भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १८१ से १८२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १८१ से १८२
विविध स्मृति-धर्मों तथा संस्कारों का वर्णन

राजा शतानीक ने कहा — ब्रह्मन् ! पाँच प्रकार के जो स्मृति आदि धर्म हैं, उन्हें जानने की मुझे बड़ी ही अभिलाषा है । कृपापूर्वक आप उनका वर्णन करें ।

सुमन्तुजी बोले — महाराज ! भगवान् भास्कर ने अपने सारथि अरुण से जिन पाँच प्रकार के धर्मों को बतलाया था, मैं उनका वर्णन कर रहा हूँ, आप उन्हें सुनें ।om, ॐभगवान् सूर्य ने कहा — गरुड़ाग्रज ! स्मृतिप्रोक्त धर्म का मूल सनातन वेद ही हैं । पूर्वानुभूत ज्ञान का स्मरण करना ही स्मृति हैं । स्मृत्यादि धर्म पाँच प्रकार के होते हैं । इन धर्मों का पालन करने से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा इस लोक में सुख, यश और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है । पहला वेदधर्म है । दूसरा है आश्रम—धर्म अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास । तीसरा है वर्णाश्रम—धर्म अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । चौथा है गुणधर्म और पाँचवाँ है नैमित्तिक धर्म — ये ही स्मृत्यादि पाँच प्रकार के धर्म कहे गये हैं । वर्ण और आश्रम-धर्म के अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए कर्मों को सम्पादित करना ही वर्णाश्रम और आश्रमधर्म कहलाता है । जिस धर्म का प्रवर्तन गुण के द्वारा होता है, वह गुणधर्म कहलाता है । किसी निमित्त को लेकर जो धर्म प्रवर्तित होता है, उसे नैमित्तिक धर्म कहते हैं । यह नैमित्तिक धर्म जाति, द्रव्य तथा गुण के आधारपर होता है ।निषेध और विधि रूप में शास्त्र दो प्रकार के होते हैं । स्मृतियाँ पाँच प्रकार की हैं — दृष्ट-स्मृति, अदृष्ट-स्मृति, दृष्टादृष्ट-स्मृति, अनुवाद-स्मृति और अदृष्टादृष्ट-स्मृति । सभी स्मृतियों का मूल वेद ही है । स्मृति-धर्म के साधन-स्थान ब्रह्मावर्त, मध्यक्षेत्र, मध्यदेश, आर्यावर्त तथा यज्ञिय आदि देश हैं । सरस्वती और दृषद्वती (कुरुक्षेत्र के दक्षिण सीमा की एक नदी) इन दो देव-नदियों के बीच का जो देश है वह देव-निर्मित देश ब्रह्मावर्त नाम से कहा जाता है । हिमाचल और विन्ध्यपर्वत के बीच के देश को जो कुरुक्षेत्र के पूर्व और प्रयाग के पश्चिम में स्थित है उसे मध्यदेश कहा जाता है । पूर्व-समुद्र तथा पश्चिम-समुद्र, हिमालय तथा विन्ध्याचल पर्वत के बीच के देश को आर्यावर्त देश कहा जाता है । जहाँ कृष्णसार मृग (कस्तूरी मृग) विचरण करते हैं और स्वभावतः निवास करते हैं, वह यज्ञिय देश है । इनके अतिरिक्त दूसरे अन्य देश म्लेच्छ-देश हैं जो यज्ञ आदि के योग्य नहीं हैं । द्विजातियों को चाहिये कि विचारपूर्वक इन देशों में निवास करें ।
भगवान् आदित्य ने पुनः कहा — खगराज ! अब मैं आश्रमधर्म बतला रहा हूँ । ब्रह्मचर्याश्रम-धर्म, गृहस्थाश्रम-धर्म, वानप्रस्थाश्रम-धर्म और संन्यासाश्रम-धर्म — क्रम से इन चार प्रकार से जीवनयापन करने को आश्रमधर्म कहा जाता है । एक ही धर्म चार प्रकार से विभक्त हो जाता है । ब्रह्मचारी को गायत्री की उपासना करनी चाहिये । गृहस्थ को संतानोत्पत्ति और ब्राह्मण, देव आदिकी पूजा करनी चाहिये । वानप्रस्थी को देवव्रत-धर्म का और संन्यासी को नैष्ठिक धर्म का पालन करना चाहिये । इन चारों आश्रमों के धर्म वेदमूलक हैं । गृहस्थ ऋतुकाल में मन्त्र-पूर्वक गर्भाधान-संस्कार करना चाहिये । तीसरे मास में पुंसवन तथा छठे अधवा सातवें मास में सीमन्तोन्नयन-संस्कार करना चाहिये । जन्म के समय जातकर्म-संस्कार करना चाहिये । जातक (शिशु)—को स्वर्ण, घी, मधु का मन्त्रों द्वारा प्राशन कराना चाहिये । जन्म से दसवें ग्यारहवें या बारहवें दिन शुभ मुहूर्त, तिथि, नक्षत्र, योग आदि देखकर नामकरण-संस्कार करना चाहिये । शास्त्रानुसार छठे मास में अन्न-प्राशन करना चाहिये । सभी द्विजाति बालकों का चूडाकरण-संस्कार एक वर्ष अथवा तीसरे वर्ष में करना चाहिये । ब्राह्मण बालक का आठवें वर्ष में, क्षत्रिय का ग्यारहवें और वैश्य का बारहवें वर्ष में यज्ञोपवीत-संस्कार करना उत्तम होता है । गुरु से गायत्री की दीक्षा ग्रहण कर वेदाध्ययन करना चाहिये । विद्याध्ययन के पश्चात् गुरु की आज्ञा प्राप्तकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिये और गुरु को यथेष्ट सुवर्णादि देकर प्रसन्न करना चाहिये । गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर अपने समान वर्णवाली उत्तम गुणों से युक्त कन्या से विवाह करना चाहिये । जो कन्या माता-पिता के कुल से सात पीढ़ी तक की न हो और समान गोत्र की न हो ऐसी अपने वर्ण की कन्या से विवाह करना चाहिये ।

विवाह आठ प्रकार के होते हैं — ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच । वर और कन्या के गुण-दोष को भली-भाँति परखने के बाद ही विवाह करना चाहिये । कन्याएँ अवस्था-भेद से चार प्रकार की होती हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं — गौरी, नग्निका, देवकन्या तथा रोहिणी । सात वर्ष की कन्या गौरी, दस वर्ष की नग्निका, बारह वर्ष की देवकन्या तथा इससे अधिक आयु की कन्या रोहिणी (रजस्वला) कहलाती है । निन्दित कन्याओं से विवाह नहीं करना चाहिये । द्विजातियों को अग्नि के साक्ष्य में विवाह करना चाहिये । स्त्री-पुरुष के परस्पर मधुर एवं दृढ़ सम्बन्धों से धर्म, अर्थ और काम की उत्पत्ति होती हैं और वही मोक्ष का कारण भी है ।
(अध्याय १८१-१८२)

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