च धर्मः श्रद्धा प्रकीर्तिता ॥
श्रुतिमन्त्ररसाः सूक्ष्माः प्रधानपुरुषेश्वरः ।
श्रद्धामात्रेण गृह्यन्ते न परेण च चक्षुषा ॥
कायक्लेशैर्न बहुभिर्न चैवार्थस्य राशिभिः ।
धर्मः सम्प्राप्यते सूक्ष्मः श्रद्धाहीनै सुरैरपि ॥
श्रद्धा धर्मः परः सूक्ष्मः श्रद्धा यज्ञाहुतं तपः ।
श्रद्धा मोक्षश्च स्वर्गश्च श्रद्धा सर्वमिदं जगत् ॥
सर्वस्य जीवितं वापि द्दयादश्रद्धया च यः ।
नाप्रुयात् म फलं किंचित् तस्माच्छ्रद्धापरो भवेत् ॥ (ब्राह्मपर्व १८५ । ९-१३)
हे खगश्रेष्ठ ! अब मेरे मण्डल के विषय में सुनो । मेरा कल्याणमय मण्डल ‘खखोल्क’ नाम से विख्यात है । तीनों देवों एवं तीनों गुणों से परे एवं यह सर्वज्ञ है । यह सर्वशक्तिमान् है । ‘ॐ’ इस एकाक्षर मन्त्र में यह मण्डल अवस्थित है । जैसे घोर संसार सागर अनादि है वैसे ही खखोल्क भी अनादि और संसार-सागर का शोधक है । जैसे व्याधियों के लिये ओषधि होती है वैसे ही यह संसार सागर के लिये ओषधि है । मोक्ष चाहनेवालों के लिये मुक्ति का साधन और सभी अर्थों का साधक है । खखोल्क नाम का यह मेरा मन्त्र सदा उच्चारण एवं स्मरण करने योग्य है । जिसके हृदय में यह ‘ॐ नमः खखोल्काय’ मन्त्र स्थित है, उसीने सब कुछ पढ़ा है, सुना है और सब कुछ अनुष्ठित किया है — ऐसा समझना चाहिये ।

