भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १८८ से १८९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १८८ से १८९
पञ्चमहायज्ञ एवं अतिथि-माहात्म्य-वर्णन, सौर-धर्म में दानकी महत्ता और पात्रापात्र का निर्णय तथा पञ्च महापातक

सप्ताश्ववाहन (भगवान् सूर्य) ने कहा — हे वीर ! जो प्राणी सूर्य, अग्नि, गुरु तथा ब्राह्मण को निवेदन किये बिना स्वयं जो कुछ भी भक्षण करता है वह पाप-भक्षण करता है । गृहस्थ मनुष्यों के कृषिकार्य से, वाणिज्य से, क्रोध और असत्य आदि के आचरण से तथा पञ्चसूना-दोष  भोजन पकाने का स्थान (चूल्हा), आटा आदि पीसने का स्थान (चक्की आदि) मसाला आदि कूटने-पीसने का स्थान (लोढ़ा, सिलवट आदि) जल रखने का स्थान तथा झाडू देने का काम— इनमें अनजाने ही हिंसा की सम्भावना रहती है। अतः गृहस्थ के लिये इन्हें ही पच्चसूना दोष कहा गया है। से पाप होते हैं । सूर्य, गुरु, अग्नि और अतिथि आदि के सेवारूप पञ्चमहायज्ञों से ये पाप नष्ट हो जाते हैं । इसी प्रकार अन्य पापों से भी वह लिप्त नहीं होता, अतः इनकी नित्य पूजा करनी चाहिये । देवाधिदेव दिवाकर के प्रति जो इस प्रकार भक्ति करता है, वह अपने पितरों को सभी पापों से विमुक्त कर स्वर्ग ले जाता है ।om, ॐहे खग ! भगवान् सूर्य के दर्शनमात्र से ही गङ्गा-स्नान का फल एवं उन्हें प्रणाम करने से सभी तीर्थों का फल प्राप्त हो जाता है तथा सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है । संध्या-समय में सूर्य की सेवा करनेवाला सूर्यलोक में प्रतिष्ठित होता है । एक बार भी भगवान् सूर्य की आराधना करने से ब्रह्मा, विष्णु, महेश, पितृगण तथा सभी देवगण एक ही साथ पूजित एवं संतुष्ट हो जाते हैं ।

श्राद्ध में भगवान् सूर्य की पूजा करने तथा सौर-भक्तों को भोजन कराने से पितृगण तृप्त हो जाते हैं । पुराणवेत्ता को आते हुए देखकर सभी ओषधियाँ यह कहकर आनन्द से नृत्य करने लगती हैं कि आज हमें अक्षय स्वर्ग प्राप्त होगा । पितृगण एवं देवगण अतिथि के रूप में लोक के अनुग्रह और श्रद्धा के परीक्षणके लिये आते हैं, अतः अतिथि को आया हुआ देख हाथ जोड़कर उसके सम्मुख जाना चाहिये तथा स्वागत, आसन, पाद्य, अर्घ्य, स्नान, अन्न आदि द्वारा उसकी सेवा करनी चाहिये । अतिथि रूप-सम्पन्न हैं या कुरूप, मलिन वस्त्रधारी है अथवा स्वच्छ वस्त्रधारी इसपर विद्वान् पुरुष को विचार नहीं करना चाहिये; उसका यथेष्ट स्वागत करना चाहिये ।अरुण ! दान सत्पात्र को ही देना चाहिये, जैसे कच्चे मिट्टी के पात्र में रखा हुआ द्रव—जल आदि पदार्थ नष्ट हो जाता है, जैसे ऊषर-भूमि में बोया गया बीज और भस्म हवन किया गया हव्य पदार्थ निष्फल हो जाता है वैसे ही अपात्र को दिया गया दान भी निष्फल हो जाता हैं ।

खगश्रेष्ठ ! जो दान करुणापूर्वक श्रद्धा के साथ प्राणियों को दिया जाता है, वह सभी कर्मों में उत्तम हैं । हीन, अन्ध, कृपण, बाल, वृद्ध तथा आतुर को दिये गये दान का फल अनन्त होता हैं । साधु पुरुष दाता के दान को अपने स्वार्थ का उद्देश्य न रखकर ग्रहण करते हैं । इससे दाता का उपकार होता है । कोई अर्थी यदि घर पर आये तो कौन ऐसा व्यक्ति है जो उसका आदर नहीं करेगा । घर-घर याचना करनेवाला याचक पूज्य नहीं होता । कौन दाता हैं और कौन याचक इसका भेद देने और लेनेवाले के हाथ से ही सूचित हो जाता है । जो दाता व्यक्ति याचक को आया हुआ देखकर दान देने की अपेक्षा उसकी पात्रता पर विचार करता है, वह सभी कर्मों को करता हुआ भी पारमार्थिक दाता नहीं है । संसार में यदि याचक न हों तो दानधर्म कैसे होगा ? इसलिये याचक को ‘स्वागत है, स्वागत है’ यह कहते हुए दान देना चाहिये । याचकको प्रेमपूर्वक आधा ग्रास भी दिया जाय तो वह श्रेष्ठ है, किंतु बिना प्रेम का दिया हुआ बहुत-सा दान भी व्यर्थ है, ऐसा मनीषियों ने कहा है । इसलिये अनन्त फल चाहनेवाले व्यक्ति को सत्कारपूर्वक दान देना चाहिये । इससे मरने पर भी उसकी कीर्ति बनी रहती हैं । प्रिय एवं मधुर वचनों द्वारा दिया गया दान कल्याणकारी है, किंतु कठोरता से असत्कारपूर्वक दिया गया दान युक्त दान नहीं हैं । अन्तरात्मा से क्रुद्ध होकर याचक को दान देने से न देना अच्छा है । प्रेम से रहित दान न धर्म है, न धन है, न प्रीति है । दान, प्रदान, नियम, यज्ञ, ध्यान, हवन और तप — ये सभी क्रोध के साथ करने पर निष्फल हो जाते हैं ।
न तद्दानमसत्कारपारुष्यमलिनीकृतम् ।
वरं न दत्तमर्थिभ्यः संक्रुद्धेनान्तरात्मना ॥
न तद्धनं न च प्रीतिर्न धर्मः प्रियवर्जितः ।
दानप्रदाननियमयज्ञध्यानं हुतं तपः ।
यत्नेनापि कृतं सर्वं क्रोधोऽस्य निष्फलं खग ॥ (ब्राह्मपर्व १८९ । १९-२०)

