December 18, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीलिङ्गमहापुराण -[पूर्वभाग] -002 ॥ श्रीसाम्बसदाशिवाय नमः ॥ दूसरा अध्याय लिङ्गपुराण का परिचय तथा इसमें प्रतिपादित विषयों का वर्णन श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे द्वितीयोऽध्यायः अनुक्रमणिका वर्णनं सूतजी बोले — ईशानकल्प में लिङ्ग के प्रादुर्भाव आदि से सम्बद्ध वृत्तान्तों को आश्रित करके महात्मा ब्रह्मा ने सर्वप्रथम श्रेष्ठ लिङ्गपुराण की उद्भावना की ॥ १ ॥ सौ करोड़ विस्तारवाले पुराणसमुच्चय में एक करोड़ श्लोकों वाला यह लिङ्गपुराण सभी मन्वन्तरों में विभिन्न व्यासों के द्वारा चार लाख श्लोकों में संक्षिप्त किया गया ॥ २ ॥ वही बृहद् पुराणसंहिता प्रत्येक द्वापरयुग में ब्रह्मपुराणादि अठारह पुराणों के रूप में व्यासजी द्वारा विभक्त होती है, उनमें ग्यारहवाँ लिङ्गपुराण कहा गया है, जिसका श्रवण मैंने व्यासजी से किया है ॥ ३ ॥ हे विप्रो! [चार लाख श्लोकों में संक्षेप के पश्चात्] इस ग्रन्थ में श्लोकों की संख्या मात्र ग्यारह हजार है। अतः मैं संक्षेप में ही इसका वर्णन कर रहा हूँ; क्योंकि मैं इसे विस्तार से नहीं सुन सका हूँ ॥ ४ ॥ विभिन्न मन्वन्तरों में अनेक व्यासों द्वारा चार लाख श्लोकों में संक्षिप्त किये गये इस लिङ्गपुराण में से वैवस्वत मन्वन्तर में श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी ने ग्यारह हजार श्लोकों में लिङ्गपुराण का वर्णन किया है ॥ ५ ॥ इसमें सर्वप्रथम प्राधानिक तदनन्तर प्राकृत तथा वैकृत सृष्टि का वर्णन किया गया है। इस अण्ड की उत्पत्ति तथा अण्ड के आठ आवरणों का इसमें वर्णन है ॥ ६ ॥ सदाशिव के ही रजोगुण के समाश्रयण से अण्ड के मध्य से ब्रह्मारूप में, (सत्त्व के आश्रय से) विष्णुरूप में, ( तमोगुण के आश्रय से) कालरुद्ररूप में प्रादुर्भाव का तथा अन्त में उन्हीं सदाशिव का ही प्रलयकालीन जलराशि में (नारायण के रूप में) शयन का वर्णन किया गया है ॥ ७ ॥ इस पुराण के अन्तर्गत प्रजापतियों की सृष्टि, पृथ्वी के उद्धार की कथा तथा ब्रह्मा के दिन-रात और उनकी आयु की गणना का वर्णन किया गया है ॥ ८ ॥ इसमें ब्रह्मा की उत्पत्ति तथा उनके युग एवं कल्प वर्णित हैं। दिव्य वर्ष, मानुष वर्ष, आर्षवर्ष, ध्रौव्यवर्ष तथा पित्र्यवर्ष का इसमें वर्णन है । पितरों की उत्पत्ति, आश्रमियों के धर्म, सृष्टि – विस्तार की प्रारम्भिक दशा में सृष्टि के त्वरित अभीष्ट विकास के अभाव तथा शक्तिस्वरूपा देवी के उद्भव का वर्णन इसमें किया गया है ॥ ९-१० ॥ मनु तथा शतरूपा की उत्पत्तिरूप में ब्रह्मा के स्त्री-पुरुष भाव का वर्णन, मैथुनी सृष्टि का वर्णन तथा रुद्र के रुदन के पश्चात् उनके आठ नामों का वर्णन इस लिङ्गपुराण में किया गया है ॥ ११ ॥ ब्रह्मा-विष्णु के विवाद तथा उसके बाद शिवलिङ्ग के प्राकट्य का वर्णन इसमें विद्यमान है। शिलाद की तपस्या तथा उन्हें वृत्रारि (इन्द्र) का दर्शन इस पुराण में वर्णित है ॥ १२ ॥ शिलाद तथा इन्द्र का संवाद, शिलाद द्वारा अयोनिज पुत्र के लिये की गयी प्रार्थना, ऐसे पुत्र का दुर्लभत्व तथा कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति इस पुराण में वर्णित हैं ॥ १३ ॥ कलियुगों में आचार्य तथा शिष्य को शिव के दर्शन, व्यासों के अवतार, कल्प, मन्वन्तर, कल्प का स्वरूप, भेदक्रम से कल्पों के आख्यान, कल्पों में वाराहकल्प में विष्णु के वाराहावतार की कथा आदि का वर्णन इस लिङ्गपुराण में है ॥ १४-१५ ॥ मेघवाहन कल्प का वृत्तान्त, रुद्रगरिमा, ऋषियों के मध्य शिवलिङ्ग का उद्भव, लिङ्ग की उपासना – स्नानविधि, शौचाचार का लक्षण, वाराणसी का माहात्म्य तथा क्षेत्रमाहात्म्य आदि का वर्णन इस लिङ्गपुराण में उपलब्ध है ॥ १६-१७ ॥ पृथ्वी पर शिवालयों तथा विष्णु के मन्दिरों की संख्या का वर्णन और अन्तरिक्ष तथा इस ब्रह्माण्ड में देवालयों का वर्णन इसमें है ॥ १८ ॥ स्वारोचिष मन्वन्तर में दक्षप्रजापति का पृथ्वी पर पतन, दक्ष को प्रदत्त शाप तथा उस शाप से दक्ष की मुक्ति इस लिङ्गपुराण में वर्णित है ॥ १९ ॥ कैलास का वर्णन, पाशुपतयोग का वर्णन, चारों युगों के स्वरूप एवं प्रमाण का वर्णन तथा युगधर्म का वर्णन लिङ्गपुराण में विस्तार के साथ उपलब्ध है ॥ २० ॥ चारों युगों के सन्ध्याकालमान का वर्णन, शिवजी के सन्ध्याताण्डव का वर्णन, शंकरजी के श्मशानवास का वर्णन तथा चन्द्रमा की कलाओं की उत्पत्ति का वर्णन इस पुराण में किया गया है ॥ २१ ॥ इस लिङ्गपुराण में शंकरजी का विवाह, तत्पश्चात् पुत्ररूप में श्रीगणेशजी की उत्पत्ति, दीर्घकालीन कामोपभोग-प्रसंग से जगत् के विनाश का भय, सती के द्वारा प्रदत्त शाप, प्राचीनकाल में शिवजी द्वारा त्रिपुरवध करके देवताओं तथा विष्णु की रक्षा, शिवजी का शुक्रोत्सर्ग तथा कार्तिकेय की उत्पत्ति आदि वर्णित है ॥ २२-२३ ॥ ग्रहण आदि कालों में लिङ्ग के अभिषेक का विधान तथा उसका फल, क्षुप् तथा दधीच और दधीच तथा विष्णु का विवाद इस पुराण में वर्णित है ॥ २४ ॥ इस लिङ्गपुराण में देवाधिदेव शूलधारी शिवजी का नन्दीश्वर नाम से प्रादुर्भाव, पतिव्रता का आख्यान, पशु (जीव) तथा पाश (बन्धन) – की मीमांसा, आसक्ति के स्वरूप का ज्ञान, निवृत्ति की योग्यताप्राप्ति, वसिष्ठ के पुत्रों की उत्पत्ति, महात्मा वसिष्ठपुत्रों तथा मुनियों और राजाओं का वंशविस्तार, वसिष्ठपुत्र शक्ति का विनाश, विश्वामित्र की दुर्भावना तथा उनके द्वारा वसिष्ठ की सुरभि धेनु का बलात् अधिग्रहण आदि वर्णित किये गये हैं ॥ २५-२७ ॥ वसिष्ठ के पुत्रशोक, अरुन्धती के विलाप, उनकी पुत्रवधू के प्रेषण, गर्भस्थित शिशु के वचनोद्गार, पराशर -व्यास तथा शुकदेव के अवतार, शक्तिपुत्र पराशर के द्वारा किये गये राक्षसध्वंस, देवताओं के गूढ़ रहस्यरूप विशिष्ट ज्ञान तथा गुरु पुलस्त्य के आज्ञानुसार उनके कृपाप्रसाद से [पराशर द्वारा विष्णु]-पुराण की रचना से सम्बन्धित विषयों का वर्णन किया गया है ॥ २८-३० ॥ भुवनों की परिमिति, ग्रहों-नक्षत्रों की गति जीवच्छ्राद्ध की विधि, श्राद्ध के अधिकारी पात्रों तथा श्राद्ध के विषय में इस पुराण में वर्णन है ॥ ३१ ॥ इस पुराण में नान्दीश्राद्ध के विधान, वेदाध्ययन का स्वरूप, ब्रह्मयज्ञ-पितृयज्ञ – दैवयज्ञ – भूतयज्ञ – नृयज्ञ – इन पाँच महायज्ञों के प्रभाव तथा इन पाँच महायज्ञों के करने की विधि का वर्णन किया गया है। रजस्वला स्त्रियों के सदाचार, उस सदाचार- पालन से विशिष्ट पुत्र की प्राप्ति, प्रत्येक वर्णों के अनुसार मैथुन के नियम, सभी वर्णों के लिये अलग-अलग भोज्य तथा अभोज्य के विधि-विधान और समस्त पापों के प्रायश्चित्त के विषय में पृथक्-पृथक् रूप से विस्तार से वर्णन किया गया है ॥ ३२-३४ ॥ नरकों के स्वरूप, कर्मानुसार दण्ड के विधान, स्वर्ग और नरक प्राप्त करने वाले पुरुषों में दूसरे जन्मों में प्रकट होने वाले चिह्न, अनेक प्रकार के दानों, यमपुरी, पंचाक्षर मन्त्र की मीमांसा तथा रुद्रमाहात्म्य का वर्णन इस लिङ्गपुराण में किया गया है ॥ ३५-३६ ॥ इन्द्र-वृत्रासुर के महासंग्राम का वर्णन, विश्व-रूप के वध का निरूपण, श्वेतमुनि तथा काल का संवाद, श्वेतमुनि की रक्षा के लिये शिव द्वारा काल के संहार का इसमें वर्णन है ॥ ३७ ॥ देवदारुवन में कल्याणकारी भगवान् शम्भु के प्रवेश, सुदर्शन के आख्यान एवं क्रमसंन्यास के लक्षण का वर्णन इस पुराण में किया गया है ॥ ३८ ॥ शिव-प्राप्ति श्रद्धा द्वारा ही साध्य है — इस सिद्धान्त का ब्रह्मा द्वारा निरूपण, मधु-कैटभ संसर्ग से नष्ट ज्ञान वाले ब्रह्मा को परम ज्ञान प्रदान करने के लिये शिवप्रादुर्भाव, भगवान् विष्णु का मत्स्यरूप में अवतार तथा सभी अवस्थाओं में लीलापूर्वक विष्णु की उत्पत्ति का वर्णन इस लिङ्गपुराण में उपलब्ध है ॥ ३९-४० ॥ भगवान् शंकर की कृपा से श्रीकृष्ण तथा कामदेव के रूप में प्रद्युम्न के प्रादुर्भाव एवं समुद्रमन्थन के समय मथानी-धारण के लिये भगवान् विष्णु के कूर्मावतार का वर्णन इस पुराण में है ॥ ४१ ॥ संकर्षण की उत्पत्ति, चण्डिका के रूप में कौशिकी के प्रादुर्भाव, यदुवंशियों की उत्पत्ति, स्वयं विष्णु के यदुकुल में प्रादुर्भाव, श्रीकृष्ण के मामा भोजराज (कंस ) – के दुर्भाव, बालरूप में श्रीकृष्ण की लीलाओं तथा पुत्र के लिये शंकरजी की पूजा का वर्णन इस लिङ्गपुराण में किया गया है ॥ ४२-४३ ॥ विष्णुरूप शिव से कपाल में जल की उत्पत्ति तथा पृथ्वी का भार उतारने के लिये विष्णु द्वारा शंकरजी की की गयी आराधना का वर्णन इस पुराण में है ॥ ४४ ॥ प्राचीनकाल में वेनपुत्र पृथु के द्वारा गोरूप पृथ्वी के दोहन तथा देवासुरसंग्राम में कृष्ण के द्वारा प्राप्त किये गये भृगु-लोक-प्रदत्त शाप, द्वारकापुरी में कृष्णरूप में विष्णु के निवास, कल्याण के लिये विष्णु के द्वारा स्वीकार किये गये दुर्वासाप्रदत्त शाप का वर्णन इस लिङ्गपुराण में किया गया है ॥ ४५-४६ ॥ वृष्णि तथा अन्धक वंशों के विनाश के लिये पिण्डारक क्षेत्रवासी यादवों को दिये गये शाप, मूसल तथा एरका की उत्पत्ति, एरका घास ले-लेकर आपस में एक-दूसरे पर प्रहार करने से वृष्णिवंशियों के विनाश, अपनी ही लीला से श्रीकृष्ण के द्वारा अपने ही कुल के विनाश, उसी एरकारूपी अस्त्र के प्रभाव से श्रीकृष्ण के इच्छापूर्वक अपने धाम के लिये प्रयाण तथा कृष्णरूपी ब्रह्म की प्रयाणलीला के रहस्य का विस्तृत वर्णन इस लिङ्गपुराण में किया गया है ॥ ४७-४९ ॥ इन्द्र बने हुए त्रिपुरासुर, गजरूपी अन्धकासुर, मृगरूपी यज्ञाग्नि, दक्ष, कामदेव, देवताओं के आदिदेव ब्रह्मा, हलाहल विष, दैत्य एवं अन्य असुरों के शिवकृत दमन का वर्णन तथा जालन्धरवध एवं सुदर्शन की उत्पत्ति का वर्णन भी इस पुराण में प्राप्त है ॥ ५०-५१ ॥ इस लिङ्गपुराण में भगवान् विष्णु को श्रेष्ठ आयुध की प्राप्ति, रुद्र के क्रिया-कलाप तथा उनके अन्य हजारों चरित्रों का वर्णन किया गया है ॥ ५२ ॥ विष्णु – ब्रह्मा तथा महात्मा इन्द्र के अनुभव एवं प्रभाव का वर्णन तथा शिवलोक का भी वर्णन है । भूमिष्ठ रुद्रलोक, पातालस्थ हाटकेश्वर, तपों के लक्षण एवं द्विजों के वैभव का निरूपण भी इस पुराण में किया गया है ॥ ५३-५४ ॥ भगवान् शंकर के विग्रहों की व्यापकता तथा उनकी लिङ्गमूर्ति की विशेषता इस पुराण में वर्णित है। इस लिङ्गमहापुराण में पूर्वोक्त विषयों का प्रायः क्रमिक रूप से वर्णन किया गया है। इसे जानकर जो मनुष्य लिङ्ग- पुराण की इस संक्षिप्त अनुक्रमणिका का कीर्तन (पाठ) करता है, वह सभी पापों से छूटकर ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है ॥ ५५-५६ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराण के अन्तर्गत पूर्वभाग में ‘अनुक्रमणिकावर्णन’ नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥ Content is available only for registered users. 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