भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १३२ से १३३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १३२ से १३३
सूर्य-प्रतिमा की निर्माण-विधि

नारदजी ने कहा —यदुशार्दूल ! मैं सभी देवों को प्रतिमा का लक्षण विशेषरूप से आदित्य की प्रतिमा का लक्षण कहता हूँ । एक हाथ, दो हाथ, तीन हाथ अथवा साढ़े तीन हाथ लम्बी या देवालय के द्वार के प्रमाण के अनुसार भगवान् सूर्य की प्रतिमा का निर्माण कराना चाहिये । एक हाथ की प्रतिमा सौम्य होती है, दो हाथ की धन-धान्य देती है, तीन हाथ की प्रतिमा से सभी कार्य सिद्ध होते हैं, साढ़े तीन हाथ की लम्बी प्रतिमा स्थापना से राष्ट्र में सुभिक्ष, कल्याण और आरोग्य की प्राप्ति होती है ।om, ॐ प्रतिमा के अग्रभाग, मध्यभाग और मूलभाग में सौम्य होने पर उसको गान्धर्वी प्रतिमा कहते हैं । वह धन-धान्य प्रदान करती है । देवालय के द्वार का जितना विस्तार हो, उसके आठवें अंश के समान प्रतिमा बनवानी चाहिये ।

भगवान् सूर्य की प्रतिमा विशाल नेत्र, कमल के समान मुख, रक्तवर्णके बिम्ब के समान सुन्दर ओठ, रत्नजटित मुकुट से अलंकृत मस्तक, मणि-कुण्डल, कटक, अंगद, हार आदि अलंकारों से सुशोभित अव्यङ्ग धारण किये हुए, हाथों में प्रफुल्लित कमल और सुवर्ण की माला लिये हुए अतिशय सुन्दर सभी शुभ लक्षणों से समन्वित बनवानी चाहिये ।
इस प्रकार की प्रतिमा प्रजा का कल्याण करने वाली, आरोग्य-प्रदायक तथा अभय प्रदान करनेवाली होती है । हीन या कम अङ्गवाली प्रतिमा अनिष्टकारक होती है । अतः प्रतिमा सीधी और सुडौल बनवाना चाहिये ।

ब्रह्माजी की मूर्ति हाथ में कमण्डलु धारण किये कमलासन पर विराजमान तथा चार मुखों से संयुक्त बनवानी चाहिये । कार्तिकेय की प्रतिमा कुमार-स्वरूप, हाथ में शक्ति लिये, अतिशय सुन्दर बनानी चाहिये । इनको ध्वजा मयूर-मण्डित होनी चाहिये ।

इन्द्र की प्रतिमा चार दाँतों से युक्त सफेद दाँतों वाले ऐरावत गज पर आरूढ़ तथा हाथ में वज्र धारण किये हुए बनवानी चाहिये । इस प्रकार देव की प्रतिमा शुभ लक्षणों से युक्त और सुन्दर बनवानी चाहिये ।

नारदजी बोले — साम्ब ! भगवान् सूर्य को इस प्रकार की प्रतिमा बनवाकर ईशानकोण में चार तोरण, पल्लव, पुष्पमाला, पताका आदि से विभूषित कर फिर अधिवासन के लिये मण्डप का निर्माण करवाना चाहिये । काष्ठ की मूर्ति श्री, विजय, बल, यश, आयु और धन प्रदान करती है, मिट्टी की प्रतिमा प्रजा का कल्याण करती हैं । मणिमयी प्रतिमा कल्याण और सुभिक्ष प्रदान करती है, सुवर्ण की प्रतिमा पुष्टि, चाँदी की मूर्ति कीर्ति, ताम्र की मूर्ति प्रजावृद्धि तथा पाषाण की प्रतिमा विपुल भूमि लाभ कराती है । लोहे, शीशे एवं रांगे की मूर्तियाँ अनिष्ट करनेवाली होती हैं, इसलिये इन धातुओं की प्रतिमा नहीं बनवानी चाहिये ।
साम्बने पूछा — नारदजी ! भगवान् सूर्य सर्वदेवमय कहे गये हैं, यह उनका सर्वदेवमयत्व कैसा है ? उसे कृपाकर बतलाइये ।

नारदजी ने कहा — साम्ब ! तुमने बड़ी अच्छी बात पूछी है । अब मैं यह सब बता रहा हूँ । इसे ध्यान से सुनो —

भगवान् सूर्य सर्वदेवमय हैं, उनके नेत्रों में बुध और सोम, ललाट पर भगवान् शंकर, सिर में ब्रह्मा, कपाल में बृहस्पति, कण्ठ में एकादश रुद्र, दाँतो में नक्षत्र और ग्रहों का निवास है । ओष्ठों में धर्म और अधर्म, जिह्वा में सर्वशास्त्रमयी महादेवी सरस्वती स्थित हैं । कर्णों में दिशाएँ और विदिशाएँ, तालुदेश में ब्रह्मा और इन्द्र स्थित हैं । इसी प्रकार भ्रूमध्य में बारहों आदित्य, रोमकूपों में सभी ऋषिगण, पेट में समुद्र, हृदय में यक्ष, किन्नर, गन्धर्व, पिशाच, दानव और राक्षसगण विराजमान हैं । भुजाओं में नदियां, कक्षों में वृक्ष, पीठ के मध्य मेरु, दोनों स्तनों के बीच में मङ्गल और नाभिमण्डल में धर्मराज का निवास है । कटिप्रदेश में पृथ्वी आदि, लिङ्ग में सृष्टि, जानुओं में अश्विनीकुमार, ऊरुओं में पर्वत, नखों के मध्य सातों पाताल, चरणों के बीच वन और समुद्रसहित भूमण्डल तथा दन्तान्तरों में कालाग्नि रुद्र स्थित हैं । इस प्रकार भगवान् सूर्य सर्वदेवमय तथा सभी देवताओं के आत्मा हैं । जैसे वायु से विश्व व्याप्त हैं, वैसे ही चराचर जगत् इनसे परिव्याप्त हैं, क्योंकि वायु भी भगवान् सूर्य के प्रत्येक अङ्गों में ही स्थित रहता है । ऐसे ये भगवान् सूर्य सम्पूर्ण प्राणियों पर अनुग्रह करने के लिये निरन्तर तत्पर रहते हैं ।(अध्याय १३२-१३३)

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