श्रद्धाके साथ आदरपूर्वक ग्रहीता का अर्चन कर दान देनेवाले तथा श्रद्धा एवं आदरपूर्वक दान ग्रहण करनेवाले — दोनों स्वर्ग प्राप्त करते हैं । इसके विपरीत देना और लेना ये दोनों नरक-प्राप्ति के कारण बन जाते हैं । उदारता, स्वागत, मैत्री, अनुकम्पा, अमत्सर— इन पाँच प्रकारों से दिया गया दान महान् फल देनेवाला होता है ।

हे खगश्रेष्ठ ! वाराणसी, कुरुक्षेत्र, प्रयाग, पुष्कर, गङ्गा और समुद्रतट, नैमिषारण्य, महापुण्य, मूलस्थान, मुण्डीरस्वामी (उड़ीसा का कोणार्कक्षेत्र) कालप्रिय (कालपी), क्षीरिकावास —ये स्थान देवताओं और पितरों से सेवित कहे गये हैं । सभी सूर्याश्रम, पर्वतों से युक्त सभी नदियाँ, गौ, सिद्ध और मुनियों से प्रतिष्ठित स्थान पुण्यक्षेत्र कहे गये हैं । सूर्यमन्दिर से युक्त स्थानों में रहनेवाले को दिया गया थोड़ा भी दान क्षेत्र के प्रभाव से अनन्त फलप्रद होता है । सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, उत्तरायण, विषुव, व्यतीपात, संक्रान्ति-ये सब पुण्यकाल कहे गये हैं । इनमें दान देने से पुण्य की वृद्धि होती है । भक्तिभाव, परमप्रीति, धर्म, धर्मभावना तथा प्रतिपति — ये पाँच श्रद्धा के पर्याय हैं । श्रद्धापूर्वक विधान के साथ सुपात्र को दिया गया दान उत्तम एवं अनन्त फलप्रद कहा गया है, अतः अक्षय पुण्य की इच्छा से श्रद्धापूर्वक दान देना चाहिये । इसके विपरीत दिया गया दान भारस्वरूप ही है । आर्त, दीन और गुणवान् को श्रद्धा के साथ थोड़ा भी दिया गया दान सभी कामनाओं का पूरक और सभी श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त करानेवाला होता है । मनीषियों ने श्रद्धा को ही दान माना है । श्रद्धा ही दान, श्रद्धा ही परम तप तथा श्रद्धा ही यज्ञ और श्रद्धा ही परम उपवास है । अहिंसा, क्षमा, सत्य, नम्रता, श्रद्धा, इन्द्रियसंयम, दान, यज्ञ, तप तथा ध्यान— ये दस धर्म के साधन हैं ।
पर-स्त्री तथा परद्रव्य की अपेक्षा करनेवाला और गुरु, आर्त, अशक्त, विदेश में गये हुए तथा शत्रु से पराभूत व्यक्ति को कष्ट देनेवाला पापकर्मा कहा जाता है । ऐसे व्यक्तियों का परित्याग कर देना चाहिये, किंतु उसकी भार्या तथा उसके मित्र एवं पुत्र का अपमान नहीं करना चाहिये । उनका अवमान करना गुरुनिन्दा के समान पातक माना गया है । ब्राह्मण को मारनेवाला, सुरा-पान करनेवाला, स्वर्ण-चोर, गुरु की शय्या पर शयन करनेवाला एवं इनके साथ सम्पर्क रखनेवाला — ये पाँच महापातकी कहे गये हैं । जो क्रोध, द्वेष, भय एवं लोभ से ब्राह्मण का अपमान करता है, वह ब्रह्महत्यारा कहा गया है । जो याचना करनेवाले को और ब्राह्मण को बुलाकर मेरे पास कुछ नहीं हैं । ऐसा कहकर बिना कुछ दिये लौटा देता है, वह चाण्डाल के समान हैं । देव, द्विज और गौ के लिये पूर्वप्रदत्त भूमि का जो अपहरण करता है, वह ब्रह्मघाती है । जो मूर्ख सौरज्ञान को प्राप्तकर उसका परित्याग कर देता है अर्थात् तदनुकूल आचरण नहीं करता, उसे सुरा-पान करनेवाले के समान जानना चाहिये । अग्निहोत्र के परित्यागी, माता और पिता के परित्यागी, कुकर्मक साक्षी, मित्र के हन्ता, सूर्य-भक्तों के अप्रिय को और पञ्चयज्ञों के न करनेवाले, अभक्ष्य-भक्षण करनेवाले तथा निरपराध प्रणियों को मारनेवाले को सर्वाधिपत्य की प्राप्ति नहीं होती । सर्वजगत्पति भानु की आराधना से आत्मलोक का आधिपत्य प्राप्त होता है । अतः मोक्षकामी को भोग की आसक्ति का परित्याग कर देना चाहिये । जो विरक्त हैं, शान्तचित्त हैं, वे सूर्यसम्बन्धी लोक को प्राप्त करते हैं ।
(अध्याय १८८-१८१)

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