मनीषियों ने इस खखोल्क को मार्तण्ड के नाम से कहा है । उसके प्रति श्रद्धा-युक्त होने पर पुण्य प्राप्त होता है और अश्रद्धा से अधःपतन होता है । सूर्य- सम्बन्धी वचन को कहनेवाले गुरु की सूर्य के समान पूजा करनी चाहिये । वह गुरु भवसागर में निमग्न व्यक्ति का उद्धार कर देता है । सौरधर्म-रूपी शीतल जल के द्वारा जो अज्ञानरूपी वह्नि से संतप्त मनुष्य को शान्त करता है, उसके समान गुरु कौन होगा ? जो भक्तों को ज्ञानरूपी अमृत से आप्लावित करते हैं, भला उनकी कौन पूजा नहीं करेगा । स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष)— की प्राप्ति के लिये देवाधिदेव सूर्य के द्वारा जो वाक्य कहे गये हैं, वे अतिशय कल्याणकारी हैं । राग, द्वेष, अक्षमा, क्रोध, काम, तृष्णा का अनुसरण करनेवाले व्यक्ति का कहा हुआ वाक्य नरक का साधन होने से दुर्भाषित कहा जाता है । अविद्यात्मक संसार के केश-साधक मृदुल आलापवाले संस्कृत वाक्य से भी क्या लाभ है ? जिस वाक्य के सुनने से राग-द्वेष आदि का नाश एवं पुण्य प्राप्त होता है, वह कठोर वाक्य भी अतिशय शोभाजनक है। स्मृतियाँ, महाभारत, वेद, महान् शास्त्र यदि धर्म-साधक न बन सकें तो इनका अध्ययनमात्र अपनी आयु के व्यतीत करने के लिये ही हैं । सहस्रों वर्ष की आयु प्राप्त करने पर भी शास्त्र का अन्त नहीं मिलता । अतः सभी शास्त्रों को छोड़कर अक्षर तन्मात्र (परमात्मा)— का ज्ञान कर परलोक के अनुरूप आचरण करना चाहिये । मनुष्यों के समर्थ शरीर से भी क्या लाभ है जो पारलौकिक पुण्य-भार को वहन करने में असमर्थ हैं । जो सौरज्ञान के माहात्म्य को उच्चारण करने असमर्थ है, वह शक्तिसम्पन्न और पण्डित होते हुए भी मूर्ख है । इसलिये जो सौर-ज्ञान के सद्भाव की महिमा में तत्पर रहता है, वही पण्डित, समर्थ, तपस्वी और जितेन्द्रिय हैं । जो नृप गुरु को सम्पूर्ण पृथिवी, धन और सुवर्ण आदि देकर भी यदि अन्यायपूर्वक सौर-ज्ञान की जिज्ञासा करता है अर्थात् अन्यायाचरण करते हुए पूछता है तो उसे षडक्षर-मन्त्र का उपदेश गुरु को नहीं देना चाहिये । जो भगवान् सूर्य के धर्म को न्यायपूर्वक विनम्र भाव से सुनता है और कहता है, वह उचित स्थान प्राप्त करता है, अन्यथा उसके विपरीत नरक को जाता है ।जो भगवान् सूर्य के षडक्षर मन्त्र से विधानपूर्वक गोदुग्ध द्वारा सूर्य की पूजा करता है वह मनुष्यों में श्रेष्ठ है। देवासुरों द्वारा मन्थन करने पर क्षीरसागर से सभी लोकों की मातृस्वरूपा पाँच गौएँ उत्पन्न हुई — नन्दा, सुभद्रा, सुरभि, सुमना तथा शोभनावती । गोएं तेज में सूर्य के समान हैं । ये सम्पूर्ण संसार का उपकार करने के लिये एवं देवताओं की तृप्ति के लिये और मुझे स्नान कराने के लिये उत्पन्न हुई हैं । ये मेरा ही आधार लेकर स्थित हैं । गौओं के सभी अङ्ग पवित्र हैं । उनमें छह रस निहित हैं । गाय के गोबर, मूत्र, गोरोचन, दूध, दही तथा घृत — से छः पदार्थ परम पवित्र हैं तथा सभी सिद्धियों को देनेवाले हैं । सूर्य का परम प्रिय बिल्ववृक्ष गोमय से ही उत्पन्न हुआ है, उस वृक्ष पर कमलहस्ता लक्ष्मी विराजमान रहती हैं, अतः यह श्रीवृक्ष कहा जाता है । गोमय से पङ्क उत्पन्न होता है और उससे कमल उत्पन्न हुए हैं । गोरोचन परम मङ्गलमय, पवित्र और सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाला है । गोमूत्र से सभी देवों का आहार-स्वरूप विशेषकर भास्कर के लिये भोग्य एवं प्रिय-दर्शन सुगन्धित गुग्गुल उत्पन्न हुआ है । जगत् के सभी बीज क्षीर से उत्पन्न हुए हैं । कामना की सिद्धि के लिये सभी माङ्गल्य वस्तु दही से उत्पन्न समझे । देवताओं का अतिशय प्रिय अमृत घृत से उत्पन्न हैं, अतः घी, दूध, दही से भगवान् सूर्य को स्नान कराना चाहिये । अनन्तर उष्ण जल और कषाय से सन्नपन कराना चाहिये । फिर शीतल जल से स्नान कराकर गोरोचन का लेपन एवं बिल्वपत्र, कमल और नीलकमल से पूजन करना चाहिये । शर्करायुक्त गुग्गुल से भगवान् सूर्य को अर्घ्य प्रदान करे । दूध, दही, भात, मधु के साथ शर्करा एवं विविध भक्ष्य पदार्थों को निवेदित करे । इसके बाद भगवान् भास्कर की प्रदक्षिणा कर उनसे क्षमा याचना करे ।

इस विधि से जो दिनपति भगवान् भानु की षडङ्ग-पूजा करता है, वह इस लोक में सभी कामनाओं को प्राप्तकर अपने कुल की इक्कीस पीढ़ियों को स्वर्ग में ले जाता है तथा उन्हें यहाँ प्रतिष्ठित कर स्वयं ज्योतिष्क नामक स्थान को प्राप्त करता है । भगवान् भास्कर की पूजा में पत्र, पुष्प, फल, जल जो भी अर्पित होता है वह सब तथा सूर्य-सम्बन्धी गौएँ भी सूर्यलोक को प्राप्त करती हैं, इसमें संदेह नहीं हैं । देश, काल तथा विधि के अनुरूप श्रद्धापूर्वक सुपात्र को दिया गया अल्प भी दान अक्षय होता है । हे वीर ! तिल का अर्धपरिमाणमात्र सत्पात्र को दिया गया श्रद्धापूर्वक दान सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाला है । जिसने ज्ञानरूपी जल से स्नान कर लिया है और शीलरूपी भस्म से अपने को शुद्ध कर लिया है, वह सभी पात्रों में उत्तम सपात्र माना गया है । जप, इन्द्रियदमन और संयम मनुष्य को संसार-सागर पार उतारनेवाले साधन हैं ।
(अध्याय १८७)

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